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चिरईं के जान जाए, लईका के खेलवना
मानवता
की सबसे बड़ी पहचान करुणा,
सहानुभूति और संवेदनशीलता है। किंतु जब कोई व्यक्ति दूसरों के दुख
में आनंद ढूँढने लगे, तो यह न केवल नैतिक रूप से अनुचित है,
बल्कि समाज में नैतिक पतन का संकेत भी है। भोजपुरी की प्रसिद्ध
कहावत "चिरईं के जान जाए, लईका
के खेलवना" इसी मनोवृत्ति को उजागर करती है।
इस कहावत
का अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे
दूसरों के कष्ट की अनुभूति नहीं होती, तब समाज में संवेदनहीनता
पनपने लगती है। वर्तमान समय में यह प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत आचरण तक सीमित नहीं
है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय क्षेत्रों में भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यह
प्रवृत्ति समाज के मूलभूत मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को क्षीण कर रही है,
जिससे न केवल व्यक्ति बल्कि संपूर्ण व्यवस्था प्रभावित हो रही है।
आज के
डिजिटल युग में इस प्रवृत्ति की व्यापकता और भी अधिक बढ़ गई है। सोशल मीडिया के
मंच पर किसी की त्रासदी को मज़ाक बनाकर प्रस्तुत करना, पीड़ित
की सहायता करने के बजाय उसे हास्य का विषय बनाना, ट्रोलिंग
और साइबर बुलिंग जैसे कृत्य इसी मानसिकता का उदाहरण हैं। सड़क पर होने वाली
दुर्घटनाओं में लोगों को मदद के लिए आगे आने की बजाय वीडियो बनाने और उसे वायरल
करने में अधिक रुचि होती है। यह संवेदनहीनता का परिचायक है, जहाँ
दूसरों के दर्द को मनोरंजन के रूप में देखा जाता है। महात्मा गांधी ने कहा था,
"किसी समाज की महानता इस बात से आँकी जाती है कि वह अपने
सबसे कमजोर वर्ग के साथ कैसा व्यवहार करता है।" यदि
समाज में दूसरों के कष्ट को उपहास के रूप में देखा जाने लगे, तो वह समाज नैतिक रूप से विफल हो जाता है।
राजनीति
में जहाँ एक दल दूसरे दल की असफलता का आनंद लेता है, बजाय इसके कि वह
समाज के कल्याण के लिए प्रयास करे। चुनावी अभियानों के दौरान कई बार नेताओं द्वारा
प्रतिद्वंद्वियों का अपमान किया जाता है और उनकी असफलताओं पर कटाक्ष किए जाते हैं।
लोकतंत्र का मूल सिद्धांत स्वस्थ आलोचना और पारदर्शिता है, किंतु
जब राजनीति का स्तर व्यक्तिगत उपहास और दुर्भावना से भर जाए, तो यह समाज के लिए घातक बन जाता है। जब कोई सरकार किसी योजना को लागू करने
में असफल हो जाती है, तो विपक्ष इसका समाधान निकालने के बजाय
इसे अपनी जीत के रूप में देखता है, जो राजनीति के नैतिक
मूल्यों को कमजोर करता है।
जब किसी
प्राकृतिक आपदा या महामारी के दौरान आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं, तो
कुछ व्यापारी और उद्योगपति इसका अनुचित लाभ उठाते हैं और जमाखोरी करके समाज के
कमजोर वर्ग को और अधिक संकट में डाल देते हैं। गरीबी और आर्थिक असमानता बढ़ने के
बावजूद कई बार संपन्न वर्ग इसे कोई गंभीर समस्या नहीं मानता और अपने ऐशो-आराम में
व्यस्त रहता है। समाज में आर्थिक असमानता का यह स्वरूप सामाजिक संतुलन को बाधित
करता है और वर्ग संघर्ष को जन्म देता है। सरकार को ऐसी नीतियाँ लागू करनी चाहिए
जिससे गरीबों को अवसर मिल सके और अनुचित मुनाफाखोरी को रोका जा सके।
औद्योगिक
विकास और भौतिक सुख-सुविधाओं की होड़ में पर्यावरण को नष्ट करने की प्रक्रिया जारी
है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जल संसाधनों का दोहन, वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के बावजूद, कई लोग इसे मज़ाक के रूप में लेते हैं और पर्यावरणीय संकट को गंभीरता से
नहीं समझते। कुछ बड़े उद्योगपति और सरकारें जलवायु परिवर्तन की चेतावनियों को
नकारती हैं और आर्थिक लाभ के लिए प्रकृति का दोहन जारी रखती हैं। यदि यही स्थिति
बनी रही, तो आने वाली पीढ़ियों को एक गंभीर संकट का सामना
करना पड़ेगा। पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार को सख्त कानून लागू करने चाहिए और
हरित ऊर्जा को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि विकास और पर्यावरण
में संतुलन बना रहे।
इन सभी
समस्याओं के समाधान के लिए सरकार विभिन्न स्तरों पर प्रयास कर रही है। हालाँकि, केवल
सरकारी प्रयासों से यह समस्या हल नहीं होगी, बल्कि समाज के
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच बदलनी होगी और दूसरों के कष्ट को समझने की
संवेदनशीलता विकसित करनी होगी।
इस
संवेदनहीनता को रोकने के लिए शिक्षा प्रणाली में नैतिकता का समावेश आवश्यक है।
स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए, जो
बच्चों में संवेदनशीलता, करुणा और सहानुभूति की भावना विकसित
करे। शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से हम सामाजिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं।
महात्मा गांधी के सिद्धांत "सर्वोदय" और "अहिंसा" आज
भी प्रासंगिक हैं। कानूनों को और अधिक प्रभावी बनाना होगा ताकि अमानवीय कृत्यों पर
सख्त कार्रवाई हो सके। सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को यह समझाने की
आवश्यकता है कि दूसरों के दुख को खेल नहीं, बल्कि उनके कष्ट
को कम करने का प्रयास करना ही सच्ची मानवता है।
एक सभ्य
समाज वही होता है,
जहाँ लोग एक-दूसरे के दर्द को महसूस करें और उनकी मदद के लिए आगे
आएँ। यदि हमें एक संवेदनशील, न्यायसंगत और प्रगतिशील राष्ट्र
बनाना है, तो हमें दूसरों के कष्टों का उपहास उड़ाने के बजाय,
उन्हें दूर करने का प्रयास करना होगा। सच्ची मानवता तभी जीवित रह
सकती है, जब हम दूसरों के कष्ट में आनंद लेने के बजाय उनके
दुःख को दूर करने का प्रयास करें। यदि हम इन सभी पहलुओं पर ध्यान देंगे, तो निश्चित ही हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं।
शब्द संख्या- 865
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