“सुपवा हँसे चलनिया के, कि
तोरा में सतहत्तर छेद।”
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भारतीय समाज में प्रचलित कहावतें
केवल शब्द नहीं बल्कि गहन जीवन-दर्शन की प्रतीक होती हैं। ऐसी ही एक कहावत
है “सुपवा हँसे चलनिया के, कि
तोरा में सतहत्तर छेद।” इसका अर्थ है कि एक दोषपूर्ण व्यक्ति दूसरे की आलोचना करे,
यह खुद एक विडंबना है। यह कहावत उन लोगों की मानसिकता पर चोट करती
है जो स्वयं गहरे दोषों से ग्रस्त हैं, लेकिन दूसरों की
मामूली त्रुटियों पर हँसते और उपहास करते हैं। यह पाखंड, दोहरे
मापदंड और आत्मवंचना का प्रतीक बन चुकी सामाजिक प्रवृत्ति की आलोचना करती है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी कहा
गया है — “आत्मनं विद्धि” (अपने आप को जानो)। यह एक दार्शनिक आह्वान है जो हमें
आत्ममंथन की ओर प्रेरित करता है। लेकिन आज, समाज में आत्म-विश्लेषण का
स्थान दिखावे और दूसरों की निंदा ने ले लिया है। हम अक्सर दूसरों की कमियों को
उजागर करते हैं, परंतु अपनी सीमाओं को जानने की कोशिश नहीं
करते। यही मानसिकता समाज में वैमनस्य, कटुता और असहिष्णुता
को बढ़ावा देती है।
व्यक्तिगत जीवन में यह कहावत उतनी ही
सटीक बैठती है। माता-पिता अपने बच्चों को झूठ न बोलने का उपदेश देते हैं, लेकिन
खुद कई बार झूठ बोलते पकड़े जाते हैं। शिक्षकों द्वारा छात्रों की त्रुटियों की
सार्वजनिक आलोचना होती है, लेकिन वे स्वयं अपनी गलतियों को
स्वीकार नहीं करते। कार्यस्थलों पर अधीनस्थों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है,
पर अधिकारी खुद समय पालन नहीं करते।
वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक
परिदृश्य में देखें तो हालिया वर्षों में कई ऐसे राजनेता चर्चा में आए हैं जो
चुनावों के दौरान पारदर्शिता और नैतिकता की बातें करते हैं, लेकिन
सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सत्ता के
दुरुपयोग में लिप्त पाए जाते हैं। वे दूसरों की छोटी गलतियों को मुद्दा बनाते हैं,
लेकिन जब अपने कृत्य पर सवाल उठते हैं, तो
चुप्पी या बचाव की मुद्रा अपना लेते हैं। यही “सुपवा” का व्यवहार है जो “चलनिया”
को दोष देने में संकोच नहीं करता।
मीडिया, जो
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, वह भी अब इस कहावत के
दायरे में आ चुका है। आज सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनलों में नैतिकता और राष्ट्रवाद
की बातें करने वाले स्वयं अक्सर भ्रामक समाचार, पूर्वाग्रहपूर्ण
रिपोर्टिंग और टीआरपी की होड़ में लगे रहते हैं। यह स्थिति न केवल समाज में भ्रम
फैलाती है, बल्कि लोकतंत्र की नींव को भी कमजोर करती है।
इसका परिणाम यह है कि आम नागरिक सूचना के नाम पर ध्रुवीकरण और नफरत का शिकार हो
रहा है।
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हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो भारत
की जीडीपी वृद्धि,
चंद्रयान-3 की सफलता और डिजिटल इंडिया की उपलब्धियों को वैश्विक मंच
पर प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन वहीं दूसरी ओर सीमा पार
आतंकवाद, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा,
सूखा-बाढ़, भ्रष्टाचार, और
प्रशासनिक विफलता जैसे मुद्दे भी यथावत हैं। हाल ही में मणिपुर और हरियाणा में हुए
जातीय-धार्मिक संघर्ष, महिला अत्याचार और शासन की
निष्क्रियता इस बात का उदाहरण हैं कि केवल आँकड़ों के दम पर राष्ट्र की समृद्धि का
मूल्यांकन करना अपने आप में एक ज्ञान का भ्रम है। यहाँ भी वही होता है दोषपूर्ण प्रणाली स्वयं को आदर्श मानती है और
नागरिकों के असंतोष को ‘अराजकता’ या ‘राष्ट्रद्रोह’ बता देती है। दार्शनिक दृष्टि
से देखें तो जॉन लॉक जैसे पश्चिमी चिंतकों ने भी चेताया था कि “स्वतंत्रता की
रक्षा तभी संभव है जब हम खुद को जांचने और सुधारने को तैयार हों।”
इस कहावत के मूल में पाखंड की समस्या
है, जो आधुनिक समाज की सबसे गंभीर व्याधि बन गई है। पाखंड वह मुखौटा है जो
नैतिकता का चोला ओढ़े, भीतर से खोखलेपन को ढकता है। यही
पाखंड सोशल मीडिया, धर्म, राजनीति,
शिक्षा और पारिवारिक रिश्तों में भी जगह बना चुका है। यह विश्वास की
जगह अविश्वास और संवाद की जगह कटाक्ष को जन्म देता है।
समाधान की दिशा में पहला कदम है —
आत्मचिंतन और आत्मस्वीकृति। जब हम अपनी कमजोरियों को समझेंगे, तभी
हम दूसरों की आलोचना को रचनात्मक बना पाएंगे। दूसरा, समाज
में दोहरे मापदंडों को त्यागना होगा। हम सभी के लिए एक समान नैतिक मानक अपनाएँ —
चाहे वह सत्ता में हो, आम नागरिक हो या मीडिया। तीसरा,
हमें आलोचना को केवल कमियाँ गिनाने के औजार के रूप में नहीं,
बल्कि सुधार के साधन के रूप में अपनाना चाहिए।
निष्कर्षतः, “सुपवा
हँसे चलनिया के” एक कहावत से कहीं अधिक, आत्मनिरीक्षण का
दर्पण है। यह हमें चेतावनी देती है कि यदि हम केवल दूसरों की कमियों में उलझे रहे
और स्वयं के दोषों से आँख मूंदे रहे, तो समाज पाखंड, असहिष्णुता और कटुता की ओर बढ़ेगा। सही अर्थों में न्याय, नैतिकता और विकास तभी संभव है जब आलोचना आत्ममूल्यांकन से शुरू हो,
और सुधार स्वयं से। तभी हम एक स्वस्थ, निष्पक्ष
और विवेकशील समाज की नींव रख सकते हैं।
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