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Mar 3, 2025

भारतीय इतिहास कला एवं संस्‍कृति- अभ्‍यास मॉडल प्रश्‍न एवं उत्‍तर

 

 


Feb 19, 2025

BPSC Mains answer writing-Indian History Art and culture Question answer

 


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इतिहास कला एवं संस्‍कृति अभ्‍यास का मॉडल उत्‍तर – भाग-1

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प्रश्न 1: मुगल दरबार से पटना तक चित्रकारों की यात्रा भारतीय समाज की राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तनों को कैसे प्रतिबिंबित करती है? एक विश्लेषणात्मक उत्तर दीजिए। 8 अंक 

उत्तर: मुगल दरबार से पटना तक चित्रकारों की यात्रा न केवल कला के संरचनात्मक परिवर्तन को दर्शाती है, बल्कि यह भारतीय समाज की राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना में हुए बदलावों का भी स्पष्ट संकेत देती है।

 

17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औरंगजेब के निरंतर युद्धों ने राजकोष को कमजोर कर दिया जिसके परिणामस्वरूप दरबारी चित्रकारों को संरक्षण मिलना बंद हो गया। मुगलों की सत्ता में आई राजनीतिक अस्थिरता ने कलाकारों को नए आश्रयों की खोज के लिए बाध्य किया, जिसके फलस्वरूप वे मुर्शिदाबाद जैसे नवाबों के संरक्षण वाले क्षेत्रों में पहुँचे। इससे स्पष्ट होता है कि सत्ता संरचना के बदलाव का सीधा प्रभाव तत्‍कालीन समाज एवं सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ता है।

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मराठों और ईस्ट इंडिया कंपनी के हस्तक्षेप से नवाबों की आर्थिक स्थिति कमजोर हुई, तब कलाकारों ने व्यापारिक केंद्रों की ओर रुख किया। पटना का उभरता हुआ आर्थिक महत्त्व इस बात को दर्शाता है कि कला के संरक्षण का आधार केवल शाही दरबार नहीं था, बल्कि व्यापार और धनाढ्य वर्ग भी थे। व्यापारिक वर्ग की समृद्धि ने चित्रकारों को नया मंच प्रदान किया, जिससे कला एक नया केंद्र प्राप्त कर सकी।

 

उपरोक्‍त से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय चित्रकला की परंपरा केवल राजाओं पर निर्भर नहीं थी, बल्कि आर्थिक शक्ति केंद्रों के स्थानांतरण के साथ-साथ उसका विकास होता रहा। पटना जैसे शहर में चित्रकारों को पुनः आश्रय मिलना यह दर्शाता है कि कला और संस्कृति का अस्तित्व केवल शाही संरक्षकता तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वह आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल नए रूप में स्वयं को ढाल लेती है।

 

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प्रश्न 2: पटना कलम की चित्रकला में विषय वस्‍तु, नवाचार और व्यावसायिकता के प्रभाव को मुगलकालीन चित्रकला की तुलना में कैसे समझा जा सकता है? चर्चा करें 38 Marks  

उत्तर: पटना कलम की चित्रकला को समझने के लिए इसे मुगलकालीन चित्रकला की तुलना में देखा जाना आवश्यक है, क्योंकि यह शैली उसी परंपरा से विकसित हुई थी, परंतु अपने स्वरूप और उद्देश्य में यह मुगल चित्रकला से भिन्न हो गई। पटना कलम में विषय वस्‍तु, नवाचार और व्यावसायिकता के प्रभाव को निम्न आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:

 

विषयवस्तु में परिवर्तन

मुगलकालीन चित्रकला शाही वैभव, दरबारी जीवन, युद्ध, शिकार, और राग-रागिनी जैसे विषयों पर केंद्रित थी। कलाकारों की स्वतंत्र कल्पना को इसमें महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। दूसरी ओर, पटना कलम की चित्रकला ने सामान्य जनजीवन को चित्रित किया, जिसमें बढ़ई, किसान, कहार, लोहार, सुनार, पालकी उठाए मजदूर, मछली बेचती स्त्रियाँ आदि प्रमुख विषय बने।

उल्‍लेखनीय है कि यह परिवर्तन समाज के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में आए बदलाव को दर्शाता है। मुगल शासन के कमजोर होने और नवाबों की संरक्षकता कम होने के कारण कलाकारों को व्यावसायिक केंद्रों की ओर जाना पड़ा। पटना, जो एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, ने इन कलाकारों को संरक्षण दिया और उनकी कला को व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला।

 

नवचार एवं व्यावसायिकता का प्रभाव

मुगल दरबार में कलाकारों को कल्पनाशीलता की पूरी स्वतंत्रता मिलती थी, जिससे लघुचित्रों में अलंकरण और शिल्प सौंदर्य अत्यधिक विकसित हुआ। इसके विपरीत, पटना कलम में कलाकारों को नवचार के साथ व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुरूप चित्र बनाने पड़े। बाजार की माँग के अनुसार, वे जनजीवन, स्थानीय व्यापारियों, ब्रिटिश अधिकारियों, और सामाजिक परिदृश्य को दर्शाने लगे।

इसी क्रम में जब कलाकारों को स्वतंत्रता मिली, तो उन्होंने अपनी कल्पनाशक्ति को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। जैसे: महादेव लाल द्वारा "रागिनी गंधारी" में विरह के भाव को गहरे नीले आकाश और शिथिल पड़े कुत्ते के माध्यम से व्यक्त किया गया तो माधोलाल द्वारा "रागिनी तोड़ी" में विरहिणी नायिका को वीणा बजाते हुए दिखाया गया, जिसमें श्याम मृग और कमल ताल को प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया।

 

शैलीगत विशेषताएँ और तकनीकी भिन्नताएँ

मुगल चित्रकला में विस्तृत पृष्ठभूमि, भव्य रंग संयोजन, और बारीक अलंकरण होते थे। लेकिन पटना कलम में व्यावसायिकता के कारण लैंडस्केप और पृष्ठभूमि लगभग समाप्त हो गए। इसकी प्रमुख विशेषताएँ थीं:

  • प्राकृतिक दृश्यों का संक्षिप्त चित्रण
  • फूल-पत्तियों और पक्षियों को अत्यंत सीमित रूप में चित्रित करना
  • सादगीपूर्ण प्रस्तुति
  • लघुचित्र शैली का उपयोग

पटना कलम में कलाकारों ने कागज, अभ्रख और हाथी दाँत जैसे माध्यमों का प्रयोग किया। हाथी दाँत पर मुख्यतः स्त्रियों के पोट्रेट्स बनाए गए, जो तत्कालीन समाज में रईसों की रुचि और उनके शौक को दर्शाते थे।

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रंग संयोजन और सामग्री का अंतर

·        मुगल चित्रकला में प्राकृतिक और महंगे खनिज रंगों का प्रयोग किया जाता था, जबकि पटना कलम के कलाकारों ने सस्ते और आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया, जैसे: कुसुम फूल से पीला, हरसिंगार से लाल, लाजवर्त पत्थर से नीला, काजल से काला आदि।

·        ब्रश निर्माण के लिए भैंस, गिलहरी और सुअर के बालों का उपयोग किया गया। चित्रण के लिए नेपाल के बंसा कागज और यूरोप से आयातित ड्राइंग पेपर का उपयोग हुआ।

 

सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व

·        पटना कलम ने चित्रकला को एक नया आयाम दिया। यह पहली शैली थी जिसमें महिला चित्रकारों ने भी स्थान पाया। इस शैली में अंग्रेजों की भारत में उपस्थिति और तत्कालीन समाज का यथार्थपरक चित्रण भी हुआ।

·        "फिटका बाहा" जैसे छोटे चित्रों के सैट बनाए गए, जो अंग्रेज अधिकारियों और व्यापारियों के लिए स्मृति चिह्न के रूप में उपयोग किए जाते थे।

 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि पटना कलम की चित्रकला ने मुगल परंपरा से विकसित होकर व्यावसायिकता के अनुरूप, विषय वस्‍तु एवं शैली में समकालीन बदलावों एवं नवचार के साथ स्वयं को ढाला। इस शैली ने कला को भव्यता से हटाकर वास्तविक जीवन और व्यावसायिक आवश्यकताओं की ओर मोड़ा। इसके माध्यम से कला केवल शाही दरबार तक सीमित न रहकर जनसामान्य के करीब आई। यह न केवल चित्रकला में नवाचार का उदाहरण है, बल्कि यह दिखाता है कि कैसे आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ कला की दिशा को प्रभावित करती हैं।

 

प्रश्न 3:मौर्यकालीन स्थापत्य में पत्थरों के व्यापक प्रयोग को भारतीय कला का क्रांतिकारी परिवर्तन क्यों माना जा सकता है? क्या यह परिवर्तन केवल स्थापत्य तक सीमित था, या इसका व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा? 8 Marks

उत्तर: मौर्यकालीन स्थापत्य में पत्थरों का प्रयोग भारतीय कला के इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन माना जाता है क्योंकि इससे भारतीय कला को स्थायित्व प्राप्त हुआ। मौर्यकाल से पहले निर्माण मुख्यतः लकड़ी, मिट्टी और घास-फूस से होते थे, जो समय के साथ नष्ट हो जाते थे। पत्थरों के उपयोग ने न केवल स्थापत्य की दीर्धकालिक स्‍वरूप को सुनिश्चित किया बल्कि कला और संस्कृति को एक ठोस पहचान भी दी।

उल्‍लेखनीय है कि इस परिवर्तन का प्रभाव केवल स्थापत्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा-

 

1.    धार्मिक संरचनाओं का विस्तार बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ ही स्तूप, स्तंभ, और गुफा-विहारों का निर्माण हुआ, जिससे धर्म और स्थापत्य का घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ।

2.    राजकीय शक्ति का प्रतीकमौर्य सम्राटों, विशेषकर अशोक, ने स्तंभों और स्तूपों का उपयोग सत्ता, नीति, और धार्मिक संदेशों के प्रचार हेतु किया, जिससे प्रशासन और कला का संलयन हुआ।

3.    तकनीकी नवाचार पत्थरों पर चमकदार पॉलिश (ओप) जैसी तकनीकों ने भारतीय स्थापत्य को विशिष्टता प्रदान की और आगे के स्थापत्य विकास के लिए आधार तैयार किया।

4.    स्थानीय कारीगरी का उत्थानस्वतंत्र कलाकारों द्वारा यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियों और अन्य कलात्मक कृतियों के निर्माण से लोक कला को भी प्रोत्साहन मिला।

 

इस प्रकार, मौर्यकालीन स्थापत्य केवल भौतिक संरचनाओं तक सीमित न रहकर भारतीय कला, संस्कृति, और प्रशासन में व्यापक परिवर्तन का वाहक बना।

 

प्रश्न 4:मौर्यकालीन स्तंभों और ईरानी स्तंभों के बीच मुख्य भेदों का विश्लेषण कीजिए। क्या अशोक स्तंभों को ईरानी प्रभाव की अनुकृति माना जा सकता है? तर्कसंगत उत्तर दें। 38 Marks  

उत्तर: मौर्यकालीन स्तंभ, विशेष रूप से अशोक के स्तंभ, प्राचीन भारत की स्थापत्य कला का एक अद्वितीय उदाहरण हैं। कई पाश्चात्य विद्वान, जैसे सर जॉन मार्शल और पर्सी ब्राउन, अशोक स्तंभों को ईरानी (पर्सिपोलिस) स्तंभों की अनुकृति मानते हैं। यह धारणा मुख्य रूप से स्तंभों की चमकीली पालिश और उनके शीर्ष भाग में बनी पशु आकृतियों के आधार पर बनाई गई है। लेकिन यदि विस्तार से अध्ययन किया जाए, तो मौर्यकालीन स्तंभों और ईरानी स्तंभों के बीच कई मूलभूत अंतर दिखाई देते हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि अशोक स्तंभ किसी प्रत्यक्ष ईरानी प्रभाव की अनुकृति नहीं हैं।

 

संरचनात्मक भिन्नताएँ

  • अशोक स्तंभ एकाश्मक (Single Piece Monolithic) हैं, अर्थात् उन्हें एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है।
  • ईरानी स्तंभ बहुपाश्रयी (Segmented) हैं, अर्थात् उन्हें अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर खड़ा किया गया है।
  • अशोक स्तंभों की निर्माण प्रक्रिया अधिक जटिल थी, क्योंकि एक ही पत्थर को आकार देकर एक विशाल स्तंभ का रूप देना कठिन था।

 

शिल्प और अलंकरण

  • अशोक स्तंभों के शीर्ष भाग पर पशु आकृतियाँ (शेर, सांढ़, हाथी) बनी हैं, जो भारतीय प्रतीकवाद और बौद्ध विचारधारा से प्रभावित हैं।
  • ईरानी स्तंभों के शीर्ष पर मानवीय आकृतियाँ और पंखों वाले प्राणी अंकित होते थे, जो मुख्य रूप से अचमेनिड (Achaemenid) प्रभाव को दर्शाते हैं।

 

स्थापत्य स्थान और उद्देश्य

  • अशोक स्तंभ स्वतंत्र रूप से खुले स्थानों पर स्थापित किए गए थे, विशेष रूप से राजमार्गों, बौद्ध विहारों और महत्वपूर्ण स्थलों पर। इनका उद्देश्य अशोक के धर्म प्रचार और प्रशासनिक संदेशों को जनसामान्य तक पहुँचाना था।
  • ईरानी स्तंभ विशाल महलों और भवनों के अंदर लगाए जाते थे, जिनका मुख्य उद्देश्य वास्तुकला को भव्यता प्रदान करना था।

 

आधार संरचना और डिजाइन

  • अशोक स्तंभ बिना किसी आधार (चौकी) के सीधे भूमि में स्थापित किए गए थे, जिससे उनकी स्थिरता और मजबूती अधिक थी।
  • ईरानी स्तंभ ऊँची चौकी (Platform) पर स्थापित किए जाते थे, जिससे वे राजसी और प्रभावशाली दिखते थे।

सतह संरचना और बनावट

  • अशोक स्तंभों की सतह पूरी तरह से सपाट और चमकदार पालिश से युक्त होती थी, जो उन्हें अत्यंत आकर्षक और टिकाऊ बनाती थी।
  • ईरानी स्तंभ नालीदार (Fluted) थे, अर्थात् उनकी सतह में खड़ी धारियाँ उकेरी जाती थीं, जिससे वे एक अलग प्रकार की बनावट प्रस्तुत करते थे।

 

स्तंभ की आकृति और अनुपात

  • अशोक स्तंभ आधार से शीर्ष तक धीरे-धीरे पतले होते जाते हैं, जिससे उनमें संतुलन और सौंदर्यात्मक अपील बनी रहती है।
  • ईरानी स्तंभों की मोटाई नीचे से ऊपर तक समान रहती है, जो उन्हें एकरूपता देता है, लेकिन वह भारतीय कला की तरह सौंदर्यपरक नहीं लगता।

 

नोट-यहां शब्‍दों की संख्‍या ज्‍यादा है लेकिन यदि आप चाहें तो शब्‍द संख्‍या कम करने के लिए केवल बोल्‍ड किए हुए अंतरों को भी लिख सकते हैं।

 

यदि हम उपरोक्त अंतर देखे, तो स्पष्ट होता है कि अशोक स्तंभों की संरचना, उद्देश्य और अलंकरण ईरानी स्तंभों से काफी भिन्न हैं। हालाँकि, यह संभावना हो सकती है कि मौर्यकालीन स्तंभ अप्रत्यक्ष रूप से ईरानी स्थापत्य से प्रेरित रहे हों। यह इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय मौर्य साम्राज्य और ईरान के अचमेनिड साम्राज्य के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध थे। लेकिन भारत में स्तंभ निर्माण की परंपरा अशोक के समय से पूर्व भी मौजूद थी, जैसे कि महाजनपद काल के स्तूपों में स्तंभों का उल्लेख मिलता है। इसलिए, मौर्यकालीन स्तंभों को पूरी तरह से ईरानी स्तंभों की प्रतिकृति मानना ऐतिहासिक रूप से उचित नहीं है।

 

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अशोक स्तंभ और ईरानी स्तंभों के बीच कुछ सतही समानताएँ हैं, लेकिन उनकी संरचना, उद्देश्य, तकनीक और कला-शैली एक-दूसरे से भिन्न हैं। यह कहा जा सकता है कि मौर्यकालीन स्तंभों पर कुछ विदेशी प्रभाव पड़े होंगे, परंतु वे पूरी तरह से स्वतंत्र और मौलिक भारतीय स्थापत्य परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

 

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Jan 5, 2025

पटना कलम चित्रशैली- भारतीय इतिहास कला एवं संस्‍कृति

 

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Dec 30, 2023

प्रश्‍न- सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलित एवं मुस्लिम वर्ग की सीमित भागीदारी के कारणों की चर्चा करें।

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Oct 9, 2022

मौर्य कला

 

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कृषक आंदोलन एवं स्वामी सहजानंद

 

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Aug 28, 2022

बिरसा मुंडा विद्रोह एवं आंतरिक शुद्धिकरण

 

बिरसा मुंडा विद्रोह एवं आंतरिक शुद्धिकरण



मुंडा छोटानागपुर क्षेत्र की मुख्य जनजाति है जिसने औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों तथा शोषणकारी नीतियों से उत्पन्न हालातों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया। जनजातीय विद्रोहों की शृंखला में मुंडा विद्रोह का महत्वपूर्ण स्थान है ।

1857 की क्रांति के बाद मुंडाओं ने सरदारी आंदोलन के माध्यम से अपने असंतोष को व्यक्त किया किन्तु अहिंसक तथा असंगठित होने के कारण यह मुंडाओं के हालात में बदलाव लाने में असफल रहा। अतः इसी पृष्ठभूमि में मुंडाओं ने औपनिवेशिक सरकार के विरुद्ध् 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हिंसक तथा उग्र आंदोलन किया जिसका उददेश्य औपनिवेशिक सत्ता एवं शोषणकारी तत्वों की समाप्ति कर मुंडा का राज स्थापित करना था । मुंडा विद्रोह को उलगुलान भी कहा गया ।

 

बिरसा मुंडा विद्रोह के कारण

  1. सामूहिक भू-स्वामित्व से संबंधित खूंटकूटी व्यवस्था की समाप्ति ।
  2. औपनिवेशिक सरकार का दमन चक्र ।
  3. निजी भूस्वमित्व की  नई व्यवस्था ।
  4. राजस्व की बढ़ी हुई दर ।
  5. जमींदार, साहूकार, महाजन, बिचौलियों  द्वारा शोषण ।
  6. जल,जंगल, जमीन जैसे संसाधनों से बेदखली ।
  7. मुंडाओं का धर्मान्तरण एवं इससे उपजा असंतोष ।

 

मुंडा विद्रोह का स्वरूप

इस आंदोलन का स्वरूप स्थानीय था जिसके आधार में जनजातीय शोषण से उपजा असंतोष था । बिरसा मुंडा के व्यक्तित्व पर हिन्दू तथा इसाई दोनों धर्मों का प्रभाव था । बिरसा ने हिंदू , ईसाई एवं मुंडा जनजाति के विचारधाराओं के मिश्रण से इस आंदोलन  के स्वरूप को जटिल रूप दिया जिसका लक्ष्य अंग्रेजी राज की समाप्ति तथा स्वतंत्र मुंडा राज की स्थापना था ।

बिरसा आंदोलन सुधारवादी प्रयास के रूप में आरंभ हुआ जिसमें नैतिक आचरण की शुद्धता, एकेश्वरवाद, आत्मसुधार मूल तत्व थे। इन्होंने अपने अनुयायियों को अनेक देवी-देवताओं को छोड़कर एकेश्वरवाद (सिंह बोंगा) की आराधना का निर्देश दिया जिससे समाज में आदर्श व्यवस्था स्थापित हो तथा शोषण उत्पीड़न समाप्त हो।

धार्मिक रुझान से युक्त सुधारवादी आंदोलन के रूप में प्रारंभ आंदोलन एक ओर जनजातियों में व्याप्त अंधविश्वास, अशिक्षा को दूर कर पारंपरिक जनजाति तत्वों को बनाए रखना चाहता था तो दूसरी ओर औपनिवेशिक सत्ता का विरोध, लगान न देना आदि जैसे तत्वों को शमिल कर उपनिवेशवाद की समाप्ति कर मुंडा राज की स्थापना करने का प्रयास करता है।

 

मुंडा विद्रोह का उद्देश्य

  1. दिकू (गैर आदिवासी) जमींदारों द्वारा हड़प की गई भूमि की वापसी ।
  2. अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति कर मुंडा राज की स्थापना ।
  3. मुंडा समाज में व्याप्त अंधविश्वास को दूर करें नए धर्म की स्थापना ।
  4. अंग्रेज अधिकारी, मिशनरी, दिकू को अपने क्षेत्र से निकालना ।

 

बिरसा के उपदेश, कार्य प्रणाली तथा विचार से अनेक मुंडा प्रभावित हुए और 1895 आते आते तक लगभग 6000 समर्पित मुंडा लोगों का एक दल तैयार किया जिसका उद्देश्य दिकू को बाहर निकालना था । इस आंदोलन के दौरान नारा दिया-

काटो बाबा, काटो। यूरोपीयों को, दूसरी जातियों को काटो।

उपरोक्त नारों से मुंडा आंदोलन की हिंसक स्वरूप का पता चलता है । बिरसा ने स्वयं को भगवान घोषित करते हुए कहा कि भगवान ने उसे देवी शक्ति दी है आंदोलन के दौरान बिरसा ने घोषणा की "दिकू से लड़ाई होगी और खून से जमीन लाल होगी किंतु इस बात का ध्यान रखा जाए की गरीब गैर-आदिवासी हाथ ना उठाया जाए ।" इसके फलस्वरूप कई जगह पर हिंसक झड़प हुई और  सरकार ने अपना दमन चक्र चलाया जिसके फलस्वरूप 1900 में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया जहां हैजा के कारण बिरसा की मृत्यु हो गई ।

 

आंदोलन के बाद किए गए सुधार

  1. काश्तकारी संशोधन अधिनियम 1903 द्वारा मुंडा खूंटकूटी को कानूनी मान्यता।
  2. छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बनाया गया ।
  3. जनजातीय के प्रशासनिक सुविधा हेतु खूंटी तथा गुमला अनुमंडल गठन ।
  4. जनजातीय क्षेत्र के प्रशासन हेतु प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति ।

इस प्रकार यह आंदोलन असफल रहा किंतु आने वाले वर्षों में इस आंदोलन ने प्रेरणा स्रोत के रूप में काम किया तथा स्वतंत्रता आंदोलनों में मार्गदर्शन किया।


बिरसा मुंडा विद्रोह एवं आंतरिक शुद्धिकरण संबंधी इस पोस्‍ट को आप वीडियो के माध्‍यम से भी हमारे यूटयूब चैनल पर देख सकते हैं जिसका लिंक नीचे उपलबध कराया जा रहा है।


बिरसा आंदोलन एवं आंतरिक शुद्धिकरण

बिरसा मुंडा के जीवन के प्रारंभिक वर्षों में उनके व्यक्तित्व निर्माण में तीन बातों का प्रभाव पड़ा-

  1. चाईबासा मिशनरी स्कूल की शिक्षा एवं ईसाई धर्म
  2. वैष्णव धर्म
  3. सरदारी आंदोलन

बिरसा मुंडा के विचारों पर हिंदू तथा ईसाई धर्म का गहरा प्रभाव था तथा उनका मानना था कि जनजातीय समाज भ्रमित है वह ना तो हिंदू धर्म को समझ पा रहा है ना इसाई मिशनरी के उद्देश्य को। बिरसा ने इस भ्रम का प्रमुख कारण तत्कालीन जनजातीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास, अशिक्षा तथा रूढ़िवादिता को माना।

बिरसा ने महसूस किया कि सामाजिक कुरीतियां तथा परंपराएं जैसे-बलि प्रथा, बाल विवाह, पशु का शिकार, जनजातीय समाज के धर्म संबंधी आचरण आदि आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर रही है यही कारण है कि आदिवासी कभी मिशनरी समाज के प्रलोभन में आता है तो कभी आडंबरयुक्त आचरण को धर्म समझता है ।

तत्कालीन समाज में औपनिवेशिक शासन की नीतियां, साहूकरों, जमींदारों, बिचौलियों आदि के हस्तक्षेप भी आदिवासियों के जीवन को प्रभावित कर रहे थे। अतः बिरसा ने आदिवासी समाज में व्याप्त बुराइयों अंधविश्वासों अशुद्धियों को दूर करने हेतु आंतरिक शुद्धिकरण को अपनाया जिसका तात्पर्य था-आत्मसाक्षात्कार अर्थात स्वयं को जानना। बिरसा ने आंतरिक शुद्धिकरण हेतु आदिवासियों को तीन स्तरों पर संगठित किया।

1

सामाजिक स्तर पर

कुरीतियों, अंधविश्वासों, धार्मिक मान्यताओं से जनजातीय समाज को मुक्ति दिलाने हेतु सामजिक स्तर पर संगठित किया तथा इस हेतु बोंगा के स्थान पर सिंह बोंगा (एकेश्वरवाद) का प्रचार किया । इसी क्रम में शिक्षा, सहयोग, स्वच्छता इत्यादि पर जोर दिया जिससे सामाजिक स्तर पर जनजातियों में चेतना आए ।

 

2

आर्थिक स्तर पर सुधार

साहूकारों, जमींदार और सरकारी शोषण से मुक्त करने हेतु सामाजिक सुधार को आधार बनाया। इससे जनजातियों में चेतना आई और वे आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने लगे जिससे शोषणकारी तत्वों का प्रतिकूल रूप से प्रभावित होना सामान्य था ।

 

3

राजनीतिक एकता

सामाजिक तथा आर्थिक स्तर पर सुधार से आदिवासियों में चेतना आयी तथा इसके फलस्वरूप वे राजनीतिक रुप से वे संगठित हो अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए।

 

इस प्रकार बिरसा मुंडा के आंदोलन का उद्देश्य आंतरिक शुद्धिकरण था जिसका लक्ष्य था आदिवासी समाज की दशा एवं दिशा में परिवर्तन ला नए युग का सूत्रपात करना ।


बिरसा मुंडा विद्रोह एवं आंतरिक शुद्धिकरण संबंधी यह पोस्‍ट आपको अच्‍छा लगा होगा । पोस्‍ट को पढ़ने के साथ साथ आप इसे वीडियो फारमेट में भी यूटयूब चैनल पर जाकर देख सकते हैं जिसका लिंक नीचे दिया गया है । इसके अलावा आप हमारे मुख्‍य परीक्षा स्‍पेशल नोट्स के माध्‍यम से भी अपनी तैयारी कर सकते हैं जिसे आर्डर करने हेतु 74704-95829 पर जानकारी प्राप्‍त कर सकते हैं । 


बिरसा मुंडा एवं आंतरिक शुद्धिकरण