पाल कला-भारतीय इतिहास कला एवं संस्कृति
आठवीं से बारहवी शताब्दी के मध्य भारत के पूर्वी भाग मुख्यतः बिहार और बंगाल में पाल शासकों का शासन था जो शांति एवं समद्धि का काल था । इस काल में कला के विभिन्न विद्याओं जैसे- स्थापत्य-कला, मूर्तिकला, चित्रकला के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई जिसके फलस्वरूप नालन्दा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी कलात्मक गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभरे तथा इस काल की कला-शैली को 'पाल कला' की संज्ञा दी गयी । पाल-कला शैली की कलाओं को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है-
1. मूर्तिकला
पाल शासकों के शासन
काल में मूर्तिकाल की विशिष्ट शैली का विकास हुआ जिसके प्रमुख केन्द्र गया, नालंदा,
अतिचक, कुक्रीहार, इमादपुर, राजगृह, भागलपुर
इत्यादि थे। इस काल में बौद्ध मूर्तियों के साथ-साथ हिन्दू देवी-देवताओं
जैसे-विष्णु, सूर्य, गणेश,
शिव-पार्वती की भी मूर्तियां बनायी गयी जो तत्कालीन
सामाजिक-धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाती है।
कांस्य मूर्तिकला
पाल कला के प्रसिद्ध
कलाकार धीमन तथा विठपाल के नेतृत्व में बोधगया, राजगीर, भागलपुर, नालंदा क्षेत्र में कांस्य
मूर्तिकाल की एक उन्नत शैली का विकास हुआ। इस काल में बनी कांस्य मूर्तियां
सांचे में ढाल कर बनायी जाती थी जिसमें धातु मिश्रण की उन्नत तकनीक का प्रयोग
किया जाता था। इस काल में निर्मित बुद्ध की सबसे विशालकाय कांस्य मूर्ति सुल्तानगंज
से प्राप्त हुई है।
प्रस्तर मूर्तियां
इस काल की प्रस्तर
मूर्तियों आज भी अपनी कलात्मक सुदंरता हेतु हेतु आज भी प्रासंगिक है । मूर्ति
निर्माण में प्रमुख रूप से संथालपरगना और कैमूर की पहाड़ियों से प्राप्त काले
बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग होता था तथा अधिकांशत: हस्तनिर्मित मूर्तियां थी ।
इन मूर्तियों के अग्रभाग के दृश्यांकन को प्राथमिकता दी जाती थी । बुद्ध के
साथ-साथ हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों की प्राप्ति यह बताता है कि यह धार्मिक
सौहार्द का काल था।
मृण्मूर्तियां
इस काल में बनी मृण्मूर्तियां
का प्रयोग मुख्य रूप से सजावट हेतु किया जाता था । इन मूर्तियों की विषय वस्तु
धार्मिक एवं गैर-धार्मिक दोनों होती थी । धार्मिक विषयों में बुद्ध, हिन्दू
देवताओं की मूर्तियां प्राप्त होती है । मृण्मूर्तियां
में सर्वोत्कृष्ट नमूना हाथ में आइना लेकर शृंगार करती महिला है।
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पाल
मूर्तिकला की विशेषता
- कांस्य मूर्तियां सांचे में ढालकर बनायी जाती थी जिसके प्रमाण नालंदा के मंदिर तथा कुक्रीहार से प्राप्त अवशेषों से प्राप्त होते हैं।
- बुद्ध की
मूर्तियों में जीवन की महत्वपूण घटनाओं जैसे- जन्म, धर्मोंपदेश,
निर्वाण आदि का वर्णन
है।
- प्रस्तर मूर्तियों के निर्माण में काले बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग।
- मूर्तियों का विशेष अलंकरण मूर्तियों को विशिष्टता प्रदान करता है।
- मूर्तियों पर तंत्रमंत्र का प्रभाव दिखता है।
पाल
मूर्तिकला की आलोचना
हांलाकि
पालकालीन मूर्तियां अपने काल की उत्कृष्ट कृतियां मानी जाती है फिर भी कई
संदर्भों में इसकी आलोचना की जाती है ।
- पालकालीन कांस्य मूर्तिकला निर्माण पर कुछ लोगों का एकाधिकार था।
- सामान्यत: मूर्तियों के अग्रभाग को प्राथमिकता दी जाती थी।
- पत्थर की मूर्तियों की चमक मौर्यकला के समान उत्कृष्ट नहीं थी।
- अधिकांश मूर्तियां हस्त निर्मित थी तथा अत्यधिक अलंकरण में कारण इनमें कृत्रिमता तथा मौलिकता का अभाव था।
- इस काल की
मूर्तियों में देवत्व से ज्यादा मानवीय सौन्दर्य भाव का उभार दिखता है ।
2. स्थापत्य
कला
स्तूप/चैत्य/मंदिर एवं महाविहार
पाल शासक महान शासक के साथ-साथ महान निर्माता भी थे जिसके प्रमाण नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुर, सोमपुरी में उनके द्वारा बनाए गए बौद्ध विहार एवं मठों के अवशेषों में आज भी देखे जा सकते हैं। पाल शासकों द्वारा अनेक स्तूप, चैत्य, दुर्ग आदि बनाए गए।
मठों का निर्माण बौद्ध
भिक्षुओं के निवास हेतु किया गया था जो बहुत ही नियोजित ढंग से बनाए गए थे। बौद्ध
मठों में खुले आंगन होते थे जिनके चारों ओर बरामदे बने थे तथा इन मठों में
प्राकृतिक प्रकाश एवं हवा की व्यवस्था का विशेष ध्यान रखा गया।
गोपाल द्वारा नालंदा में बौद्ध विहार बनावाया गया वहीं धर्मपाल द्वारा विक्रमशिला में महाविहार बनवाया गया जिस पर वज्रयान शाखा का प्रभाव था और यहां की शिक्षा इसी पर आधारित थी। पाल शासकों द्वारा बंगाल, बिहार के क्षेत्र में बौद्ध विहार के साथ-साथ तालाबों का भी निर्माण किया गया। इसके अलावा कहलगांव का गुफा मंदिर भी पाल कला के प्रमाण हैं। महिपाल द्वारा काशी में अनेक भवन तथा मंदिर बनाए गए।
3. चित्रकला
पांडुलिपि एवं भित्ति-चित्र
पाल कला के तहत चित्रित पांडुलिपियां ताम्रपत्र
पर लिखी गयी है जिसमें प्रमुख है- अष्टसहसारिका, प्रज्ञापारमिता और
पंचरक्ष। इनमें बुद्ध के जीवन के विभिन्न घटनाओं तथा विभिन्न बौद्ध देवी-देवताओं
का चित्रण किया गया है। इन चित्रों पर तांत्रिक प्रभाव है तथा ये कई बातों में
नेपाल एवं बर्मा की चित्रकला से समानताएं दर्शाती है ।
पाल कला के भित्ति चित्र के प्रमुख अवशेष नालंदा से प्राप्त हुए जिसमें विभिन्न प्रकार के फुलों, ज्यमितीय आकृतियों, मनुष्यों, पशुओं का चित्रण किया गया है जिनमें हाथी, घोड़ा, नर्तकी बोधिसत्व प्रमुख है। इसके अलावा भित्तिचित्र कई अर्थों में अजंता एवं बाघ की गुफा चित्रों से समानता प्रदर्शित करती है तथा महायान परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है ।
पाल कला के चित्रकला के सर्वोत्तम नमूने नेपाल के शाही दरबार, रॉयल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, महाराजा संग्रहालय बड़ौदा तथा बोस्टन संग्रहालय अमेरिका में सुरक्षित है। पाल कला के मूर्तिकला और चित्रकला पर बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का प्रभाव स्पष्ट है जैसे भागलपुर से प्राप्त तारा की मूर्ति और भित्तिचित्र ।
उपरोक्त से
स्पष्ट है कि पालकालीन कलात्मक गतिविधियां अपने-आप में उत्कृष्ट थी तथा इस
कला के विभिन्न आयाम का कला क्षेत्र में आगे भी प्रभाव बना रहा।
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