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Aug 9, 2022

बिहार एवं गठबंधन की राजनीति

 

बिहार एवं गठबंधन की राजनीति



वर्तमान भारतीय राजनीति सरकार बनाने में गठबंधन एक महत्वपूर्ण पक्ष है और इसकी अहमियत इसी से समझा जा सकता है कि भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा जो कि वर्तमान में चुनावी सफलता के चरमोत्कर्ष पर है वह भी कई राज्यों में गठबंधन की सरकार चला भी रही है और इसके विस्तार में भी लगी हुई है। बिहार में भी इसी प्रकार की गठबंधन की सरकार है ।

 

बिहार में गठबंधन सरकार

आजादी के बाद काँग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार के कारण बिहार में पहली बार 1967 में महामाया प्रसाद के नेतृत्व में गैर काँग्रेसी और गठबंधन की सरकार बनी जिसमें CPI, भारतीय जनसंघ, संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी तथा जन क्रांति दल सम्मिलित था। इस गठबंधन में जन क्रांति दल के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार के मुख्यमंत्री तथा संयुक्त सोशलिष्ट दल के नेता कर्पूरी ठाकुर उप-मुख्यमंत्री बनाए गए ।


इस गठबंधन सरकार के संचालन हेतु 33 सूत्री न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया था जिसमें एक सूत्र उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देना भी था लेकिन जनसंघ इस पर सहमत नहीं था और अंततः 1968 में महामाया सरकार गिर गई।


इस प्रकार थोड़े समय में ही यह गठबंधन टूट गया और सरकार गिर गयी जिसका कारण गठबंधन दलों की आपसी लड़ाई, विधायकों का दल-बदल तथा सरकार गिराने में काँग्रेस का योगदान माना जाता है।


इस प्रकार बिहार की राजनीति में 1967 के बाद गठबंधन सरकारों का दौर आरंभ होता है जो राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद और व्यापक रूप से सामने आता है। अब बिहार की राजनीति में गिरावट आने लगती है जिसकी झलक 1967 से 1972 के में देखने को मिलती है जब सिद्धांतवादी राजनीति में गिरावट के साथ साथ अनैतिक और अवसरवादी गठबंधनों का दौर आरंभ होता है जिसमें अनेक सरकारें बनती और गिरती है।




उपरोक्त से स्पष्ट है कि 1967 से लेकर 1972 तक गठबंधन सरकारों के तहत कई मुख्यमंत्रियों का आना-जाना लगा रहा । इस अवधि में छोटे क्षेत्रीय दल सरकार में बड़ी भूमिका और बड़े लाभों के लिए जोड़ तोड करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप सरकारें जल्दी गिरती बनती गयी।


1972 के बिहार चुनाव में भारत-पाक युद्ध में जीत और बांग्लादेश के निर्माण के कारण काँग्रेस के पक्ष में लहर थी। अतः काँग्रेस ने बिहार में अकेले बहुमत प्राप्त कर अपनी सरकार बनाई। इस तरह बिहार में गठबंधन की सरकारों के एक दौर का अंत हुआ ।


1975 के बाद आपातकाल तथा जयप्रकाश नारायण आंदोलन की पृष्ठभूमि में काँग्रेस लोकप्रिय होती गयी जिसका खामियाजा उसे 1977 के चुनाव में भुगतना पड़ा । अनेक छोटी बड़ी पार्टियों से मिलकर बनी जनता पार्टी को भारी जीत मिली और  कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बिहार में पुनः गठबंधन की सरकार बनी लेकिन समाजवादियों की आपसी खींचतान और आरक्षण संबंधी मामलों के कारण कर्पूरी ठाकुर सरकार भी 1979 में गिर गई और इसके पश्चात् रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने ।


राम सुंदर दास के काल में 1980 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा इसी वर्ष विधानसभा चुनाव हुए और जगन्नाथ मिश्र के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत के साथ 1980 से 1990 तक लालू प्रसाद यादव के आने के पूर्व तक बिहार में काँग्रेस की सरकार चलती रही।


 

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1990 के बाद गठबंधन सरकार का नया दौर

वर्ष 1990 में मंडल आयोग, भ्रष्टाचार, भागलपुर दंगे, राजनीति में पिछड़ों के उभार आदि के कारण बिहार विधानसभा चुनाव में काँग्रेस की हार हुई और जनता दल सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया जिसने अन्य दलों के समर्थन से लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में सरकार बनाई और बिहार बिहार की राजनीति में गठबंधन का नया दौर आरंभ हुआ ।

 

बिहार विधानसभा चुनाव 2000 एवं 2005

1995 के चुनाव में भी लालू यादव की पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला लेकिन वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव में राजद बहुमत से पीछे रह गई। अतः नीतीश कुमार के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार भी बनी लेकिन लेकिन बहुमत नहीं होने के कारण नीतीश सरकार को एक सप्ताह के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा।

नीतीश सरकार के इस्तीफे के बाद काँग्रेस एवं निर्दलीयों के समर्थन से राजद में राबड़ी देवी के नेतृत्व में सरकार बनाई लेकिन चारा घोटाले, गिरती शासन व्यवस्था, जंगल राज आदि के कारण राजद की सीटें लगातार कम हो रही थी अतः 2005 में जब बिहार विधानसभा चुनाव हुए तो नीतीश कुमार के नेतृत्व में NDA गठबंधन को बहुमत प्राप्त हो गया।

 

बिहार विधानसभा चुनाव 2010

कालांतर में NDA गठबंधन को 2010 के विधानसभा चुनाव में भी बहुमत मिला तथा नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन केन्द्र की राजनीति में नरेन्द्र मोदी के उत्थान के कारण वर्ष 2013 में नीतीश कुमार NDA गठबंधन से अलग हो गए और फिर बिहार में एक नए गठबंधन की सरकार बनी जिसमें काँग्रेस एवं निर्दलीयों की मुख्य भूमिका रही और नीतीश सरकार गिरने से बच गयी।

 

बिहार विधानसभा चुनाव 2015 

बिहार में बदलते समीकरण के कारण जदयू-राजद और कांग्रेस का चुनाव पूर्व गठबंधन बना जिसे वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे भारी सफलता मिली और 20 महीने तक यह सरकार चली लेकिन भ्रष्टाचार आदि मुद्दों के कारण 2017 में नीतीश सरकार द्वारा इस्तीफा दे दिया गया और और महागठबंधन से अलग हो गए। हांलकि तुरंत ही पुनः भाजपा से गठबंधन कर नीतीश कुमार द्वारा सरकार बना लिया गया। इस तरह जहां एक गठबंधन का अंत हुआ तो दूसरे गठबंधन का जन्म हुआ ।

 

बिहार विधानसभा चुनाव 2020

बिहार विधानसभा 2020 में भी राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन बने । इस चुनाव में चार गठबंधन सक्रिय थी लेकिन मुख्य मुकाबला 2 बड़े गठबंधनों जदयू, भाजपा, हम और बीआईपी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और राजद, कांग्रेस, भाकपा (माले), भाकपा और भाकपा (एम) के महागठबंधन के बीच था।


चुनाव की घोषणा से पूर्व NDA गठबंधन आसानी से सत्ता में आती दिख रही थी लेकिन चिराग पासवान के चुनावी स्टैंड,तेजस्वी यादव द्वारा बेरोजगारी, श्रमिक पलायन आदि को मुद्दा बनाने आदि से चुनाव महागठबंधन जीतता हुआ प्रतीत होने लगा लेकिन चुनाव परिणाम NDA गठबंधन के पक्ष में आया।


NDA गठबंधन के पक्ष में चुनाव परिणाम आने का सबसे बड़ा कारण महागठबंधन की तुलना में एनडीए का बड़ा सामाजिक आधार का गठबंधन होना रहा जो वोटों के लिए जातिगत समीकरण साधने में सफल रहा। इस प्रकार चुनाव जीतने के लिए राज्य में गठबंधन की महत्ता समझी जा सकती है।


यह गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है कि अगस्‍त 2022 में नीतीश कुमार आठवीं बार बिहार की बागडोर संभालने के लिए तैयार हैं  उल्‍लेखनीय है कि 2020 के चुनाव में बना जदयू एवं भाजपा गठबंधन टूट चुका है और पुन: जदयू तथा राजद का महागठबंधन बिहार में शासन की बागडोर संभालने हेतु तैयार है । गठबंधन टूटने के मामले पर नीतीश कुमार द्वारा कहा गया कि बीजेपी ने हमें खत्म करने की साजिश रची हमेशा अपमानित करने का प्रयास किया इस कारण से वह भाजपा से अलग हो गए


बिहार विविधता वाला राज्य है जहाँ अनेक धर्म, जाति, समुदाय के लोग है जिनकी आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ अलग अलग है  । राजनीतिक गठबंधन के द्वारा कई जातियों एवं वर्गों का राजनीतिक समायोजन होता है और सत्ता में भागीदारी मिलती है। यही कारण है कि चुनाव पूर्व या पश्चात् सभी के हितों को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम साक्षा कार्यक्रम बनाया जाता है जिसमें सभी वर्गों की आवयकताओं एवं विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं को ध्यान में रखा जाता है। बिहार सरकार के सात निश्चय, सुशासन के कार्यक्रम, महिला सशक्तिकरण की योजनाएं आदि  इसी का उदाहरण है। गठबंधन सरकार के अनेक सकारात्मक पक्ष होते हैं जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है।

 

गठबंधन सरकार के सकारात्मक पक्ष

लोकतंत्र को मजबूती

जाति, वर्गसमुदाय हित तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता मिलने लगी तथा भारतीय लोकतंत्र समावेशी हुई।

सहमति को महत्व

गठबंधन की राजनीति से आर्थिक, राजनीतिक  विभिन्न नीतियों के प्रति सहमति  का विकास हुआ 

सामाजिक समानता

क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव से सामाजिक मुद्दे जैसे आरक्षण, घरेलू हिंसा, बाल अधिकार, शिक्षा अल्पसंख्यक संबंधी मामले इत्यादि को प्राथमिकता मिली।

स्थानीय मुद्दे

पहले जहां राष्ट्रीय मुद्दे हावी होते थे वहीं गठबंधन सरकार में स्थानीय मुद्दों को भी महत्व दिया जाने लगा।

संघात्मक स्वरूप को मजबूती

गठबंधन की राजनीति से केंद्र राज्य के विवादों में कमी आयी और भारत के संघात्मक स्वरूप को मजबूती मिली।

 

गठबंधन की कमजोरियां

  1. कमजोर सरकार तथा सरकार के अस्तित्व को खतरा रहता है। उल्लेखनीय है कि 1996 में गठबंधन सरकार केवल 13 दिन तक सरकार चली।
  2. विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति की चुनौती।
  3. नीतियों में बदलाव हेतु सत्तारूढ़ पार्टी पर दबाव।
  4. भिन्न-भिन्न  दलों में सैद्धांतिक मतभेद से निर्णय क्षमता तथा  निर्णय पर प्रभाव।
  5. विदेश नीति में अनावश्यक हस्तक्षेप, उदाहरण के लिए तीस्ता नदी जल विवाद, तमिल समस्या।
  6. मंत्रिमंडल गठन में मंत्रियों का चयन प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है जो गठबंधन की सरकार में प्रभावित होता है।
 

राजनतिक गठबंधन एक आवश्यकता

पिछले कुछ दशकों को देखा जाए तो बिहार में लगातार गठबंधन की सरकारें बनी और सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल भी पूरा किया । बिहार की सामाजिक संरचना एवं जातिगत राजनीति के कारण किसी भी दल के लिए अकेले सता प्राप्त करना अत्यंत कठिन है और यही कारण है कि चुनाव पूर्व एवं चुनाव के बाद जोड़ तोड़ होता रहता है।

बिहार का समाज विविधतापूर्ण है तथा यहां का समाज जाति, धर्म, वर्ग एवं स्थानीय संकीर्णताओं में बँटा हुआ है तथा यहां पर विभिन्न क्षेत्रीय दलों का अपना स्थानीय वोट बैंक और सामाजिक आधार है इस कारण अब कोई भी दल अकेले चुनाव में जाना नहीं चाहती और जीत के लिए उनको गठबंधन की राजनीति का सहारा लेना पड़ता है।

राज्य के राजनीति और चुनाव में जातियों का अधिकतम दखल है जिसके कारण चुनाव में विकास, सुशासन, रोजगार आदि  जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं और इसी कारण से गठबंधन की राजनीति को प्रोत्साहन मिलता है।

बिहार में विभिन्न राजनीतिक दलों का अपना जातीय आधार है । उदाहरण के लिए राजद का यादव मुस्लिम यानी MY समीकरण है तो जदयू का कुर्मी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, महादलित समीकरण वहीं भाजपा का आधार सवर्ण, बनियाँ एवं कुछ अत्यंत पिछड़ी जातियाँ है।

सामाजिक एवं राजनीतिक आधार पर सभी की अपनी अपनी अपेक्षाएं, आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं है। इस कारण चुनावों में किसी भी एक राजनीतिक दल के लिए स्पष्ट बहुमत प्राप्त करना कठिन होता है और अंततः सरकार निर्माण एवं संचालन हेतु गठबंधन एक मजबूरी बन जाती है।

 

गठबंधन की राजनीति एवं राजनतिक स्थिरता

सामान्यतः गठबंधन की राजनीति को राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक माना जाता है क्योंकि 1990 के पहले बिहार में जितनी भी गठबंधन की सरकारें बनी थी वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी और जल्दी गिर गई । उल्लेखनीय है कि गठबंधन की राजनीति में अवसरवादिता, सौदेबाजी, सत्ता लोलुपता जैसे तत्व शामिल होते हैं जिसके कारण आपसी टकराव होता है और सरकार के समक्ष संकट आता है और गठबंधन की बाते न मानने पर सरकारें गिर जाती है।  वर्ष 1967 से 1980 में का काल बिहार में इसी प्रकार के गठबंधन का काल था । 

 

बिहार की राजनीति में शुरूआती कुछ वर्षों के काल में गठबंधन सरकारें राजनैतिक अस्थिरता का पर्याय हुआ करती थी लेकिन 1990 के बाद के गठबंधनों को देखा जाए तो स्थितियां उलट जाती है और यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि गठबंधन सरकारें राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय है। कुछ अपवादों को छोड़कर पिछले कुछ दशकों के काल को देखा जाए तो बिहार में गठबंधन सरकार राजनैतिक स्थिरता का उदाहरण प्रस्तुत करता है। 1990 में लालू प्रसाद यादव, 2000 में बनी राबड़ी सरकार तथा 2005 में बनी नीतीश सरकार ने गठबंधनों में रहते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया ।  हांलाकि वर्ष 2013 तथा वर्ष 2017 में अपने गठबंधन सरकार से मुख्यमंत्री नीतीश अलग हो गए और गठबंधन टूट गया फिर भी विभिन्न गठबंधनों के माध्यम से नीतीश कुमार सत्ता में बने रहे  और वर्तमान बिहार में भी गठबंधन की ही सरकार है।


उल्लेखनीय है कि अगस्‍त 2022 में नीतीश कुमार द्वारा एक गठबंधन को छोड़कर दूसरे गठबंधन को स्‍वीकार किया गया फिर भी बिहार में उनकी ही सरकार बन रही है । यह अलग बात है कि इसमें विपक्ष की भूमिका में बदलाव आया है जहां पूर्व गठबंधन में सत्‍ता में भागीदार अब विपक्ष बन गया है वहीं पूर्व का विपक्ष अब सत्‍ता का भागीदार हो गया है ।  

 

बिहार में 1990 के बाद से क्षेत्रीय दलों की सरकारें रही है तथा इन क्षेत्रीय दलों का सफलता का श्रेय इनके विशाल सामाजिक समुदाय को जाता है जो इन दलों का वोट बैंक है। उल्लेखनीय है कि जब कोई गठबंधन की सरकार बनती हैं तो यह सिर्फ राजनीतिक दलों का गठबंधन भर नहीं होता बल्कि यह कई वर्गों व जातियों, समुदाय के लोगों का भी सामाजिक गठबंधन होता है । यही कारण है कि गठबंधन की सरकारों को धीरे धीर आम जनता भी स्वीकार कर रही  है और यह राजनीतिक स्थिरता का प्रतीक बन रही  है।


अतः स्पष्ट है कि बिहार में सरकार की स्थापना में पिछले कुछ वर्षों में गठबंधन मुख्य आधार रहा है चाहे वह गठबंधन चुनाव पूर्व हो या चुनाव बाद । इसी क्रम में न केवल राज्य बल्कि  केन्द्र में भी कई गठबंधन सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया । अतः यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता  कि गठबंधन की राजनीति से बनी सरकार राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक होती है।

 

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