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Jan 6, 2025

जंगल सभ्यताओं से पहले आते हैं और रेगिस्तान उनके बाद आते हैं

 जंगल सभ्यताओं से पहले आते हैं और रेगिस्तान उनके बाद आते हैं

मानव सभ्यता का इतिहास प्रकृति के साथ उसके संबंध का इतिहास भी है। जंगल, प्रकृति की सबसे प्राचीन और समृद्ध विरासत, सभ्यताओं का पालना रहे हैं। वे जीवन के प्रारंभिक अध्याय हैं, जहां मानव ने प्रकृति से सहजीवन का पाठ सीखा। दूसरी ओर, रेगिस्तान उस विखंडन और असंतुलन का प्रतीक हैं, जो मानव की अतिवादी क्रियाओं का परिणाम है। जंगल और रेगिस्तान का यह प्रतीकात्मक और वास्तविक द्वंद्व मानव और पर्यावरण के बीच जटिल संबंधों को दर्शाता है।

 

प्रारंभिक मानव सभ्यताओं के विकास में समृद्ध वनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो भोजन, आश्रय, सुरक्षा और अन्य आवश्यक संसाधन प्रदान करते थे। वन न केवल भौतिक बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के भी स्रोत रहे हैं। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में देखा जाए तो हमारे धार्मिक ग्रंथ, जैसे वेद और उपनिषद, जंगलों में ही रचे गए। हमारे प्राचीन ग्रंथों में पेड़ों, नदियों, पहाड़ों, और पशु-पक्षियों को देवता के रूप में पूजा गया है। भगवान राम का वनवास, महात्मा बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति, और संत महावीर का तपस्या स्थल सभी जंगल ही थे। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि जंगल केवल भौतिक स्थान नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक विकास का मंच भी रहे हैं।

 

जंगल पर्यावरणीय संतुलन का आधार हैं। वे ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं, जलवायु को नियंत्रित करते हैं, और जैव विविधता को संरक्षित करते हैं। जंगल जलचक्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जंगल केवल पर्यावरण का हिस्सा नहीं, बल्कि सभ्यताओं के उत्थान और पतन के गवाह भी रहे हैं। इतिहास में ऐसी कई सभ्यताएं रही हैं, जिन्होंने जंगलों के साथ सामंजस्य बनाकर विकास किया। सिंधु घाटी सभ्यता, माया सभ्यता इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये सभ्यताएं प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की कला जानती थीं। दूसरी ओर, रोमन और मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताएं, जिन्होंने अपने पर्यावरणीय संसाधनों का अति-दोहन किया, अंततः पतन का शिकार हो गईं। भारतीय महाकाव्य महाभारत में एक महत्वपूर्ण दृष्टांत है, जिसमें बताया गया है कि कैसे खांडव वन को जलाने के बाद पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया। यह घटना वन विनाश और मानव लालसा के बीच के संबंध को उजागर करती है।

 

समय के साथ, मानव गतिविधियों ने वनों का अत्यधिक दोहन किया, जिससे वनों की कटाई, कृषि विस्तार और शहरीकरण में वृद्धि हुई। यह अत्यधिक दोहन पर्यावरणीय क्षरण, पारिस्थितिकी तंत्र के ह्रास, रेगिस्तानीकरण और जैव विविधता के नुकसान का कारण बना। यदि यह प्रवृत्ति जारी रहती है, तो अस्थिर प्रथाओं के कारण बंजर भूमि और पारिस्थितिक विनाश का जोखिम बढ़ सकता है। रेगिस्तान अक्सर पर्यावरणीय असंतुलन और मानव लालच के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद रिचर्ड स्टॉडर्ड के अनुसार "रेगिस्तान पृथ्वी का घाव हैं," जो यह दर्शाता है कि रेगिस्तानीकरण केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानवीय गतिविधियों का परिणाम है।

 

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान वाणिज्यिक उद्देश्यों, विशेष रूप से रेलवे, जहाज निर्माण और औद्योगिक गतिविधियों के लिए, जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया। आधुनिक भारत में, हरित क्रांति ने कृषि विस्तार को तेज किया, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। हालांकि इससे खाद्य उत्पादन बढ़ा, पर्यावरणीय नुकसान हुआ। औद्योगिक क्रांति ने संसाधनों के दोहन और पर्यावरणीय क्षरण को अभूतपूर्व स्तर तक पहुँचाया, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ा।

 

वैश्विक स्तर पर जंगलों की कटाई और रेगिस्तानीकरण जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण हैं। अमेज़न और कांगो जैसे रेनफॉरेस्ट कृषि, खनन और लकड़ी उद्योग के कारण प्रभावित हो रहे हैं, जबकि सहारा और गोबी रेगिस्तान तेजी से विस्तार कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 25% भूमि पहले ही मरुस्थलीकरण की चपेट में है। भारत में भी थार रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है तथा उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्सों में फैला बुंदेलखंड क्षेत्र, गंभीर मरुस्थलीकरण का सामना कर रहा है।

 

 


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संयुक्त राष्ट्र का मरुस्थलीकरण रोकथाम सम्मेलन मरुस्थलीकरण से लड़ने के लिए वैश्विक मंच प्रदान करता है। पेरिस समझौता और COP26 जैसे मंच जलवायु परिवर्तन से निपटने, जंगलों के संरक्षण और मरुस्थलीकरण रोकने के उपायों पर जोर देते हैं। भारत, चीन, और ब्राजील जैसे देशों ने हरित अर्थव्यवस्था के लिए ठोस कदम उठाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच और ट्रिलियन ट्री इनिशिएटिव जैसे अभियान वनों की बहाली और पर्यावरणीय संतुलन में योगदान दे रहे हैं।

 

प्राचीन काल में जहां वृक्षों को काटने पर पाबंदी और पर्यावरण संरक्षण की नीतियां चाणक्य जैसे विद्वानों ने मौर्य साम्राज्य के समय लागू की थीं वहीं आज के समय में, भारतीय पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा और उनके चिपको आंदोलन ने जंगलों के महत्व को फिर से समझाया। उनका नारा, "जंगल बचाओ, पर्यावरण बचाओ," भारतीय पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक बन गया।

 

वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण के लिए जलवायु  परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए 'राष्ट्रीय वन नीति' और 'ग्रीन इंडिया मिशन' जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। भारत के प्रधानमंत्री ने ग्लासगो में आयोजित COP26 में इस समस्या पर चर्चा की थी और भारत द्वारा सतत विकास और हरित अर्थव्यवस्था को अपनाने की प्रतिबद्धता दोहराई थी। हालांकि, चुनौती अभी भी बड़ी है। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, और बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का संरक्षण एक कठिन कार्य बन गया है।

 

2023 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने अपने कुल वन क्षेत्र का 2% पिछले पांच वर्षों में खो दिया है। 2022 में, संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी कि दुनिया की 25% भूमि मरुस्थल बन चुकी है, जिससे कृषि योग्य भूमि तेजी से घट रही है। रिपार्ट के अनुसार यदि समय रहते वनीकरण और जल संरक्षण जैसे कदम नहीं उठाए गए, तो थार रेगिस्तान राजस्थान के कई अन्य हिस्सों को अपने प्रभाव में ले सकता है। बढ़ती जनसंख्या और अंधाधुंध शहरीकरण के कारण जंगलों का विनाश हो रहा है।

 

इस प्रकार "जंगल सभ्यताओं से पहले आते हैं और रेगिस्तान उनके बाद आते हैं" केवल एक कथन नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है। जंगल हमें जीवन देते हैं, जबकि रेगिस्तान हमें यह सिखाते हैं कि मानव की लापरवाही का परिणाम कितना घातक हो सकता है।

 

आज, जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम अपनी नीतियों और आदतों में बदलाव लाएं। महात्मा गांधी के शब्दों "प्रकृति में इतनी पर्याप्तता है कि वह हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है,  लेकिन किसी एक व्यक्ति के लालच को नहीं।" को अपना सिद्धांत बनाना होगा जो हमें जंगलों की रक्षा और रेगिस्तानों के विस्तार को रोकने के लिए प्रेरित करता है।


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