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Jul 17, 2025

प्रश्‍न- "जब केंद्र में सरकार बदलती है, तो राज्यपाल भी बदल जाते हैं"। इस कथन के संदर्भ में केंद्र और राज्यों के बीच एक कड़ी के रूप में भारत में राज्यपाल की भूमिका की जाँच करें । क्या वह किसी भी तरह से अपने विवेक के अनुसार कार्य कर सकते हैं ?

प्रश्‍न- "जब केंद्र में सरकार बदलती है, तो राज्यपाल भी बदल जाते हैं"। इस कथन के संदर्भ में केंद्र और राज्यों के बीच एक कड़ी के रूप में भारत में राज्यपाल की भूमिका की जाँच करें । क्या वह किसी भी तरह से अपने विवेक के अनुसार कार्य कर सकते हैं ? 38 Marks

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 उत्तर: "जब केंद्र में सरकार बदलती है, तो राज्यपाल भी बदल जाते हैं"—यह कथन भारत की राजनीतिक परंपरा में एक कटू सत्य को उजागर करता है जहाँ केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुसार राज्‍यपाल बदल जाते हैं। संविधान जहां राज्यपाल को राज्य में केंद्र का निष्पक्ष प्रतिनिधि मानता है वहीं व्यवहार में राज्‍यपाल अनेक बार राजनीतिक उपकरण के रूप में प्रयुक्त होने लगते हैं।

 

ऐसे अनेक उदाहरण इसकी पुष्टि करते हैं जैसे- 1977 (जनता पार्टी सरकार), 1980 (कांग्रेस की वापसी), 2004 (UPA सरकार), 2014 में सरकार बदलते ही दर्जनों राज्यपालों को हटाया या स्थानांतरित किया गया। इससे राज्यपाल की तटस्थता, संवैधानिक गरिमा और संघीय ढांचे की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न खड़े हुए हैं।

 




राज्यपाल की भूमिका केवल राज्य का औपचारिक प्रमुख होने की नहीं, बल्कि केंद्र और राज्य के बीच संवैधानिक सेतु की है। वे राष्ट्रपति (केंद्र) के प्रतिनिधि होते हैं और राज्य की कार्यपालिका पर निगरानी रखते हैं। अनुच्छेद 153 से 162 तक राज्यपाल की शक्तियाँ और कर्तव्य निर्दिष्ट हैं जिनमें प्रमुख निम्‍न हैं:-

 

  • संवैधानिक मध्यस्थ – राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनु. 356) की सिफारिश करने या संविधान के उल्लंघन की सूचना केंद्र को देने की जिम्मेदारी।
  • संवाद सेतु – राज्य की कानून-व्यवस्था, नीतियों, और प्रशासन की रिपोर्ट केंद्र को देना।
  • निष्पक्ष व्यवस्था निर्माता – राज्यों में शासन संविधान के अनुरूप चल रहा है या नहीं, इसकी निगरानी।

 

इस प्रकार संविधान में राज्‍यपाल के कार्य का उल्‍लेख है और राज्यपाल सामान्यतः मंत्रिपरिषद् की सलाह पर कार्य करते हैं तथा विशेष परिस्थितियों जैसे स्पष्ट बहुमत न होने पर मुख्यमंत्री नियुक्त करना, राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजना आदि में उन्हें विवेकाधिकार शक्तियां प्राप्त हैं।

 

फिर भी किंतु कई अवसरों पर राज्‍यपाल अपनी संवैधानिक भूमिका नहीं निभा पाते और अपनी भूमिका और  विवेकाधीन शक्तियों के अनुसार कार्य नहीं कर पाते क्‍योंकि केन्‍द्र द्वारा अक्‍सर उनके कार्यों को प्रभावित किया जाता है। इसी के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने बी पी सिंघल मामला, 2010 में स्पष्ट किया कि राज्यपालों को हटाया जा सकता है, लेकिन यह प्रक्रिया मनमानी नहीं होनी चाहिए।

 

निष्कर्षत: राज्यपाल का पद संविधान के संघीय ढांचे का एक संतुलनकारी स्तंभ है, परंतु केंद्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति से संचालित होने की प्रवृत्ति ने इस पद की स्वायत्तता और गरिमा को हानि पहुँचाई है। सरकार बदलने के साथ साथ राज्‍यपाल बदलने की प्रवृत्ति लोकतंत्र की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाती है। अत: इस दिशा में प्रशासनिक सुधार आयोग, सरकारिया आयोग, पुंछी आयोग आदि की अनुशंसाओं के आधार पर राज्यपाल की नियुक्ति, कार्यकाल और बर्खास्तगी की प्रक्रिया को अधिक संवैधानिक, पारदर्शी और तटस्थ बनाए जाने की आवश्यकता है।



 

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