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Jul 25, 2025

"काली माई करिया, भवानी माई गोर"

 "काली माई करिया, भवानी माई गोर"

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भारतीय समाज में कहावतें अनुभव और सांस्कृतिक चेतना का संचित ज्ञान हैं। इस संदर्भ में "काली माई करिया, भवानी माई गोर" एक ऐसी ही कहावत है जो प्रथम दृष्टि में सरल प्रतीत होती है, परंतु उसके भीतर समाज, दर्शन और जीवन का गहन संदेश छिपा है। यह कहावत बताती है कि एक ही शक्ति के दो रूप है एक काली और एक गोरी जबकि दोनों ही समान रूप से पूजनीय हैं। देवी काली का काला रंग उन्हें भयावह या हीन नहीं बनाता, बल्कि वे उतनी ही पूज्य हैं जितनी सौम्य और गोरी भवानी देवी। यह दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि किसी की बाह्य पहचान, जैसे रंग, जाति, लिंग, भाषा या सामाजिक स्थिति, उसकी गरिमा और मूल्य का निर्धारक नहीं होनी चाहिए।

 

इस कहावत का दार्शनिक आधार हमें अद्वैत वेदांत और भगवद्गीता की शिक्षाओं में मिलता है। शंकराचार्य के अनुसार, “ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या” — इस विश्व की भिन्नता केवल भ्रम है, वास्तविकता एक है: ब्रह्म। आत्मा की कोई जाति, रंग, वर्ग नहीं होता। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्” — जो सबके भीतर एक ही ईश्वर को देखता है, वही ज्ञानी है। ऐसे में जब ब्रह्म सबके भीतर समरूप है, तो हम किसी को रंग या स्थिति के आधार पर तुच्छ कैसे मान सकते हैं? यह कहावत उसी समदर्शी दृष्टिकोण का लोक रूप है, जो हमें भेदभाव नहीं, समरसता सिखाता है।

 

वर्तमान समाज में यह कहावत अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है, जब तुलना, ईर्ष्या और भेदभाव से व्यक्ति हीनता का शिकार होता है। सोशल मीडिया, फ़िल्में, विज्ञापन और जीवनशैली आज ऐसे मापदंड गढ़ते हैं जिनमें गोरा रंग, ऊँची अंग्रेज़ी, आकर्षक पहनावा और सामाजिक रुतबा सफलता की कसौटी बन जाते हैं। इससे वे लोग जो इन कृत्रिम मानकों पर खरे नहीं उतरते, अपने अस्तित्व को हीन समझने लगते हैं। इस मानसिकता से मुक्ति के लिए यह कहावत औषधि बन सकती है, क्योंकि यह हमें यह याद दिलाती है कि जो काली है, वह भी माता है  पूज्य है; और जो भवानी है, वह भी माता है पूज्य है। दोनों में कोई छोटा-बड़ा नहीं।

 

यह विचार केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का मूल है। भारत में आज भी रंगभेद, जातिभेद और वर्गभेद गहराई से मौजूद हैं। उत्तर भारत में गोरापन सौंदर्य का प्रतीक मान लिया जाता है, जबकि दक्षिण या पूर्वोत्तर भारत के लोगों को उनके रंग या रूप के कारण तिरस्कार झेलना पड़ता है। यह केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक गुलामी है। यह कहावत हमें इस गुलामी से मुक्त कर सकती है, यदि हम इसके भाव को आत्मसात करें। जब काली माई को भी पूजते हैं तो फिर किसी गहरे रंग वाले व्यक्ति को हेय क्यों समझा जाए?

 

महापुरुषों के जीवन में इस कहावत की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, जिनका रंग सांवला था, लेकिन विचार स्वर्ण से भी उज्ज्वल, उन्होंने न केवल विज्ञान की ऊँचाइयों को छुआ, बल्कि भारत के राष्ट्रपति भी बने। उन्होंने कभी अपने रंग या निर्धनता को अपनी पहचान का अभिशाप नहीं माना। इसी प्रकार सुधा मूर्ति, जो सादगी और संयम की प्रतिमूर्ति हैं, उन्होंने कभी फैशन, सौंदर्य या प्रसिद्धि की शर्तों पर समाज की स्वीकृति नहीं माँगी। वे अपने कर्म, दृष्टिकोण और मानवीयता के कारण आदरणीय बनीं। उनकी उपस्थिति इस कहावत की सार्थकता को सिद्ध करती है।

 


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शिक्षा के क्षेत्र में भी यह कहावत हमें एक गहरा सबक देती है। मैं एक शिक्षक के रूप में यह देखता हूँ कि बच्चे अक्सर दूसरों से अपनी तुलना कर खुद को कमतर समझने लगते हैं। कोई छात्र अच्छा बोलता है, कोई सुंदर दिखता है, कोई महंगे कपड़े पहनता है  और बाकी बच्चे सोचते हैं कि वे उनसे कमजोर हैं। यह तुलना उन्हें भीतर से तोड़ती है। ऐसे में यह कहावत समझाती है कि हर व्यक्ति की गरिमा उसकी आंतरिक विशेषताओं, जैसे करुणा, बुद्धि, ईमानदारी, और परिश्रम में है, न कि बाहरी दिखावे में। वैश्विक आंदालन हो या भारत में "दलित साहित्य आंदोलन", ये सब उस चेतना का आधुनिक रूप हैं, जो कहती है कि जिन्हें अब तक नकारा गया, उनका अस्तित्व भी पवित्र और सम्माननीय है। यह वही बात है जो यह कहावत हमें बताती है।

 

अंततः, इस कहावत का मूल संदेश है आत्म-स्वीकृति, विविधता में सौंदर्य देखना, और तुलना की प्रवृत्ति से मुक्ति पाना। जीवन में सबकी परिस्थितियाँ अलग होती हैं — कोई गोरा है, कोई काला; कोई धनवान है, कोई साधारण; कोई शहर में जन्मा, कोई गाँव में। लेकिन सबकी आत्मा एक ही परम शक्ति का अंश है। जब हम यह समझ जाते हैं, तब दूसरों से तुलना करना छोड़ देते हैं और अपने जीवन को गहराई से जीने लगते हैं।

 

यह ऐसे दृष्टिकोण को व्‍यक्‍त करती है जो भेदभाव को नहीं बल्कि समानता को महत्व देता है, यह रूप से नहीं बल्कि गुण से पहचानता है और हमें सिखाता है कि आत्मा के स्तर पर सब समान हैं। यदि हम इस लोकज्ञान को अपनी सोच और आचरण में उतार सकें, तो व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक एक नई चेतना का उदय संभव है । एक ऐसा समाज जो सबको उनकी विशिष्टता में स्वीकार करता है, और सभी रूपों में ईश्वर को देखता है।

 

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