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Aug 5, 2022

बिहार की राजनीति में जाति एवं उसकी भूमिका

 

बिहार की राजनीति में जाति एवं उसकी भूमिका

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में जाति, धर्म, मूलवंश, जन्मस्थान, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करने का प्रावधान है फिर भी भारतीय राजनीति में धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण की भूमिका महत्वपूर्ण है जो कई बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया, सामजिक एकता तथा विकास में बाधा उत्पन्न करती है।

जाति और वर्ग आधारित भारतीय समाज में राजनीति ने जहां जाति, वर्ग को प्रभावित किया वही दूसरी ओर स्वयं राजनीति भी प्रभावित हुई है। जातिवाद एवं वर्ण व्यवस्था ने भारत में राजनीतिक दलों, निर्वाचन प्रक्रिया आदि पर व्यापक प्रभाव डाला है तथा वर्तमान में सभी दलों में अनेक जातीय गुट पाए जाते हैं जिसका व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है । भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता प्राप्ति का आधार निर्वाचन है लेकिन इंदिरा गांधी के बाद सत्ता प्राप्ति में जाति, वर्ग का प्रभाव बढ़ने लगा जिसकी चरम परिणति जनता पार्टी सरकार के बाद स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

 

प्रथम चरण 1947-1967

कांग्रेस पार्टी का काल जिसमें मुख्य रूप से ऊंची जतियों का प्रभुत्व था तथा पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व कम था।

द्वितीय चरण 1967-1989

इस चरण में कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई और क्षेत्रीय दल का उदय हुआ। पिछड़ी जातियां राजनीतिक रूप से एकजुट हुई जिससे राजनीति में जाति का महत्व बढ़ा।

तृतीय चरण

1990 में मंडल आयोग से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ मिला और राजनीति  में जति का महत्व बढ़ने लगा तथा उनके विकास का मुद्दा आया।

 

बिहार की राजनीति में जातिवाद

बिहार की राजनीति में जातिवाद को जड़ें काफी गहरी है। ग्राम पंचायत से लेकर विधानसभा और यहाँ तक की लोकसभा चुनाव में भी जातीय समीकरण को ध्यान में रखा जाता है । बिहार में चुनावों में मतदान मुद्दों के बजाए जाति के आधार पर ज्यादा होता है। वर्ष 2010 के चुनाव को छोड़ दिया जाए तो 1990 के बाद हुए बिहार के विधानसभा चुनावों में हमें इसकी झलक देखने को मिल जाती है।

 

बिहार की राजनीति में जातिवाद की पृष्ठभूमि

  बिहार की सामाजिक संरचना और राज्य को परिस्थितियों को इसके लिए जिम्मेवार माना जा सकता है जहां के हिंदू समाज में अतीत से ही जाति के आधार पर असमानता और भेदभाव व्याप्त था। भारतीय समाज प्राचीन काल से ही जाति के आधार पर बंटा हुआ है और बिहार भी इससे अछूता नहीं रहा।

 

  स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुए धर्म एवं समाज सुधार आंदोलन तथा आजादी मिलने के बाद समाज में जातिवाद संबंधी धारणाओं में कुछ सुधार आया लेकिन वह उतना प्रभावी नहीं हुआ और समाज में असमानता और भेदभाव की स्थिति बनी रही। आजादी के बाद बिहार में बनी लोकतांत्रिक सरकारों ने भी इसे दूर करने हेतु कोई प्रयास नहीं किया और विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऊंची जातियों का पिछड़ी जातियों और दलितों पर निरंकुशता जारी रहा। 


  बिहार की राजनीति में आजादी के बाद प्रथम चुनाव से ही जातीय राजनीति की नींव पड़ गयी । बिहार में प्रथम सरकार के गठन से लेकर 70 के दशक  के मध्य तक राज्य की सत्ता सवर्णों के हाथों में रही। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के बाद कर्पूरी ठाकुर दलित और पिछड़े समाज की आवाज बनते हुए 1977 मे 1979 के मध्य लगभग दो वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे और इस समय अगड़ी जातियों को सत्ता से दूर करने में दलितों और पिछड़ों की बड़ी भागीदारी थी जिसका एक मुख्य कारण दलितों और पिछड़ों में आयी राजनीतिक जागरूकता थी ।

         

  जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के बाद आए राजनीतिक बदलाव की लहर में बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जनता दल के बड़े नेता के रूप में उभरे और उन्होंने तत्कालीन सामाजिक स्थिति और मनोदशा को समझते हुए उन्होंने इसे अपना राजनीतिक मुद्दा बनाया। संयोगवश 1990 में हुआ विधानसभा चुनाव मंडल कमंडल के माहौल में अगड़ी बनाम पिछडी जाति के आधार पर लड़ा गया जिसमें जनता दल के पक्ष में पिछड़ों की गोलबंदी हुई और चुनाव के परिणाम जनता दल के पक्ष में रहे जिसमें लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने।

 

  1990 के चुनाव तथा मंडल आयोग के बाद से बिहार में व्यापक सामाजिक बदलाव आया। अब बिहार की राजनीति में पिछड़ों एवं दलितों को राजनीतिक संरक्षण और उनकी आवाज को मजबूती मिली जिससे उनमें आत्मविश्वास का संचार हुआ। लालू प्रसाद यादव के प्रयास से बिहार में पिछड़ों एवं दलितों की राजनीतिक सक्रियता बढ़ीं । इसके बाद से बिहार के राजनीति में जातिवाद चरम पर पहुँच गया और चुनावों में सत्ता प्राप्त करने हेतु व्यापक स्तर पर जातीय गोलबंदी होने लगी।

  

  लालू प्रयास यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में पिछड़ी जातियों का महत्व बढ़ा और अगड़ी जातियाँ पिछड़ने लगी गई जो पहले बिहार की राजनीति की दशा और दिशा की निर्धारित करती थी। इस प्रकार लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी ने जातिगत समीकरण MY समीकरण के कारण बिहार में अगले 15 वर्षों तक शासन किया। इसी बीच जनता दल में बिखराव भी हुआ और कालांतर में नीतिश कुमार एवं रामविलास पासवान द्वारा अलग होकर अपनी अपनी पार्टी का गठन किया गया और समय समय पर विभिन्न गठबंधनों के हिस्सा भी बने।

 

  इस प्रकार बिहार की राजनीति में पिछड़ी एवं दलित वोटों का बँटवारा हुआ और राज्य का राजनीतिक समीकरण बदला वर्ष 2005 में नीतीश कुमार द्वारा भाजपा के साथ गठबंधन कर पिछड़ा और अगड़ा का साथ लेकर विकास एवं सुशासन के मुद्दे पर चुनाव लड़कर सरकार बनाई। इस तरह 1990 से बिहार की राजनीति में आरंभ हुआ जातिवाद अभी भी राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को बनाए हुए है।

 

  उल्लेखनीय है कि 2005 के विधानसभा में जहां पिछड़ा और अगड़ा का साथ लेकर  नीतिश कुमार द्वारा जीत हासिल की गयी वहीं दूसरी ओर 2010 के विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण के बजाए सुशासन और विकास मुख्य चुनावी मुद्दा था। बिहार की जनता ने विकास और सुशासन के आधार पर अपना वोट दिया और जाति, वर्ग की राजनीति को नकार दिया।

 

  2010 का चुनाव बिहार की राजनीति में एक ऐतिहासिक और युगांतकारी बदलाव था ।  ऐसा प्रतीत होने लगा था कि बिहार की राजनीति में जातिवाद गौण हो गया लेकिन 2015 के चुनाव में जिस प्रकार जातिगत समीकरण को ध्यान में रखते हुए नीतीश और लालू एक हुए उसने इस धारणा को बदल दिया क्योंकि इस चुनाव को जातीय समीकरण के साथ-साथ विकास एवं सुशासन के आधार पर चुनाव लड़ा गया और जीत हासिल की।

 

उपरोक्त से स्पष्ट है कि बिहार में मंडल कमीशन और लालू प्रसाद यादव के उदय के बाद बिहार की राजनीति में दलितों एवं पिछड़ों का प्रतिनिधित्व बढ़ा और इनका सशक्तीकरण हुआ। इसी क्रम में नीतीश कुमार के सोशल इंजीनियरिंग द्वारा अत्यंत पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा और अत्यंत पिछड़ी जातियों के हित में कार्य करते हुए दलितों को विभाजित कर महादलित का गठन किया और उनके आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण के लिए योजनाएँ चलाई । इस प्रकार जाति बिहार की राजनीति का एक महत्वपूर्ण भाग बन गयी।

 

बिहार में जतिगत राजनीति द्वारा व्यक्तिवादी राजनीति को बढ़ावा

बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना के बाद की घटनाओं जैसे संपूर्ण क्रांति, मंडल कमीशन आंदोलन आदि की पृष्ठभूमि में बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों के नेता के रूप में के तीन नाम उभर कर आए जिनमें लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान शामिल है।

बिहार की पिछड़ी और दलित जातियाँ ने इन नेताओं को अपने उद्धारक के रूप में देखा और यही कारण है कि 1990 के बाद से बिहार की राजनीति को देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि ये तीन नेता ही बिहार की राजनीति के केन्द्र में बने हुए हैं।  बिहार की राजनीति के केन्द्र में इन नेताओं के होने का एक बड़ा कारण इनको अपनी अपनी जतियों का समर्थन मिलना रहा है।

 

बिहार की राजनीति में जातिवाद के साथ साथ बढ़ता व्यक्तिवाद 

1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से बिहार की राजनीति व्यक्तिवादी हो गयी। लालू प्रसाद यादव पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के नेता के रूप में स्थापित हुए जिन्हें नीतिश कुमार और रामविलास पासवान का समर्थन प्राप्त था । हांलाकि कालांतर में दोनों नेता लालू प्रसाद यादव से अलग होकर अपनी अपनी राजनीति करने लगे । समय बीतने के साथ साथ बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का समर्थन कम होने लगा तथा लालूं प्रसाद अपने मुस्लिम एवं यादव समीकरण तक सिमटते गए और विकल्प के रूप में श्री नीतीश और पासवान का उभार होने लगा।

नीतीश कुमार उच्च जातियों, पिछड़े, और महादलित जातियों के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने । हांलाकि रामविलास पासवान बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बने लेकिन उनको दलित जाति का समर्थन मिलता रहा है।

 

वर्तमान में इनके उत्तराधिकारियों की बात करें तो लालू प्रसाद के पुत्र एवं उतराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव और स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र और उत्तराधिकारी चिराग पासवान की लोकप्रियता जातियों के समर्थन के कारण हो बनी है। इसके अलावा जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश सहनी जैसे बिहार के नेताओं को देखा जाए तो बिहार की राजनीति में इनका महत्व भी अपनी अपनी जातियों के समर्थन के कारण ही है।


उपरोक्त से स्पष्ट है कि बिहार की राजनीति में इन तीन बड़े नेताओं तथा वर्तमान के कुछ अन्य नेताओं के  उभरने का मुख्य कारण इनको अपनी अपनी जाति का वोट मिलना रहा है। लोकसभा चुनावों में यदि कोई गठबंधन बनता है तो इसमें इन तीन नेताओं का ही नेतृत्व रहता है क्योंकि इन्हें अपनी जातियों का समर्थन प्राप्त है।


उल्लेखनीय है कि बिहार में किसी क्षेत्रीय दल को जातिगत समर्थन प्राप्त नहीं है बल्कि व्यक्ति को समर्थन प्राप्त है। अतः बिहार के संदर्भ में यह कथन उचित प्रतीत होता है कि बिहार की जातीय राजनीति ने व्यक्तिवादी राजनीति को बढ़ावा दिया है।

 

इस पोस्‍ट में आप बिहार की राजनीति में जातिवाद एवं उसकी भूमिका विषय पर लेख पढ़ रहे है जो बिहार की राजनीति को समझने तथा परीक्षा की दृृष्टि से अत्‍यंत उपयोगी है। 

बिहार की राजनीति में जाति की भूमिका

बिहार की चुनावी राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती है। जातिगत राजनीति की सफलता सोशल इंजीनियरिंग पर निर्भर करती है जिसके तहत विभिन्न प्रभावशाली जातिगत, धार्मिक समूहों आदि को जोड़कर प्रभावशाली सामाजिक गठबंधन बनाना शामिल है। बिहार की राजनीति में 80 के दशक में ऊंची एवं निम्न जातियों के मध्य संघर्ष को देखा जा सकता है जब पिछड़ी जातियों द्वारा अगड़ी जातियों को चुनौती दी गयी तथा राजनीति में अपनी विशेष स्थिति को प्राप्त किया।


वर्षों तक बिहार की राजनीति में उम्मीदवारों के चयन, जातीय मनोवृत्ति को उसकाना, जाति आधारित हिंसा देखी गयी। बिहार में कुछ तो कुछ पार्टियों का आधार ही जाति धर्म रहा जैसे राजद का आधार मुस्लिम तथा यादव, जदयू का आधार कुर्मी आदि। कई प्रमुख नेता तो स्वयं को किसी जाति विशेष या वर्ग विशेष का नेता बताकर लाभ भी उठाने का प्रयास करते हैं। इसके अलावा चुनावी गठजोड़, टिकट आवंटन इत्यादि में भी जाति को प्राथमिकता दी जाती है।


हांलाकि उदारीकरण के बाद मध्यम वर्ग, युवा वर्ग, महिलाओं में चेतना आई तथा जाति के स्थान पर सुशासन एवं विकास को भी प्राथमिकता मिलने लगी फिर भी अभी भी राजनीति में जाति एवं वर्ग के आधार पर जोड़-तोड़, चुनावी रणनीति का निर्धारण होता है और इसके प्रभाव हमें राजनीति में देखने को मिल ही जाते हैं।


बिहार की राजनीति में वर्गों का भी व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। शराबबंदी, बिहार सरकार की सेवाओं में महिला आरक्षण, हाल ही में बिहार के इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में  न्यूनतम 33% आरक्षण महिला आरक्षण को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

सकारात्मक पक्ष

  • निर्वाचन में अहम भूमिका से अनेक पिछड़ी जातियां प्रभावोत्पादक जातियों के रूप में उभरी।
  • निम्न जातियों के मुद्दोंहितों को भी प्राथमिकता दी जाने लगी।
  • चुनाव में जातियों की भूमिका बढ़ी तथा समावेश राजनीति की प्रथा आरंभ हुई।
  • निम्न वर्गीय जातियों का राजनीतिक व सामाजिकप्रशासनिक सशक्तिकरण हुआ।
  • राजनीति में जातियों का महत्व बढ़ा जिससे सामाजिक जाति प्रथा कमजोर हुई।
  • जतिगत आधार पर राजनीतिक दल गठित होने लगे। 
  • राजनीतिक दलों द्वारा अपने कार्यों में जाति एवं वर्ग को महत्व दिया जाने लगा।
  • विभिन्न जातियों एवं वर्गों के प्रतिनिधित्व बढ़ने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया समावेशी हुई।
  • जातियां एवं वर्ग दबाव समूह के रूप में कार्य करने लगी तथा अनेक निर्णयों को अपने पक्ष में कराया।
  • निर्वाचन में  वर्ग विशेष की महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण शहरी क्षेत्र में मध्यम वर्ग का उदय।

 

नकारात्मक प्रभाव

डा. बाबा साहेब के अनुसार जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता है तब तक समता, न्‍याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम की जा सकती है। चुनाव और शासन व्‍यवस्‍था में जातिगत आधार पर निर्णय सामाजिक भाईचारे को नुकसान पहुंचाता और बिहार में समय समय पर होनेवाली नक्‍सली गतिविधियां तथा 90 के दशक में हुए नरसंहार तथा जातीय संघर्ष इसका प्रत्‍यक्ष उदाहरण है ।

  • वर्ग एवं जाति आधारित राजनीति से लोकतंत्र का स्वरूप विकृत होता है।
  • जाति आधारित चुनाव एवं शासन प्रणाली शासन की निष्पक्षता को प्रभावित करती है
  • .समाज में जातीय टकरावकटुता एवं संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  • राजनीति एवं प्रशासन में अपराधभ्रष्टाचारजातिवाद आदि को बढ़ावा  मिलता है 
  • चुनावों में विकास और सुशासन के स्थान पर जतिगत मुद्दे हावी होने लगते हैं 
  • जाति का प्रयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक के रूप में किया जाने लगा।
  • शहरी क्षेत्रों में मध्यम वर्गीय उत्थान से निम्न वर्गीय गरीबोंशोषितों के बुनियादी मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता में कमी।
  • जातिवाद एवं वर्गवाद आधारित राजनीति भारतीय राष्ट्रीय एकता में बाधक है।
  • जाति आधार पर बनने वाली सरकार अपने काम के बजाए जातीय जोड़तोड पर ध्यान देते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश  जैसे राज्य जहां की राजनीति में जातीयता एक प्रमुख तत्व है वहां अनेक सामाजिकराजनीतिक एवं आर्थिक समस्याएं व्याप्त है।
  • टिकट बंटवाराप्रत्याशी चयनमंत्री पद आवंटनप्रशासन में योग्यता के बजाए जतिगत मुद्दे हावी होने लगे।

 

2020 के विधान सभा चुनाव एवं जाति की भूमिका

हाल के 2020 के विधान सभा चुनाव में भी इसका प्रभाव दिखा । इस चुनाव में जीत की रणनीतियों को बनानेगठबंधन करनेटिकटों का बंटवाराउम्मीदवारों के चयनचुनाव प्रचार हेतु नेताओं और क्षेत्र के चयन आदि में जातियों की भूमिका काफी प्रभावी रही।

2020 के विधानसभा चुनाव में लगभग सभी गठबंधन एवं चुनावी रणनीति जातियों समीकरण ध्यान में रखकर बनी 2020 के चुनाव में बिहार के सबसे बड़े गठबंधन एनडीए में जदयू और बीजेपी तो शामिल थी ही लेकिन जीत के लिए जातीय समीकरण को मजबूत करने हेतु पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा औरमुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी को भी शामिल किया गया।

इसी क्रम में महागठबंधन को देखा जाए तो उसमें राजदकांग्रेस और सभी वामदल शामिल थे लेकिन एनडीए कीअपेक्षा तुलनात्मक रूप से महागठबंधन जातिगत आधार पर गठबंधन करने में पिछड़ गयाजिसका खमियाजा उसे चुनाव में उठाना पड़ा।

परिणाम आने के पूर्व तक यह लगा था कि महागठबंधन अपने रोजगार एवं पलायन के मुद्दे के साथ जीत हासिल करेगा और यह लगा कि यह चुनाव मुद्दा आधारित हो गया है जिसमें लोग जाति से ऊपर उठकर मतदान करेंगे लेकिन चुनाव परिणाम में रोजगार का मुद्दा पढ़े लिखे युवाओं तक ही सीमित रहा और अधिकांश लोगों ने जाति और धर्म के आधार पर ही अपना मतदान किया 

इस प्रकार हालिया बिहार विधान सभा चुनाव में लगभग सभी गठबंधनों का सृजन राज्य के चुनावी माहौल को देखते हुए जातीय समीकरण के आधार पर हुआ था और बेरोजगारी और श्रमिक पलायन जैसे चुनावी मुद्दों के बावजूद अधिकांश वोट जात पात के आधार पर डाले गए।


स्पष्ट है कि 2020 का विधानसभा चुनाव में भी जाति एक प्रमुख मुद्दा था और इस कथन से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति बिहार की चुनावी राजनीति का एक मुख्य पक्ष है । बिहार जिस दिन जातिवर्ग और धर्म से ऊपर उठकर अपने मुद्दों के आधार पर मतदान करेंगे वह दिन बिहार की राजनीति में एक नया मोड़ होगा।

 

बिहार की राजनीति में जातिवाद एवं उसकी भूमिका संबंधी यह लेख बिहार लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा CDPO/Auditor मुख्‍य परीक्षा को ध्‍यान में रखकर तैयार किया गया है । इसी प्रकार के लेख आनेवाले समय में हमारे वेवसाइट पर आपको मिलेंगे ।

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