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Jan 5, 2025

पटना कलम चित्रशैली- भारतीय इतिहास कला एवं संस्‍कृति

 

पटना कलम चित्रशैली

 


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18वीं सदी के मध्य में पारम्परिक भारतीय चित्रकला की एक शाखा पटना में आकर एक नये कलेवर के साथ प्रस्फुटित हुई और लगभग दो शतकों तक पल्लवित होती रही। इस नई कलेवर वाली वित्रशैली को 'पटना कलम' की संज्ञा दी गयी।

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वस्तुतः 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल बादशाह औरंगजेब लगातार युद्ध में प्रवृत्त रहा, फलस्वरूप उसके आर्थिक और मानव संसाधनों का अनवरत क्षरण हो रहा था। ऐसी स्थिति में उसका कला जैसी श्रमसाध्य, व्यवसाध्य और समयसाध्य वृत्ति से विमुख होना स्वाभाविक था। बित्रकला, जो उसके पूर्वजों का व्यसन थी, उपेक्षित होने लगी। चित्रकार, जिन्हें राजकीय संरक्षण की आदत थी, संरक्षण के अभाव को महसूस करने लगे। औरंगजेब के बाद अस्त होते मुगल शासन में, राजकोष के अभाव तथा कला में अरुचि ने, दरबारी चित्रकारों को संरक्षण की तलाश और जीविका की खोज में इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर किया। मथुरा, राजस्थान, कांगड़ा घाटी में यद्यपि चित्रकर्म हो रहा था, पर पूर्व से कार्यरत चित्रकारों की बहुलता के कारण इन मुगल दरबारी आश्रयहीन चित्रकारों का मुक्त हृदय से स्वागत वहाँ संभव नहीं था। अतः ये चित्रकार मुर्शिदाबाद की ओर उन्मुख हुए। मुर्शिदाबाद के नवाब का सितारा बुलन्दी पर था। नवाब गुणग्राही थे। अतः चित्रकारों को पुनः गुणग्राही राज्याश्रय मिला, जिसके वे आदी थे। दूसरी ओर नवाब ने भी दिल्ली के शाही चित्रकारों को आश्रय देने में गर्व महसूस किया।

 


 


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लगभग तीस वर्षों तक शान्तिपूर्ण प्रश्रय के बाद मराठों के आक्रमण तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के हस्तक्षेप के कारण नवाब की आर्थिक स्थिति डाँवाडोल होने लगी। इसी नीच सिराजुद्दौला की हत्या तथा उसके बाद की राजनैतिक उथल-पुथल ने चित्रकारों को पुनः विस्थापित कर दिया। अभी भी जो छोटी-छोटी रियासतें बची थीं, उनके राजकोष राज्याश्रय प्रदान करने के लिए बहुत छोटे थे। टेकारी, बेतिया, बनारस के राजघरानों ने कुछ चित्रकारों को आश्रय दिया, पर सबको आश्रय देना उनके वश में नहीं था। अतः चित्रकारों के लिए राज्याश्रय की आदत छोड़ना बाध्यता बन गयी। फलस्वरूप जीविका की तलाश में चित्रकारों का ध्यान व्यापारिक केन्द्रों की ओर आकर्षित, हुआ। वस्तुतः राजे-राजवाड़ों के बाद अगर कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्हें प्रश्रय या प्रोत्साहन मिलने की संभावना थी तो उन व्यापारिक केन्द्रों में ही, जिसका नियंत्रण महाजनों, रईसों अथवा व्यापारियों के हाथ में था। पटना के बाजार ने इन विस्थापित ओर निराश्रित कलाकारों को अपने आश्रय में ले लिया।

 

उस समय पटना देश के महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक केन्द्र के रूप में उभर रहा था। बिहार की खनिज सम्पदा ने पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी का और बाद में बिर्तानी हुकू‌मत का ध्यान आकृष्ट किया। हुकूमत की भारत से कच्चे माल के दोहन की नीति के कारण अनेक विदेशी व्यापारी पटना में आकर बस गये और अफीम तथा शोरे का व्यापार करने लगे। गंगा नदी के रूप में जलमार्ग उपलब्ध होने के कारण पटना का व्यावसायिक महत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। फलस्वरूप हुकूमत द्वारा अनेक आला अफसर यहाँ तैनात किये गये। कुल मिलाकर रईसों, धनाढ्यों, व्यावसायियों तथा अफसरानों का केन्द्र होने के कारण चित्रकारों को अपने चित्रों के लिए बाजार की तलाश पटना में आकर पूरी हुई और वे पटना के लोदी कटरा, दीवान मुहल्ला, नित्यानंद का कुआँ, मच्छरहट्टा आदि इलाकों में बस गये।


  


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जहाँ तक बाजार की माँग का प्रश्न है- पटना कलम के चित्रों के क्रेता दो प्रकार के थे, एक तो पटना का धनाढ्य रईस वर्ग और दूसरे थे विदेशी व्यापारी। रईसों की रूचि पोट्रेट्स यानी व्यक्ति चित्र और फूलों तथा पक्षियों के चित्रों में अधिक थी। दूसरे खरीददार यानी विदेशी प्रवासियों की रुचि भारतीय संस्कृति, तीज-त्योहार, पर्व-मेला, वेष-भूषा, परम्परा, रीति-रिवाज तथा कुटीर उद्योग-धन्धों में अधिक थी। वस्तुतः यूरोप में रह रहे अपने स्वजनों को यहाँ की संस्कृति से परिचित कराने के उद्देश्य से वे ऐसे चित्रों का निर्माण कराने लगे। इस प्रकार के चित्रों माँग के पीछे एक उद्देश्य और भी था। वह यह कि भारतीयों के पिछड़ेपन, उनकी व्यावसायिक बुरी स्थिति को दिखलाकर भारत पर ब्रितानिया शासन और प्रभुत्व के महत्व को उजागर किया जाय तथा यूरोप की सहानुभूति बटोर कर अपनी उपनिवेशवादी महत्त्वाकांक्षा तथा खनिज और कच्चे माल के दोहन की नीति पर सहमति की मुहर लगवा ली जाय। विदेशो क्रेताओं में एक वर्ग वह भी था जो अपनी पुस्तकों के दृष्टान्त चित्रों के रूप में इन चित्रों की मांग कर रहा था। इनमें प्रमुख थे बिहार में अफीम के एजेन्ट सर चार्ल्स डी ओली और पटना के कमिश्नर टेलर महोदय। कैप्टन ग्रिन्डले की 1826 में प्रकाशित पुस्तक 'सीनरी, कॉस्ट्यूम्स एण्ड आर्किटेक्चर' में इन चित्रों का प्रयोग दृष्टान्त के रूप में किया गया।

 






स्पष्ट है कि चित्रों के मुख्य क्रेता के रूप में विदेशी व्यापारी, अफसर तथा लेखकों का समूह उभर रहा था। अतः चित्रकार बाजार को माँग के अनुरूप चित्रों का निर्माण करने लगे। इस चित्रों में प्रमुख विषय था- जन-जीवन। अतः श्रमिक वर्ग में धोबी, कसाई, कुली, कहार, पौलवान, स्वीपर, नौकरानी, भिश्ती, चोबदार, दरबान, डाकिया आदि का चित्र बना। दस्तकारों में बढ़ई, लोहार, सुनार, जुलाहा, कुम्हार, रंगरेज, पतंग बनाने वाला, कंघी बनानेवाला, ग्लास ब्लोअर, जरदोज आदि को स्थान मिला। हर प्रक प्रकार के साजिन्दे तथा खेल-तमाशे वाले यथाः मदारी, संपेरा, नट, जगलर्स, जादूगर आदि चित्र माध्यम में उकेरे गये। तत्कालीन आवागमन के साधन जैसे- पालकी, डोली, हाथी, घोड़ा, एक्का, बैलगाड़ी, तांगा आदि चित्रों के कथ्य बने। जीवन के हर क्षण को चित्रों में संजोया गया चाहे वह पाठशाला हो या मदरसा, मेला हो या पूजा, दाह संस्कार हो या दफन, नृत्य-संगीत हो या वाद्यवृन्द, दीवाली की द्युतक्रीड़ा हो या होली। महिलाओं का सूत कातना, दाल पीसना, खाना बनाना, चूड़ी पहनना भी इन चित्रों का विषय बना। भारतीय बाजार में अपेक्षित विषय था- ताड़ी की दुकान, गांजे की दुकान, हुक्के की दुकान, चूड़ी की दुकान, मिठाई की दुकान, मछली विक्रेता, खिलौना विक्रेता, चूड़ी विक्रेता, पंसारी, तमौली सभी को चित्रों में स्थान मिला। यहाँ तक कि साधु और फकीरों को भी चिह्नित किया गया- गोरख पंथी साधु, कनफटे साधु, चिमटा लिए साधु, भैरव के उपासक, शरीर में घटियां बाध साध चित्रों के माध्यम से जीवन्त किये गये। इनमें से न जाने कितने विषय और तथ्य ऐसे हैं जो अब लुप्त हो चुके हैं, जिन्हें मात्र इन चित्रों के माध्यम से ही जाना जा सकता है।

 

वस्तुतः पटना कलम के चित्रों के कथ्य को देखने से आश्चर्य होता है कि मुगलकालीन शाही चित्रकारों की विरासत लिए इन चित्रकारों ने कितनी तत्परता से मध्यकालीन रूढ़ियों को तोड़ दिया। वहाँ तो दरबारी शानो-शौकत, शिकार, युद्ध, रागरागिनी, बारहमासा का चित्रण हो रहा था और कहाँ ये चित्रकार पटना आकर सामान्य जीवन का चित्रण करने लगे। मुगल चित्रों में उनकी कल्पनाओं को स्वतंत्र उड़ान भरने की छूट थी, किन्तु पटना कलम चित्रों के लिए व्यावसायिक दृष्टि से कल्पना को कोई स्थान नहीं मिला था। फिर भी जब कभी चित्रकारों को रईसों का प्रश्रय, उचित मूल्य तथा प्रोत्साहन और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अवसर मिला तथा अवचेतन में जबरन दवाई गयी कल्पनाएं अलंकरण के साथ पटना कलम के चित्रों में भी मुखर हो उठी। यथाः महादेव लाल द्वारा बनाई गयी रागिनी गंधारी चित्र पटना संग्रहालय में सुरक्षित है, जिसमें नायिका पर्णकुटी के सामने विरहोत्कंठिता के रूप में बैठी है, विरह के अवसाद को बढ़ाने के लिए आकाश में गहरे नीले रंगों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। सोया हुआ कुत्ता अवसादी मन की शिथिलता को दर्शाता है।

 

इस प्रकार रागिनी तोड़ी पर आधारित माधोलाल द्वारा निर्मित चित्र सम्प्रति पटना के खुदा बख्श खाँ ओरियेन्टल पब्लिक लाइब्रेरी में सुरक्षित है। इस चित्र में चित्रकार ने विरहिणी नायिका को वीणा लिए दिखाया है। श्याम मृग शावक, कमल ताल राग के भाव को उभारने में सहायक है। इसी प्रकार चित्रकार शिवलाल द्वारा निर्मित मुस्लिम निकाह का चित्र तथा यमुना प्रसाद द्वारा चिह्नित बेगमों को शराबखोरी का चित्र सुन्दर और भावगम्य है। ये दोनों ही चित्र पटना संग्रहालय में हैं। इन चित्रों से स्पष्ट होता है कि चित्रकारों के अन्तर्मन में अभिव्यक्ति की अभिलाषा जो अभी तक दबी ढँकी थी, उसे रास्ता मिलने पर भिन्न विषय वस्तु और सुन्दर रंग-संयोजन के साथ अद्भुत चित्रों का भी निर्माण हुआ। इनके अतिरिक्त फूलों और पक्षियों के चित्रों का एलबम भी तैयार किया गया। रईसों के पोट्रेट्स काफी वनें, जिसके लिए पटना कलम के चित्रकारों को पारिश्रमिक भी उदार हृदय से मिला।

 

पटना कलम के चित्रकर्मियों ने कागज, अभ्रख और हाथी दाँत को चित्रों का माध्यम बनाया। अभूख पर प्रायः जनजीवन के ही चित्र बने। पर हाथी दाँत पर अधिकांशतया पोट्रेट्स ही बनाये गये। इनमें भी अधिकतर स्त्रियों के ही पोट्रेट्स हैं, जो आश्रयदाताओं की अभिरुचि को संकेतिक करते हैं। उस समय पर्दा प्रथा थी, अतः संभ्रान्त और कुलीन स्त्रियों के चित्र होने की संभावना कम नजर आती है। संभवतः ये नृत्यांगनाओं और रूपजीवाओं के चित्र हैं, जिन्हें प्रायः रईस वर्ग अपने वैभव के प्रतीक रूप में रखते थे।

 

पटना कलम के चित्र बाजार और मूल्य आधारित थे। इसलिए चित्रों में विषयवस्तु के लिए 'आवश्यकता' पर ही अधिक बल दिया गया। चित्रों में काल्पनिक विषयवस्तु जैसे पृष्ठभूमि या प्राकृतिक दृश्यों को बढ़ाना महंगा पड़ रहा था। यहाँ तक कि फूलों और पक्षियों के चित्रण में भी बहुत अधिक आवश्यकता होने पर मात्र एक टहनी ही बनाई गयी। तात्पर्य यह कि वो बैकग्राउण्ड लैंडस्केप, जो मुगल चित्रों के प्राण थे, पटना कलम के चित्रों में लुप्त हो गये।

 

चित्रों की व्यावसायिकता का प्रभाव रंग संयोजन और उनके प्रयोग पर भी पड़ा। मुगल चित्रों में रंग तौखे और गाढ़े नहीं थे। पूरे चित्र को समेकित रूप से उभारने के लिए यह आवश्यक भी था कि रंगों का संयोजन प्रवाहमान रूप से किया जाय। संजीदा किस्म के रंगों के साथ सोने, चाँदी और मोती का प्रयोग भी मुगल चित्रों की विशेषता है। पर पटना कलम के चित्रों में गहरे रंग का उपयोग किया गया। गहरे रंग विषय को उभारने में और आकृष्ट करने में ज्यादा सहायक हुए। पढ़ना कलम के चित्रकारों ने अधिकांश रूप से पत्थर, घास, फूल तथा पेड़ों की छाल से रंग तैयार किया। कुसुम के फूल से पीला, हरसिंगार से लाल, लाजवर्त पत्थर से नीला और काजल की स्याही से काला रंग बनाया गया। सोने, चाँदी के रंगों का उपयोग नहीं हुआ। वस्तुतः चित्रों में प्रयुक्त रंग चित्रों की कीमत पर निर्भर कर रहा था। समुचित मूल्य के अभाव में खनिज तथा रसायनिक रंगों का उपयोग पटना कलम के बित्रकारों के लिए महँगा था।

 

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ब्रश के लिए पटना कलम के चित्रकार पूर्व की भांति भैंस, गिलहरी, सुअर के बालों का प्रायोग कर रहे थे। कागज के लिए हस्तनिर्मित कागज, नेपाल का बंसा कागज और कालान्तर में यूरोप से आयातित ड्राइंग पेपर का उपयोग किया गया। चित्र सीधे कागज पर बनाये गये और रंग दिये गये।

 

चित्रों के साथ ही पटना कलम के चित्रकारों का वंश इतिहास भी जानना आवश्यक है। इस शैली के प्रथम चित्रकार के रूप में सेवक राम का नाम लिया जाता है, ये बनारस के राजा के दरबारी चित्रकार थे, परन्तु आश्रयदाता और अपने पूर्वजों की मृत्यु के बाद पटना में आकर बस गये। इनका समय 1770 से 1830 तक कहा जाता है। सेवक राम पेन्सिल से चित्र का खाका नहीं बनाते थे बल्कि सीधे ब्रश और कजली स्याही से चित्र बनाने में इन्हें महारत हासिल थी। इनके समकालीन चित्रकार हुलासलाल भी बनारस से ही आये थे। इनके बाद झूमक लाल (1784) फकीरचंद लाल (1790) तथा टुन्नी लाल (1800) प्रमुख चित्रकार हुए।

 

19वीं शदी के प्रमुख चित्रकारों में शिवलाल और शिवदयाल लाल का नाम लिया जाता है। इन दोनों ही कलाकारों ने अपना स्वतंत्र मुसव्विरखाना (चित्रों का कारखाना) खोल रखा था। जिसमें चित्रकारों के साथ कई शार्गिद भी काम करते थे। कुशल चित्रकारों को मुसव्विर तथा शेष चित्रकारों को नक्काश कहा जाता था।

 

शिवलाल को शाही मुसव्विर की उपाधि प्राप्त थी। शिवलाल शवीह (पोर्टेट्स) बनाने में कुशल थे। वे व्यक्ति को बैठाकर खाका खींच लेते थे और घर जाकर चित्र पूरा कर लेते थे। शबीह चित्रों के लिए, जो प्रायः रईस व धानाढ्‌यों के होते थे, इन्हें अच्छी कीमत मिलती थी। शिवलाल ने अभ्रख और हाथी दाँत पर भी चित्र बनाये। उल्लेखनीय है कि मुगल काल से ही कला जगत् में पुरुषों का ही प्राधान्य रहा, पर पटना कलम के चित्रकार के रूप में पहली बार महिला चित्रकारों ने भी प्रवेश किया।

 

इस चित्रशैली के अस्त होने में एक ओर राजनैतिक उथल-पुथल का प्रमुख हाथ रहा। दूसरी ओर लिथोग्राफ्स और प्रिन्ट्स तैयार करने की मशीनों के आविष्कार ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। 1870 में कैमरे के आविष्कार ने बाजार की उस माँग को, जो विदेशी ग्राहकों द्वारा की जा रही थी, अपनी ओर आकर्षित कर लिया।

 

पटना कलम के चित्रों ने जाते-जाते भविष्य की भारतीय कला को एक नई दिशा दी और वह थी स्वतंत्र चित्रकर्म की। चित्रकला को राजकीय संरक्षण के दासत्व से मुक्ति मिली, फलस्वरूप स्वतंत्र चित्रकारिता ने स्वदेशी और राष्ट्रीयता की भावना को न सिर्फ पोषित किया बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। चित्रकार पौराणिक कथाओं, श्रृंगारिक चित्रों या वैभव और अंलकरण की विषयवस्तु को छोड़ कर वास्तविकता की ओर उन्मुख हुए। फलस्वरूप भारतीय मानस की उस अन्तर्धारा को अभिव्यक्ति मिलने लगी, जो स्वतंत्र भारत की माँग थी।

 

पटना कलम के चित्रकारों के प्रयत्न से तथा चित्रों के माध्यम से, भारतीय सीमा परिधि के बाहर सुदूर यूरोपीय देशों में, भारतीय समृद्ध संस्कृति का जो साम्राज्य स्थापित हुआ और भारतीय इतिहास तथा जन जीवन का सूत्र अक्षुण्ण रह सका। इसके लिए भारत सदा इन चित्रकर्मियों का कृतज्ञ रहेगा।



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