भारतीय संविधान एवं राजव्यवस्था- मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
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BPSC Mains answer writing
1 प्रश्न: संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत अंतर्राज्यीय परिषदों की स्थापना को राज्यों के बीच समन्वय और
केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण कदम क्यों माना जाता है?
उत्तर: संविधान का अनुच्छेद 263 केंद्र और राज्यों तथा राज्यों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए
अंतर्राज्यीय परिषदों की स्थापना का प्रावधान करता है। सरकारिया आयोग की सिफारिश
पर गठित अंतर्राज्यीय परिषद में प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और सभी राज्यों के
मुख्यमंत्री, केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक तथा केंद्रीय
मंत्री सदस्य होते हैं। विभिन्न राज्यों के बीच समन्वय और केंद्र-राज्य संबंधों
को मजबूत करने में अंतर्राज्यीय परिषद की उपयोगिता निम्न प्रकार समझ सकते हैं
विवाद समाधान:यह
राज्यों के बीच गैर-कानूनी विवादों की जांच और सलाह देता है। यह कार्य न्यायालय के
अधिकार क्षेत्र के पूरक के रूप में कार्य करता है।
साझा हितों का अन्वेषण:परिषद
केंद्र और राज्यों के साझा हित के विषयों पर विचार-विमर्श करती है, जो
नीति निर्माण और क्रियान्वयन में सहयोग को बढ़ावा देता है।
समन्वय में सुधार:यह परिषद
नीति निर्माण और क्रियान्वयन में बेहतर समन्वय के लिए सिफारिशें करती है।
पारदर्शिता और सहयोग:परिषद
की बैठकें नियमित और पारदर्शी होती हैं। यह केंद्र और राज्यों को एक साथ काम करने
का मंच प्रदान करती है।
अंतर्राज्यीय परिषद एक परामर्शदात्री गैर बाध्यकारी
निकाय है फिर भी,
यह केंद्र और राज्यों के बीच आपसी संवाद, नीति
समन्वय और विवाद समाधान के लिए एक प्रभावी माध्यम है जिसके द्वारा संघीय व्यवस्था
को अधिक स्थिरता और सहकारिता मिलती है।
2. प्रश्न : "संविधान की संघीय प्रकृति भारतीय
लोकतंत्र की मजबूती का आधार है।" इस कथन का संदर्भ देते हुए भारतीय संघीयता
की प्रकृति का विश्लेषण करें।
उत्तर: भारत में संघीय प्रकृति की व्यवस्था है जहां
द्विसदनीय विधायिका,
केन्द्र राज्य के बीच शक्तियों का बंटवारा, संविधान
की सर्वोच्चता, स्वतंत्र न्यापालिका जैसे तत्वों का
समावेश है । यह व्यवस्था भारत जैसे विविधतापूर्ण वाले देश में लोकतांत्रिक
प्रक्रियाओं को अधिक समावेशी और मजबूत बनाता है जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता
है:-
संघीयता का लोकतंत्र पर
प्रभाव:
राज्यों की स्वायत्तता:संघीयता
में दोहरी शासनवाली व्यवस्था है जो राज्यों को उनके क्षेत्र में स्वतंत्र निर्णय
लेने की शक्ति प्रदान करती है जो स्थानीय आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने
में सहायक है।
क्षेत्रीय दलों का योगदान:संघीय
व्यवस्था ने क्षेत्रीय दलों को उभरने और उनकी मांगों को प्रतिनिधित्व देने का अवसर
प्रदान किया है जो लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा देता है।
संविधान के तहत शक्तियों का
संतुलन:लिखित
संविधान ने केंद्र और राज्यों के अधिकार स्पष्ट रूप से विभाजित किए हैं जिससे इनके
संबंध लोकतांत्रिक एवं सहयोगात्मक बनते हैं । इसमें उच्चतम न्यायालय संतुलन को
बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विशेष स्थितियां में संघवाद
: विशेष
परिस्थितियों जैसे आपातकालीन प्रावधानों के तहत, संघीय व्यवस्था
अस्थायी रूप से एकात्मक हो जाती है और सामान्य स्थिति में संघीय ढांचा पुनः
स्थापित हो जाता है। यह राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं शांति
के लिए आवश्यक होता है।
अत: कहा जा सकता है कि भारतीय संघीयता ने लोकतंत्र को
मजबूती प्रदान की है। यह न केवल क्षेत्रीय विविधता का सम्मान करती है, बल्कि
राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने का कार्य भी करती है।
3. प्रश्न: भारत में संसदीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी
ताकत और कमजोरी क्या है? इसे समझाने के लिए भारतीय संदर्भ
में उदाहरण दें।
उत्तर- भारत का संसदीय लोकतंत्र संविधान द्वारा
संरक्षित एक प्रणाली है,
जो जनता को उनके प्रतिनिधित्व के माध्यम से सशक्त बनाता है। यह
प्रणाली जनप्रतिनिधित्व, बहुलवाद और जवाबदेही के सिद्धांतों
पर आधारित है जिसकी ताकत को निम्न प्रकार देखा जा सकता है
जनप्रतिनिधित्व:
प्रतिनिधित्व भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है जो जनता के लिए आवाज़ उठाती
है। भारतीय संसदीय व्यवस्था में यह विभिन्न समुदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व
करता है जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है।
सशक्त विधायी प्रक्रिया: कानून
निर्माण की स्पष्ट प्रक्रिया, जैसे कृषि कानूनों पर चर्चा, लोकतांत्रिक प्रणाली को मज़बूत बनाती है।
उत्तरदायित्व/ जवाबदेही: सरकार
संसद के प्रति उत्तरदायी रहती है। 1977 के आम चुनाव में जनता
ने आपातकाल के दौरान सरकार की गलतियों के लिए उन्हें सत्ता से हटा दिया।
बहुलवाद: गठबंधन
सरकारों का उदय यह दिखाता है कि विभिन्न विचारधाराओं का समावेश संभव है।
इस प्रकार उक्त विशेषताओं/ताकतों के बावजूद इस व्यवस्था
में कुछ कमजोरियां है जिसमें प्रमुख निम्नानुसार है
अधिकारों का अतिक्रमण: कार्यपालिका
की शक्ति का कभी-कभी अत्यधिक हो जाना।
विधायिका की गिरती
गुणवत्ता: संसदीय
बहसों की गुणवत्ता में गिरावट, जैसे कि अनावश्यक हंगामे।
क्षेत्रीय राजनीति का
प्रभाव: राष्ट्रीय
हितों के बजाय क्षेत्रीय मुद्दों का वर्चस्व।
इस प्रकार संसदीय लोकतंत्र भारत की ताकत है बावजूद इस व्यवस्था
में कुछ कमजोरियां जिनको दूर करने की दिशा में संसद की कार्यवाही में सुधार के लिए
सख्त नियम लागू करने,
सांसदों को संसदीय
प्रक्रियाओं में बेहतर प्रशिक्षण जैसे प्रमुख सुझाव दिए जा सकते हैं जो इस व्यवस्था
में स्थिरता और सुधार के लिए आवश्यक हैं।
4. प्रश्न: संसदीय समितियों
का प्रभावी कार्यान्वयन लोकतंत्र को कैसे मजबूत कर सकता है? इसके कार्यों और चुनौतियों पर चर्चा करें।
संसदीय समितियां भारतीय लोकतंत्र की संरचना का अभिन्न
हिस्सा हैं। वे संसद के कार्यों को सुव्यवस्थित करने और गहराई से जांच-पड़ताल
सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। इनका प्रभावी कार्यान्वयन लोकतंत्र की गुणवत्ता
और जवाबदेही को बढ़ाने में सहायक है।
संसदीय समितियों के कार्य:
नीतियों और कानूनों की
समीक्षा:समितियां
प्रस्तावित विधेयकों और नीतियों का विश्लेषण कर संसद को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत
करती हैं।
वित्तीय प्रबंधन:सार्वजनिक
लेखा समिति और प्राक्कलन समिति वित्तीय अनियमितताओं और बजट प्रस्तावों की जांच करती
हैं।
सरकार की जवाबदेही:समितियां
सरकारी कार्यों की निगरानी कर उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं।
विशेषज्ञता का उपयोग:समितियां
विषय विशेषज्ञों और हितधारकों की राय लेकर निर्णय प्रक्रिया को मजबूत बनाती हैं।
समय की बचत:विस्तृत
चर्चा और तकनीकी विषयों पर गहन अध्ययन समिति स्तर पर होता है, जिससे
संसद का समय बचता है।
संसदीय समितियों से
लोकतंत्र को मजबूती:
संसदीय समितियों के कार्यों को देखा जाए तो स्पष्ट
होता है कि समितियां जहां सरकार के कामकाज की समीक्षा कर उसकी पारदर्शिता सुनिश्चित
कर सकती हैं वहीं यह विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्यों को एकजुट कर बहस और सहमति
को प्रोत्साहित कर विवादास्पद मुद्दों पर गहन अध्ययन और संतुलित सुझाव प्रस्तुत
करने और तर्कसंगत नीति निर्माण में मदद कर सकती है। विभिन्न समितियों की
सिफारिशें नीतियों को अधिक प्रभावी और व्यावहारिक बना सकती है।
इस प्रकार संसदीय समितियों की जवाबदेही में वृद्धि कर, पारदर्शिता
लाकर, लोकतंत्र को ज्यादा उत्तरदायी एवं समावेशी बनाया जा
सकता है। इस व्यवस्था की कुछ चुनौतियां भी है जो निम्न प्रकार है
सिफारिशों का अनदेखा होना: समितियों
की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं, जिससे सरकार अक्सर इन्हें
नजरअंदाज कर देती है।
सीमित विशेषज्ञता: कुछ
मामलों में विषय विशेषज्ञों की कमी समितियों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है।
राजनीतिक प्रभाव: समितियों
में राजनीतिक पक्षपात और दबाव उनके कार्यों को प्रभावित करते हैं।
समय की कमी: समितियों
को गहन अध्ययन के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता।
पारदर्शिता का अभाव: कुछ
मामलों में समितियों की बैठकों का सार्वजनिक न होना आलोचना का कारण बनता है।
सुधार के लिए सुझाव:
सिफारिशों को बाध्यकारी
बनाना:समितियों
की सिफारिशों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधान लाए जाएं।
विशेषज्ञता में सुधार:बाहरी
विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं को शामिल कर समितियों की कार्यक्षमता बढ़ाई जाए।
पारदर्शिता:बैठकों
का लाइव प्रसारण और रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए।
प्रशिक्षण और संसाधन:सांसदों
और समिति सदस्यों को बेहतर प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराए जाएं।
अधिक समय आवंटित करना:समितियों
को कामकाज के लिए पर्याप्त समय दिया जाए।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि संसदीय समितियों का प्रभावी कार्यान्वयन भारतीय लोकतंत्र को पारदर्शिता, जवाबदेही, और समावेशिता के साथ मजबूत बनाता है। चुनौतियों के समाधान और सुधारों के कार्यान्वयन से समितियां लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में और अधिक सशक्त हो सकती हैं।
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