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Feb 25, 2025

व्यक्ति के लिए जो सर्वोत्तम है, वह आवश्यक नहीं कि समाज के लिए भी हो

 

व्यक्ति के लिए जो सर्वोत्तम है, वह आवश्यक नहीं कि समाज के लिए भी हो




मानव समाज व्यक्तियों का एक समुच्चय है, जहाँ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और हितों के अनुरूप कार्य करता है। परंतु, जो किसी एक व्यक्ति के लिए सर्वोत्तम हो, वह पूरे समाज के लिए हितकारी होगा, यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति और समाज के हितों में सामंजस्य आवश्यक है, लेकिन यह हमेशा स्वाभाविक रूप से नहीं होता। कभी-कभी व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए समाज की सामान्य भलाई को अनदेखा कर देता है, जिससे सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है। आधुनिक समय में यह प्रवृत्ति विभिन्न क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, चाहे वह आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय या सामाजिक क्षेत्र हो।

जो व्यक्ति की आवश्यकताएं होती हैं, उसी के अनुरूप संपूर्ण समाज की आवश्यकताएं भी होती हैं। इसलिए व्यक्ति कैसा है और उसे कैसा होना चाहिए, इसके बीच का अंतर समाज का भविष्य निर्धारित करता है। किसी भी समाज में आदर्श पुरुष के निर्धारण के लिए इसी मानदंड को अपनाया जाता है क्योंकि एक आदर्श पुरुष वह होता है जो अन्य लोगों को स्वयं से ज्यादा महत्व देता है और स्वयं से पहले दूसरों के बारे में विचार करता है। प्रेम, त्याग, न्याय, सहिष्णुता, आत्मसंतोष, परहित आदि एक आदर्श पुरुष के गुण होते हैं।

 

व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज की आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाए रखना हमेशा एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। उदाहरण के लिए, औद्योगिक क्रांति के दौरान व्यक्तिगत उद्यमिता ने कई व्यक्तियों को समृद्ध बनाया, लेकिन इससे व्यापक स्तर पर शोषण, पर्यावरणीय क्षति और सामाजिक विषमता भी बढ़ी। इसी प्रकार, आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में कई बड़ी कंपनियाँ अधिकतम लाभ अर्जित करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करती हैं, जिससे समाज को दीर्घकालिक हानि होती है।

 

हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होता है, इसलिए सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन है। यदि इनमें से कुछ व्यक्ति विशेषाधिकार प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो निश्चित रूप से अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन या उनमें ह्रास होगा, जिसके कारण सामाजिक ताने-बाने में व्यवधान उत्पन्न होगा और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाएगी। अरस्तू ने कहा था, "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; वह अकेले रहकर अपनी पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता।"

 

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पर्यावरणीय दृष्टिकोण से यह और भी अधिक स्पष्ट होता है। कोई भी व्यक्ति यदि अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के लिए अधिक कार्बन उत्सर्जन करे, अधिक जल और ऊर्जा का उपभोग करे, तो यह उसके लिए लाभदायक हो सकता है, लेकिन समाज के लिए यह दीर्घकालिक संकट उत्पन्न करेगा। जलवायु परिवर्तन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ कुछ औद्योगिक राष्ट्र और बड़े निगम अपने आर्थिक लाभ के लिए प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं, जबकि इसका प्रभाव संपूर्ण मानवता को झेलना पड़ता है। इस संदर्भ में महात्मा गांधी ने कहा था, "पृथ्वी सभी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान कर सकती है, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए नहीं।"

 

व्यक्ति के व्यक्तिगत हित और समाज के सामूहिक हित के बीच का टकराव सामाजिक और नैतिक मूल्यों को भी प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अधिकारों की आड़ में समाज में असहिष्णुता और हिंसा फैलाए, तो यह समाज के लिए हानिकारक होगा। आज के डिजिटल युग में फेक न्यूज़ और सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार भी इसी श्रेणी में आते हैं, जहाँ व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रसिद्धि या लाभ के लिए समाज को गलत दिशा में मोड़ सकता है।

 

कुछ व्यवसायी और उद्योगपति अपने लाभ के लिए अनैतिक तरीकों का सहारा लेते हैं, जैसे मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार और कर चोरी। यह व्यक्ति के लिए भले ही आर्थिक रूप से लाभदायक हो सकता है, लेकिन समाज के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे असमानता, गरीबी और शोषण जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

 

 


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यह सच है कि व्यक्ति का सर्वोत्तम हित समाज के हितों से जुड़ा होता है। लोकतंत्र में नागरिकों को स्वतंत्रता प्राप्त होती है, लेकिन यह स्वतंत्रता तभी तक बनी रह सकती है जब तक वह समाज की स्थिरता और कानून-व्यवस्था के अनुरूप हो। यदि कोई व्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होता है, तो उसका व्यक्तिगत अधिकार समाप्त कर दिया जाता है। इसलिए सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

 

व्यक्ति के लिए जो सर्वोत्तम है, वह समाज के लिए हमेशा लाभदायक नहीं होता। यदि समाज को समग्र रूप से विकसित करना है, तो व्यक्ति और समाज के हितों में संतुलन बनाना अनिवार्य है। इसके लिए सरकार, समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर प्रयास करना होगा। महात्मा गांधी ने कहा था, "स्वतंत्रता का सच्चा अर्थ यह नहीं कि मैं जो चाहूँ करूँ, बल्कि यह है कि मैं वह करूँ जो समाज के लिए भी हितकारी हो।" अतः समाज की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ तक सीमित न रहे, बल्कि अपने कार्यों के व्यापक प्रभाव को समझे और समाज के हित में योगदान दे।

 

हांलाकि इसका एक पक्ष यह भी है कि कई बार व्यक्ति जो सर्वोत्तम सोचता है, वह समाज के लिए भी लाभदायक होता है। महात्‍मा बुद्ध, महात्‍मा गांधी, विवेकानंद, मदर टेरेसा, नेल्‍सन मंडेला, सुकरात आदि ऐसे अनेक नाम है जिनके लिए वही सर्वोत्‍तम था जो समाज के लिए सर्वोत्‍तम था।  इनकी सोच एवं कार्यों के केन्‍द्र में में सदा ही समाज, राष्‍ट्र एवं मानव जगत का कल्‍याण  रहा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, "जो समाज की सेवा करता है, वही वास्तव में महान है।"

 

निष्कर्षतः देखा जाए तो जिस प्रकार ईटों के अस्तित्व के बिना भवन का अस्तित्व नहीं हो सकता, उसी प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के बिना समाज का अस्तित्व नहीं हो सकता, इसलिए यदि समाज की इकाई व्यक्ति पर कोई दुष्प्रभाव पड़ता है तो निश्चित तौर पर समाज पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। इसलिए एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए बेहतर नागरिक अति आवश्यक है। यदि हमें पूरी मानव जाति का भला करना है तो इसके लिए समाज का भला करना होगा और समाज का भला तभी हो सकता है जब हम व्यक्तिगत लालच से ऊपर उठकर संपूर्ण समाज को साध्य मानते हुए स्वयं का साधन के रूप में उपयोग करेंगे।






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