BPSC Mains- राष्ट्रपति शासन प्रणाली एवं
केन्द्र राज्य संबंध
प्रश्न: भारतीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति को नाममात्र का कार्यपालिका प्रमुख माना
जाता है, फिर भी उनकी भूमिका परिस्थितियों में बदलाव के साथ निर्णायक
हो जाती है। राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष निर्वाचन, संवैधानिक स्थिति
और विवेकाधिकार शक्तियों के संदर्भ में विश्लेषण कीजिए। 38 अंक
उत्तर: भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रपति को राज्य का औपचारिक प्रमुख माना है,
किन्तु उनकी भूमिका केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि परिस्थिति-निर्भर है और कई अवसरों पर उनकी भूमिका निर्णायक हो जाती है जिसे निम्न प्रकार देख सकते हैं:-
अप्रत्यक्ष निर्वाचन
- संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष चुनाव को अपनाया ताकि संसदीय
शासन व्यवस्था में सत्ता का संतुलन बना रहे। यदि राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चुनाव होता, तो जनता
द्वारा मिले जनादेश से उन्हें वास्तविक कार्यपालिका के समान अधिकारों का दावा मिलता,
जिससे मंत्रिपरिषद और प्रधानमंत्री की भूमिका कमजोर होती।
- अप्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से राष्ट्रपति संसद और राज्यों दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि राष्ट्रपति राजनीतिक प्रतियोगिता का विषय न बनें और संसदीय व्यवस्था में उनकी महत्ता बनी रहे।
संवैधानिक स्थिति
- संवैधानिक स्थिति के अनुसार अनुच्छेद 53 में कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति
में निहित है, परंतु अनुच्छेद 74 उसे मंत्रिपरिषद
की सलाह के अधीन सीमित कर देता है। फिर भी यह कहना अधूरा होगा कि राष्ट्रपति केवल
“रबर स्टैम्प” हैं।
- राष्ट्रपति संवैधानिक संतुलन के प्रहरी हैं, विशेषतः ऐसी स्थितियों में जहाँ
राजनीतिक स्थिरता बाधित हो जैसे स्पष्ट बहुमत न मिलने पर प्रधानमंत्री की नियुक्ति
(1979, 1996), अस्थिर गठबंधन सरकारों को सलाह देना, या कैबिनेट निर्णयों को पुनर्विचार के लिए लौटाना (यद्यपि
44वें संशोधन के बाद यह शक्ति सीमित है)।
विवेकाधिकार शक्तियां
- राष्ट्रपति की वीटो शक्तियाँ जैसे पूर्ण वीटो, निलंबनकारी
वीटो और जेबी वीटो विधान प्रक्रिया पर नियंत्रण का साधन हैं। इसी प्रकार क्षमादान शक्ति
(अनुच्छेद 72) राष्ट्रपति को न्यायिक उद्देश्यों
से परे करुणामूलक न्याय लागू करने की क्षमता देती है। यद्यपि मारूराम
(1980) और धनंजय चटर्जी (1994) मामलों में सर्वोच्च
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि क्षमादान शक्ति मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधी है,
फिर भी अनुच्छेद 74(1) राष्ट्रपति को सलाह के पुनर्विचार
का सीमित मार्ग उपलब्ध कराता है।
इस प्रकार भारतीय शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद लोकतंत्र
की आपातकालीन सुरक्षा वाल्व की तरह कार्य करता है। सामान्य स्थितियों में उनका पद निष्पक्षता
और निरंतरता का प्रतीक है, किंतु असामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति
संवैधानिक संतुलन और शासन स्थिरता को निर्णायक रूप से सुरक्षित करते हैं।
निष्कर्षतः, राष्ट्रपति न तो केवल औपचारिक प्रमुख हैं और न ही वास्तविक
कार्यपालिका; वे भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक विवेक,
संतुलन और वैधानिक निरंतरता के संरक्षक हैं।
2 (b) प्रश्न: क्या भारत के संघीय
ढाँचे में विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय संबंध व्यवहार में केंद्र-पक्षीय हो गए हैं? हालिया विवादों के संदर्भ
में आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए तथा सुधार सुझाए। 38 अंक
उत्तर: भारतीय संविधान एकात्मक झुकाव के साथ संघीय प्रकृति है । भाग-XI और सातवीं अनुसूची
में शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है फिर भी विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय संबंध
व्यवहार में संतुलन बार-बार केंद्र की ओर दिखता है जिसे निम्न प्रकार समझ सकते हैं:-
विधायी संबंध
- अनुच्छेद 245-255 और अनुसूचियों द्वारा विधायी संबंधों का उल्लेख है। इसमें अवशिष्ट शक्तियाँ संसद के पास हैं और समवर्ती सूची में टकराव की स्थिति में भी केंद्र का कानून प्रभावी होता है।
- संसद विभिन्न अनुच्छेदों द्वारा भी राज्यों के क्षेत्र में भी प्रवेश कर सकती है जैसे राष्ट्रीय आपात, राज्यसभा के संकल्प, राज्यों के अनुरोध अथवा संधि क्रियान्वयन आदि।
- राज्यपाल द्वारा अनु. 200 के उपयोग के क्रम में विधेयकों पर लंबा समय भी राज्य विधान की प्रभावशीलता घटाता है। इस प्रकार यहां विधायी संबंध में केंद्र का प्रभुत्व स्पष्ट होता है।
प्रशासनिक संबंध
- अनु. 256-263 के अंतर्गत केंद्र की कार्यपालिका शक्ति पूरे देश में फैली मानी गई है। अंतरराज्यीय परिषद/नदी विवाद, अभिलेख, व्यापार प्राधिकरण जैसे क्षेत्रों में दिशानिर्देशात्मक नियंत्रण संभव है।
- हाल के निर्णयों जैसे -तमिलनाडु बनाम राज्यपाल (2025) और नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ (2025) आदि ने रेखांकित किया कि शक्तियों का पृथक्करण लोकतांत्रिक संतुलन का मूल है तथा राज्यपाल द्वारा विधेयकों को “लंबित” रखना असंवैधानिक ठहराया गया। फिर भी प्रशासनिक संबंधों में यह दिखा कि संस्थागत टकराव सतत बना हुआ है।
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वित्तीय संबंध
- अनु. 268-293 के बावजूद संसाधनों की उत्पत्ति मुख्यतः केंद्र-करों/उपकर-अधिभार से है जबकि व्यय दायित्व राज्यों पर अधिक।
- GST ने जहां कराधान में राज्यों की स्वायत्तता घटाई वहीं मुआवज़ा उपकर की समाप्ति ने अस्थिरता बढ़ाई। कई राज्यों ने उधारी सीमाएँ, देरी से हस्तांतरण, सेस/सरचार्ज की बढ़ोतरी, और विभाज्य पूल में हिस्सेदारी घटने पर आपत्ति जताई।
- 2024-25 के विवाद जैसे CAA की संवैधानिकता पर केरल की याचिका, कर्नाटक-तमिलनाडु द्वारा आपदा निधि/सहायता पर केंद्र की भूमिका आदि ने सहकारी संघवाद की व्यावहारिक चुनौतियाँ उजागर कीं।
अत: इस दिशा में सुधार के लिए समवर्ती सूची पर राज्यों से पूर्व-परामर्श आधारित “सहमति-क्लॉज” का संस्थानीकरण, अनु.200 के अंतर्गत आरक्षित
विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय, कर-साझाकरण का पुनर्मूल्यांकन वस्तु एवं सेवाकर में स्पष्टता, समयबद्ध विवाद
निपटान उपायों को अपनाया जा सकता है।
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