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Mar 3, 2025

भारतीय इतिहास कला एवं संस्‍कृति- अभ्‍यास मॉडल प्रश्‍न एवं उत्‍तर

 

 


 

प्रश्‍न- भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 पर संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिखें ।

उत्‍तर- 1909 का भारतीय परिषद् अधिनियम, जिसे मिंटो-मॉर्ले सुधार कहा जाता है, भारत में राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों का एक प्रयास था।

1892 के सुधार की अपर्याप्तता, बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन तथा अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो नीति की पृष्‍ठभूमि में इस अधिनियम को लाया गया जिसके प्रमुख प्रावधान निम्‍नलिखित है: -

 

केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों का आकार बढ़ाया गया तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन व्‍यवस्‍था प्रारंभ किया गया ।

भारतीयों को पहली बार वायसराय की कार्यकारी परिषद में शामिल किया गया।

विधायिका को बजट पर चर्चा और प्रश्न पूछने का सीमित अधिकार दिया गया।

मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला।

 

इस एक्‍ट द्वारा सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा को वायसराय की कार्यकारी परिषद में विधि सदस्‍य के रूप में नियुक्त करने के साथ भारतीयों की विधायिका में भागीदारी तो बढ़ी लेकिन वास्तविक शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के पास ही रही।

इसी क्रम में इसके द्वारा सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली द्वारा पृथक निर्वाचक मंडल की व्‍यवस्‍था कर हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर करते हुए भारत में विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा दिया गया।

 

निष्कर्षत: इन सुधारों ने भारत में राजनीतिक समस्या के समाधान के बजाय साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जिससे भविष्य में स्वराज की मांग और तीव्र हो गयी।

                                                                                                   

 

प्रश्‍न- कैबिनेट मिशन (1946) पर संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिखें ।

उत्‍तर- भारत में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमजोर हो चुके ब्रिटेन के लिए भारत के लिए समाधान निकालना आवश्यक हो गया था। इसी पृष्‍ठभूमि में 1945 में ब्रिटेन की नवनिर्वाचित लेबर पार्टी सरकार ने भारत को स्वशासन देने की दिशा में कदम उठाते हुए कैबिनेट मिशन का गठन किया।

 

ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1946 में एक तीन सदस्यीय मिशन भेजा, जिसमें पैथिक लॉरेंस, ए. वी. एलेक्ज़ेंडर और सर स्टेफर्ड क्रिप्स शामिल थे। इसका उद्देश्य भारत के लिए एक स्थायी संविधान निर्माण की रूपरेखा तैयार करना था।

 

मिशन के प्रस्ताव

  • भारत का विभाजन नहीं होगा, क्योंकि यह साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं है।
  • एक संघीय सरकार बनेगी, जिसके पास केवल रक्षा, विदेश नीति और संचार के अधिकार होंगे।
  • प्रांतों को स्वायत्तता मिलेगी और वे अपने संविधान बना सकेंगे।
  • संविधान सभा का गठन किया जाएगा, जिसमें प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर होगा।

 

विरोध और प्रतिक्रिया

  • कांग्रेसकांग्रेस ने संघीय ढांचे को स्वीकार किया लेकिन संविधान सभा की संप्रभुता चाही।
  • मुस्लिम लीगपाकिस्तान की मांग न मानने पर मुस्लिम लीग ने विरोध किया और 'सीधी कार्रवाई' की धमकी दी।
  • सिख और दलितसिखों और डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में दलित वर्ग ने भी प्रस्ताव का विरोध किया।

 

निष्कर्ष

कैबिनेट मिशन योजना भारत की स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मतभेदों के कारण यह पूरी तरह सफल नहीं हो सका। इसके परिणामस्वरूप भारत विभाजन की ओर बढ़ा।

 



 

प्रश्‍न- साइमन कमीशन पर संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिखें ।

उत्‍तर-  नवंबर 1927 को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय संविधान में सुधारों के उद्देश्य से जॉन साइमन की अध्‍यक्षता में साइमन कमीशन की नियुक्ति की गई । इसमें केवल ब्रिटिश संसद के सात सदस्य थे और किसी भी भारतीय नहीं शामिल था। भारतीय प्रतिनिधित्व के अभाव ने राष्ट्रवादी भावनाओं को ठेस पहुँचाई और व्यापक विरोध का कारण बना।

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य संगठनों ने इसका विरोध किया। "साइमन वापस जाओ" आंदोलन पूरे भारत में फैल गया। कमीशन के भारत दौरे के दौरान लाला लाजपत राय के नेतृत्व में विरोध हुआ, जिस पर पुलिस लाठीचार्ज में उनकी मृत्यु हो गई।

 

भारत में विरोध के बावजूद साइमन कमीश्‍न ने अपनी रिपोर्ट दी जिसके प्रमुख सुझाव निम्‍न थे

  • संघीय संरचनाभारत में संघीय शासन प्रणाली का प्रस्ताव।
  • प्रांतीय स्वायत्तताद्वैध शासन की समाप्ति।
  • मताधिकार विस्तारअधिक लोगों को मतदान का अधिकार।
  • सांप्रदायिक निर्वाचनअल्पसंख्यकों के लिए पृथक निर्वाचन का समर्थन।
  • संविधान समितिब्रिटिश भारत और रियासतों के प्रतिनिधियों की समिति का सुझाव।
  • बर्मा का अलगावभारत से बर्मा को अलग करने की सिफारिश।

 

इस प्रकार साइमन कमीशन द्वारा जहां स्वशासन की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया वहीं सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली के समर्थन से राष्ट्रीय एकता में बाधा आयी। इस प्रकार साइमन कमीशन भारतीय राजनीति में ब्रिटिश अन्याय का प्रतीक बन गया जिसके विरोध ने राष्ट्रीय आंदोलन को नई गति दी ।

 

 

 

प्रश्न : गांधीजी का पर्यावरणीय दृष्टिकोण उपभोक्तावादी सभ्यता की आलोचना करता है। वर्तमान युग में, जब प्रौद्योगिकी और औद्योगिकीकरण अपरिहार्य हो गए हैं, क्या गांधीजी की पर्यावरण संबंधी अवधारणाएं व्यवहारिक रूप से लागू की जा सकती हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

 

उत्तर: गांधीजी का पर्यावरणीय दृष्टिकोण स्वदेशी, मितव्ययिता और ग्राम स्वराज की अवधारणाओं पर आधारित था। वे मानते थे कि उपभोक्तावाद और अति-औद्योगिकीकरण पर्यावरणीय असंतुलन का कारण बनते हैं। उनका प्रसिद्ध कथन, पृथ्वी के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हर किसी के लालच को नहीं,” इस विचार को स्पष्ट करता है।

 

आज, जब औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और तकनीकी विकास विश्व की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार बन चुके हैं, गांधीजी के विचारों को पूर्णतः लागू करना कठिन प्रतीत होता है। आधुनिक उद्योग और डिजिटल प्रौद्योगिकी ने उत्पादन और रोजगार की नई संभावनाएँ उत्पन्न की हैं, जिनसे समाज पूरी तरह अलग नहीं हो सकता। किंतु, गांधीजी की मितव्ययिता और टिकाऊ विकास की अवधारणा आज के पर्यावरणीय संकट के समाधान में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

 

वर्तमान में, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन जैसी समस्याएँ सामने हैं। इनका समाधान गांधीवादी आदर्शों के अनुसार सतत विकास (Sustainable Development) की नीति को अपनाने में निहित है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा, जैविक खेती, अपशिष्ट प्रबंधन, और हरित तकनीकों का उपयोग औद्योगिकीकरण के साथ संतुलन स्थापित कर सकता है। गांधीजी का ‘ग्राम स्वराज’ का विचार स्थानीय उत्पादन, ग्रामीण उद्यमिता और स्वावलंबन को बढ़ावा देने में सहायक हो सकता है, जिससे पर्यावरणीय क्षति को न्यूनतम किया जा सके।

 

अतः गांधीजी के विचारों को अक्षरशः लागू करना कठिन हो सकता है, किंतु उनके मूल सिद्धांत—संतुलित उपभोग, प्रकृति के साथ सामंजस्य और स्थानीय संसाधनों का उचित उपयोग—आधुनिक युग में पर्यावरणीय स्थिरता प्राप्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। यदि इन्हें समकालीन आवश्यकताओं के अनुसार ढालकर लागू किया जाए, तो वे एक व्यवहारिक समाधान प्रदान कर सकते हैं।









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