मौर्य
कला
कला के दृष्टिकोण से
प्राचीन काल से ही भारतीय इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। यदि सिंधु घाटी सभ्यता को
छोड़ दें तो मौर्य काल से ही कला का गौरवमयी इतिहास प्रारंभ होता है क्योंकि इससे
पूर्व की भारतीय कला के अधिकांश प्रमाण नहीं मिलते हैं। मौर्य काल से पूर्व की
कलाओं में संभवत: मिट्टी, लकड़ी,
घास-फूस इत्यादि का प्रयोग होता था जो कालांतर
में सुरक्षित नहीं रह पाए किंतु मौर्य काल में कला के क्षेत्र में पाषाण प्रयोग ने
कला को स्थायित्व प्रदान किया जो कालांतर में भारतीय संस्कृति का अमूल्य विरासत
बनी। मौर्य कला के विभिन्न रूपों को 2
भागों में बांटा जा
सकता है जो निम्न है-
- राजकीय कला- यह कला राजकीय संरक्षण एवं देखरेख में विकसित हुआ जिसके प्रमाण राजप्रसाद, स्तंभ, स्तूप, गुहा बिहार आदि में मिलते हैं।
- लोक कला- इस कला के तहत स्वतंत्र कलाकारों द्वारा लोक रूचि की वस्तुओं का निर्माण किया गया जैसे- यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाएं, मिट्टी की मूर्तियां आदि।
01. राजकीय कला
राजप्रसाद
मौर्यकालीन
भवनों का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण मौर्य शासक चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मित
पाटलिपुत्र के कुम्हरार स्थित राजप्रासाद है। एरियन ने
राजप्रसाद का वर्णन करते हुए कहा था “चन्द्रगुप्त के राजप्रसाद की शान-शौकत का
मुकाबला न तो सूसा कर सकते थे और न एकबतना।” फाह्यिन ने इसकी प्रशंसा में कहा था “यह
मानवों द्वारा नहीं बल्कि देव द्वारा निर्मित राजप्रसाद है।” मेगास्थनीज
ने कहा था कि “पाटलिपुत्र
स्थित मौर्य राजप्रसाद उतना ही भव्य है जितना ईरान की राजधानी में बना राजप्रसाद।”
इस
राजप्रसाद की विशालता का अनुमान यहां से प्राप्त अवशेषों से लगाया जा सकता है।
यहां का सभाभवन एक विशाल हॉल था जिसके निर्माण में चमकदार पॉलिशयुक्त बलुआ पत्थर
के 84 स्तंभों
का प्रयोग हुआ था। संभवत:
सभाभवन
की फर्श और छत लकड़ी की बनी हुई थी। मेगास्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र नगर की सुरक्षा के लिए
लकड़ी की चारदीवारी का निर्माण किया गया था। चारदीवारी में जगह-जगह पर
तीर चलाने के लिए छेद बनाए गए थे तथा इसके चारों ओर 60 फुट
गहरी तथा 600 फुट
चौड़ी खाई थी। पाटलिपुत्र नगर में आवागमन हेतु 64 द्वार थे।
चन्द्रगप्त
मौर्य के बाद
अशोक द्वारा भी राजकीय कला को विशेष संरक्षण दिया गया। अशोक द्वारा निर्मित
कलाकृतियों को चार भागों स्तंभ, स्तूप, वेदिका, गुहा विहार में बांट सकते हैं
स्तंभ
मौर्य
काल के सर्वोत्कृष्ट नमूने बलुआ पत्थर से बनाए गए अशोक के एकाश्म स्तंभ हैं जो
धम्म प्रचार हेतु विभिन्न भागों में स्थापित करवाए गए थे। इन स्तंभों की ऊंचाई 35-50 फुट है
तथा इन स्तंभों में एक खंभा है जो नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: पतले
होते गए हैं । इन स्तंभों के शीर्ष पर विभिन्न पशु-आकृतियां
जैसे-सिंह, बैल हाथी
आदि बनी हैं। ये सभी स्तंभ अपने-आप में स्वतंत्र है तथा खुले आकाश के नीचे खड़े किए गए हैं।
अशोक
द्वारा निर्मित प्रमुख स्तंभ-
- संकिसा- गज शीर्ष स्तंभ
- रामपुरवा- वृषभ शीर्ष स्तंभ
- लौरिया नंदनगढ- सिंह शीर्ष स्तंभ
- बसाढ- सिंह शीर्ष स्तंभ
- सांची- चतुर्सिंह शीर्ष स्तंभ
- सारनाथ- चतुर्सिंह शीर्ष स्तंभ
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अशोक का सारनाथ स्तंभ
मौर्य
कला का श्रेष्ठतम उदाहरण सारनाथ का अशोक स्तंभ है जिसमें एक-दूसरे से
पीठ मिलाएं 4 सिंह की
मूर्तियां हैं तथा प्रत्येक सिंह के नीचे एक चक्र है। इस स्तंभ में हाथी, घोड़ा, सांढ और
शेर की उभरती हुई आकृतियां है जिनके मध्य में अशोक चक्र बना हुआ है। अशोक द्वारा
निर्मित इसी स्तंभ का शीर्ष भाग भारत का राज्यचिह्न है।
स्तूप
स्तूप निर्माण परम्परा का व्यवस्थित विकास मौर्य काल में प्रारंभ हुआ। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को 8 भागों में बांट कर उन पर समाधियों का निर्माण किया गया जिन्हें स्तूप कहा गया। स्तूप अर्धवृत्ताकार संरचनाएं होती थी जिनका आंतरिक भाग ईंट एवं बाहरी भाग पत्थरों से बनाया जाता था। स्तूप के केन्द्र में हर्मिका होती थी जिसमें पवित्र व्यक्ति के अवशेष रखा जाता था।
बौद्ध परंपरा अनुसार अशोक ने 84 हजार स्तूपों का निर्माण कराया हालांकि इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते हैं तथा अनेक स्तूप नष्ट हो चुके हैं फिर भी सांची, भरहुत के अलावा सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप को अशोक निर्मित माना जाता है।
वेदिका
मौर्यकालीन
स्तूप एवं विहार वेदिकाओं से घिरे होते थे। वर्तमान में अधिकांश वेदिकाएं नष्ट
हो चुकी है फिर भी बोधगया तथा सारनाथ में अशोक कालीन वेदिकाओं के अवशेष प्राप्त
हुए हैं ।
गुहा-विहार
बौद्ध
आजीवकों के रहने हेतु सम्राट अशोक तथा उनके पौत्र दशरथ द्वारा पर्वतों को काटकर
अनेक गुहा-विहारों
का निर्माण किया गया । गया में नागार्जुन तथा बराबर की पहाड़ियों पर पत्थरों को
काट कर गुहा विहारों का निर्माण कराया गया ।
गुहा विहारों की प्रमुख विशेषता
यह है कि इनकी छत एवं दीवार पर चमकदार पॉलिस की गयी है तथा इनके द्वार लकड़ी के
बने हुए हैं । इन्हीं विहारों के अनुकरण पर
कालांतर में पश्चिमी भारत में अनेक चैत्य-गृहों का निर्माण किया गया । अशोककालीन
गुफाओं में सबसे प्राचीन 2 कमरों
वाली सुदामा गुफा है जिसको आजीवकों के रहने हेतु बनावाया गया था। इसके अलावा उसने
कर्णचौपड़ गुफा भी बनावाया ।
नागार्जुनी
पर्वत पर अशोक के पौत्र दशरथ द्वारा आजीवकों को दान देने हेतु 3 गुफाएं
बनायी गयी जिनमें लोमश गुफा श्रेष्ठतम है । इस गुफा के कमरे अंडाकार है तथा
मेहराब में जालीदार कार्य किया गया है। इसके प्रवेश द्वार पर हाथी द्वारा स्तूप-पूजा
दृश्य प्रशंसनीय है
मूर्तिकला
मौर्यकालीन
मूर्तिकाल का विकास राजकीय कला एवं लोक कला दोनों संदर्भों में हुआ। इस काल में
मूर्तियां पाषाण, धातु एवं
मिट्टी की बनी होती थी।राजकीय मूर्तिकला के तहत अशोक स्तंभ के शीर्ष पर बनी पशु
आकृतियां है जिनमें संकिसा, सांची, सारनाथ, रामपुरवा
आदि प्रमुख है। पाषाण मूर्तियों में धौली, उड़ीसा की धौली चट्टान को काटकर बनाई गई विशाल
हाथी की आकृति तथा कालसी, देहरादून
में चट्टान पर उत्कीर्ण हाथी की आकृति अन्य उत्कृष्ट उदाहरण है।
कौटिल्य
द्वारा धातु से बनी मूर्तियों का वर्णन किया गया है। राजकीय कला में स्वतंत्र रूप
से निर्मित मूर्तियां सीमित
रूप में मिलते हैं जबकि लोक कला में बहुतायत मात्रा में मिलती है।
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02. लोक कला
मौर्य
कालीन मूर्तिकला के श्रेष्ठ उदाहरण लोक कला के तहत प्राप्त होते हैं जिनका
तत्कालीन सामाजिक धार्मिक जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। लोक कला
के तहत पाषाण के अलावा मृण्मूर्तियां (मिट्टी की मूर्तियां) भी बनायी
जाती थी। लोक कला
के तहत निर्मित यक्ष यक्षिणी की प्रतिमाएं उल्लेखनीय है जो
विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुई हैं इनमें प्रमुख हैं-
- पटना में दीदारगंज से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षिणी की प्रतिमा तत्कालीन मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है जिसमें नारी सौन्दर्य की स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रदर्शित होती है।
- बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त यक्षी के प्रतिमा।
- परक्षम, मथुरा से प्राप्त यक्ष-प्रतिमाएं।
- मेहरौली से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा ।
- राजघाट, वाराणसी से प्राप्त त्रिमुख यक्ष-प्रतिमाएं।
- इसके अलावा लोहानीपुर पाटलिपुत्र से दो नग्न पुरुषों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसका निर्माण जैन शैली में कार्योंत्सर्ग मुद्रा में हुआ है।
मृण्मूर्तियां
मौर्यकालीन
अनेक मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई है। बुलंदीबाग से हंसते हुए बालक तथा नारी
की मूर्ति प्राप्त हुई है । कुम्हरार, बक्सर से भी मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई जो तत्कालीन जन-जीवन के
विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करता है।
मौर्यकालीन स्तंभ
तथा ईरानी स्तंभ
मौर्यकालीन
स्तंभों पर चमकीली पालिस, शीर्ष
भाग में पशु आकृति आदि के कारण अनेक पाश्चात्य विद्वान जैसे- सर जॉन
मार्शल, पर्सी
ब्राउन आदि अशोक के स्तंभों को ईरानी स्तंभों की अनुकृति मानते हैं। हांलाकि कई
अर्थों में देखा जाए तो मौर्यकालीन तथा ईरानी स्तंभ में कई असमानताएं है जिसे
निम्न बातों से समझ सकते हैं-
- अशोक का स्तंभ एकाश्मक है जबकि ईरानी स्तंभ टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है।
- अशोक स्तंभ के शीर्ष पर पशु मूर्तियां है जबकि ईरानी स्तंभ पर मानव की मूर्तिया।
- अशोक स्तंभ स्वतंत्र रूप से खुले आकाश में स्थापित हैं जबकि ईरानी स्तंभ विशाल भवनों में लगाए गए हैं।
- अशोक स्तंभ बिना चौकी के भूमि पर टिकाया गया जबकि ईरानी स्तंभ चौकी पर टिकाया गया है।
- अशोक स्तंभ सपाट है जबकि ईरानी स्तंभ नालीदार है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक स्तंभ तथा ईरानी स्तंभ में
कई ऐसी असमानताएं है जिसके आधार पर इसे ईरानी अनुकृति कहना सत्य नहीं है पर यह
संभावना हो सकती है कि अप्रत्यक्ष रूप से मौर्यकालीन स्तंभ कुछ सीमा तक ईरानी स्तंभों
से प्रभावित हो सकते हैं।
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