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May 25, 2023

भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका

भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका 


प्रश्‍न - जाति भारतीय राजनीति में एक भूमिका निभाती है। दशकों में इसके कामकाज में बदलाव आया है। आप पिछले कई दशकों में इसकी बदलती भूमिका को कैसे देखते हैंक्या विकास का तर्क जाति के चरित्र को कमजोर करता हैअपने कारण दीजिए। 



भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में जाति , धर्म, मूलवंश, जन्मस्थान, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करने का प्रावधान है फिर भी जाति की भारतीय राजनीति में महत्‍वपूर्ण भूमिका है । स्‍वतंत्रता के बाद से वर्तमान भारतीय राजनीति व्‍यवस्‍था को देखा जाए तो राजनी‍ति में जाति एक महत्‍वपूर्ण पक्ष रहा है तथा पिछले कई दशकों में इसके कामकाज तथा भूमिका में बदलाव आया है जिसे 3 चरणों में देखा जा सकता है ।


 

प्रथम चरण- इस चरण की अवधि 1947 से 1967 है जिसमें कांग्रेस पार्टी मुख्‍य पार्टी थी और इस समय की राजनीति में मुख्य रूप से ऊंची जतियों का प्रभुत्व था तथा पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व कम था।


 

द्वितीय चरण – वर्ष 1967 से 1989 तक चली इस अविध में जहां कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई वही क्षेत्रीय दल का उदय हुआ। पिछड़ी जातियां राजनीतिक रूप से एकजुट हुई जिससे राजनीति में जाति का महत्व बढ़ा। उललेखनीय है कि इंदिरा गांधी के बाद सत्ता प्राप्ति में जाति, वर्ग का प्रभाव बढ़ने लगा जिसकी चरम परिणति जनता पार्टी सरकार के बाद स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।


 

तृतीय चरण- वर्ष 1990 में मंडल आयोग से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ मिला और राजनीति  में जति का महत्व बढ़ने लगा तथा उनके विकास का मुद्दा आया और भारतीय राजनीति में जातियों का महत्‍व बढ़ने लगा ।


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राजनीति में जाति का प्रभाव एवं बदलती भूमिका

1990 के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों ने जातिवाद का प्रयोग आरक्षण, आपातकालीन उपचुनावों, सरकारी सेवाओं में आरक्षण जैसे मुद्दों पर जनमत प्राप्त करने के लिए उठाया है तथा इसके फलस्‍वरूप नीतियां और कानूनों में संशोधन होते रहते हैं ।


 

बिहार की राजनीति में भी मंडल कमीशन की पृष्ठभूमि में पिछड़ी और दलित जातियों के नेता के रूप में के लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान उभरे जो कालांतर में बिहार की राजनीति के केन्द्र में रहे । उल्‍लेखनीय है कि बिहार की राजनीति के केन्द्र में इन नेताओं के होने का एक बड़ा कारण इनको अपनी अपनी जतियों का समर्थन मिलना रहा है।


 

2004 के केन्‍द्रीय चुनाव में पिछड़ी जातियों के राजनीतिक एवं सामाजिक दावे को स्‍वीकृति मिली और राजनीतिक दलों ने इनके महत्‍व को पहचाना । इसी के फलस्‍वरूप वर्तमान में सभी राजनीतिक दल पिछड़ा वर्ग को सत्‍ता में समुचित भागीदारी, शिक्षा, रोजगार के पक्ष में बात करते हैं ।


 

वर्तमान में लगभग सभी दलों में अनेक जातीय गुट पाए जाते हैं जो राजनीतिक प्रक्रिया, चुनाव तथा नीति निर्माण को व्यापक रूप से प्रभावित करती है जो नकारात्‍मक के साथ साथ सकारात्‍मक भी रहे है । जातिवाद ने भारत में जहां जातिगत आधार पर राजनीतिक दलों के गठन, निर्वाचन प्रक्रिया, टिकट बंटवार, पद आवंटन, मतदाताओं को प्रभवित करने आदि पर व्यापक प्रभाव वही राजनीतिक दलों पिछड़ी जातियों को राजनीति में महत्‍वपूर्ण स्‍थान मिलने से राजनीति प्रक्रिया गहरे प्रभावित हुई है ।  


 

वर्तमान में तो कई बड़े नेता जनमानस को आकर्षित करने हेतु अपनी जातिगत पहचान का उपयोग कर रहे हैं। कई बार तो महान नेताओं, महापुरुषों की जयंती और पुण्‍यतिथि को समारोह के रूप में मनाकर संबंधित जातियों को समाज के मतदाताओं को आकर्षित्‍ किया जा रहा है ।    

 


 

भारतीय राजनीति में विकास एवं जाति

इस प्रकार देखा जाए तो राजनीति में जाति एक मजबूत पकड़ बनाए हुए है हांलाकि पिछले कुछ दशकों में देखा जाए तो राजनीति में जाति के बजाए  विकास, सुशासन, भ्रष्‍टाचार से मुक्ति प्रमुख मुद्दे रहे है जिसके बल पर चुनाव लड़ा गया और जीत हासिल की गयी । 


वर्ष 1999 में भारत उदय तथा 2014 एवं 2019 के केन्‍द्रीय चुनाव में विकास, सुशासन एवं भ्रष्‍टाचार मुक्‍त भारत चुनावों में प्रमुख मुद्दा रहा। केन्‍द्रीय मंत्री के रुप में नीतिश कुमार सड़क, रेलवे में अनेक विकास कार्य किए जिसके फलस्‍वरूप बिहार की जनता ने 2005 में मुख्‍यमंत्री के रूप में स्‍वीकार किया । वर्ष 2010 में न्‍याय के साथ विकास एवं सुशासन के नाम पर चुनाव लड़ा गया और कालांतर में इन मुददों को प्रथमिकता में रखा गया ।


 

इस प्रकार जनता ने विकास को अस्‍वीकार नहीं किया हांलाकि इन सभी में थोड़ा बहुत जातीय समीकरण का भी प्रभाव था । उल्‍लेखनीय है कि वर्तमान राजनीति परिदृश्‍य में सिर्फ विकास के द्वारा चुनाव नहीं जीता जा सकता इस कारण इसमें अन्‍य समकालीन मुद्दों के साथ साथ जातीयता जैसे मुद्दों का मिलाजुला महत्‍व है।



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