भारतीय संविधान और मूल अधिकार
प्रश्न- मूल अधिकार क्या है और वह किस प्रकार विधिक अधिकारों से अलग है ? मूल अधिकारों के संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका पर चर्चा करें ।
वे
सभी अधिकार जो किसी व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण
संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा
भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मूल अधिकार कहलाते हैं।
मूल अधिकार जहां कुछ मामलों में विधिक अधिकारों से समानता रखता है वहीं कुछ मामलों में यह विधिक अधिकार से अलग होता है जिसको निम्न प्रकार से समझा जा सकता है:-
मूल अधिकार |
|
विधिक अधिकार |
|
किसी
भी लोकतांत्रिक देश में एक बड़ी विशेष्ता नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा होती है
और भारत में इसी तथ्य को समझते हुए न्यायालय को संविधान द्वारा मूल अधिकारों का संरक्षण
बनाया गया है । समय-समय पर न्यायालय ने अपने निर्णयों के माध्यम से अपने इस कर्तव्य
को बखूबी निभाया है जिसको नीचे दिए गए वादों के माध्यम से समझ सकते हैं-
- 1975 में राजनारायण वाद में अनुच्छेद 19-ए के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत जानने के अधिकार को शामिल किया गया और इसी के संदर्भ में वर्ष 2005 में अंतत: सूचना का अधिकार जैसा कानून लागू हुआ ।
- 1992 इंदिरा साहनी वाद- अन्य पिछड़े वर्ग हेतु 27 प्रतिशत आरक्षण देकर समाज के पिछड़े वर्ग को सुरक्षा दी गयी
- वर्ष 1996 में ज्ञानकोर मामले में इच्छा मृत्यु के अधिकार के संदर्भ में अपना निर्णय देते स्पष्ट किया कि मृत्यु का अधिकार संविधान में उल्लेखित जीवन के अधिकार में शामिल नहीं है।
- 2017 में तीन तलाक पर निर्णय देते हुए तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक बताबता कर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा ।
- 2018 में एक याचिका पर निर्णय देते हुए समानता और निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए धारा 377 के प्रावधानों को रद्द किया गया ।
- सर्वोच्च न्यायालय ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया ओर प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता को व्यापक विस्तार देते हुए इसमें अनेक जीवन हेतु बुनियादी आवश्यकताओं से जोड़ा गया और इसे परिप्रेक्ष्य में स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को मान्यता मिली ।
- अनुराधा भसीन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट प्रयोग के अधिकार को अनुच्छेद 19 के तहत मान्यता दी और इस पर पाबंदी को अनुच्छेद 19 का उल्लंघन माना।
इस प्रकार उपरोक्त निर्णयों से स्पष्ट है कि न्यायालय ने अपने निर्णयों
के माध्यम से न केवल संविधान के संरक्षक की भूमिका को निभाया बल्कि नागरिकों के मौलिक
अधिकारों का संरक्षण करते हुए उसे तात्कालिक परिस्थ्तियों में उचित व्याख्या एवं
विस्तार देते हुए प्रासंगिक भी बनाया ।
प्रश्न -
अनुच्छेद 19(1) द्वारा
विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संबंध में संविधान में क्या प्रावधान किए
गए हैं ? विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी प्रावधान
किस प्रकार से नैतिक सीमाओं से बंधा हुआ है?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद
19(1) विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है जो प्रत्येक
नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत देने, विश्वास एवं अभियोग लगाने की मौखिक,
लिखित, छिपे हुए मामलों पर स्वतंत्रता देता
है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा
अपने निर्णयों के माध्यम से समय-समय पर इसको स्पष्ट करने के साथ साथ इसे विस्तारित
भी किया गया और इसके तहत निम्न अधिकारों को इसमें शामिल किया गया-
- अपने या किसी अन्य के विचारों को प्रसारित करने का अधिकार।
- प्रेस की स्वतंत्रता।
- व्यावसायिक विज्ञापन की स्वतंत्रता ।
- फोन टैपिंग के विरुद्ध अधिकार।
- प्रसारित करने का अधिकार
- किसी राजनीतिक दल या संगठन द्वारा आयोजित बंद के खिलाफ अधिकार।
- सरकारी गतिविधियों की जानकारी का अधिकार
- शांति का अधिकार।
- किसी अखबार पर पूर्व प्रतिबंध के विरुद्ध अधिकार।
- प्रदर्शन एवं विरोध का
अधिकार,
लेकिन हड़ताल का अधिकार नहीं।
इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र
में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार राज्य के विरुद्ध नागरिकों को प्रदान किया
गया है जिसके माध्यम से प्रबुद्ध नागरिक,
लेखक, पत्रकार आदि सरकार के कार्यों नीतियों की
समालोचना करते रहते हैं । इससे सरकार को अपनी
नीतियों की खामियों के बारें में जानकारी तथा उसमें सुधार का अवसर मिलता है।
विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
नैतिक सीमा
संविधान का अनुच्छेद
19(1) एक ओर जहां नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है वहीं
दूसरी ओर 19(2) राज्य को अधिकार देता है कि राष्ट्रीय एकता,
अखंडता, कानून व्यवस्था, शालीनता आदि को प्रभावित करने वाले भाषण/अभिव्यक्ति
पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। इस प्रकार अनेक आधारों पर विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
पर निर्बंधन लगाए जा सकते हैं जिनमें से कुछ नैतिक आधार जैसे ऐसे कथनों का प्रकाशन
पर प्रतिबंध जो लोक नैतिकता या शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा मान सम्मान को हानि पहुंचाने के मामले में आदि है
जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की नैतिक सीमाओं को निर्धारित करता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार स्पष्ट है कि
अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही हमें दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का सम्मान भी करना चाहिए । विरोधी विचारों के प्रति सहिष्णुता रखनी चाहिए तथा दूसरों
की गरिमा और निजता के अधिकार का सम्मान भी करना चाहिए।
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