साहित्य
ज्ञान का केवल एक स्रोत ही नहीं है, साथ ही यह नैतिक और सामाजिक क्रिया का
भी एक रूप है।
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साहित्य केवल अक्षरों और
शब्दों का संयोजन नहीं है, बल्कि
यह समाज का दर्पण और जीवन का दार्शनिक मार्गदर्शक है। यह हमें केवल जानकारी ही
नहीं देता, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को जगाता है, नैतिक मूल्यों को संचारित करता है और सामाजिक चेतना का निर्माण करता है।
प्लेटो ने साहित्य को “आत्मा की चिकित्सा” कहा, जबकि भारतीय
दृष्टिकोण में साहित्य को ‘साहित्य समाज का दर्पण’ माना गया है। गोर्की का कथन
है—“साहित्य जीवन को प्रतिबिंबित करता है।” इस प्रकार साहित्य ज्ञान का स्रोत होने
के साथ-साथ नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है।
मनुष्य केवल तथ्यों से
नहीं, बल्कि अनुभूतियों और
संवेदनाओं से भी सीखता है। साहित्य हमें वही जीवंत अनुभव कराता है। रामायण और
महाभारत जैसे महाकाव्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि
जीवन के हर पहलू का गहन ज्ञान देने वाले साहित्यिक भंडार हैं। गीता केवल उपदेश
नहीं, बल्कि एक दार्शनिक मार्गदर्शक है जिसने महात्मा गांधी
से लेकर आधुनिक काल तक अनगिनत लोगों को कर्म और धर्म का अर्थ समझाया। तुलसीदास की
चौपाइयाँ, सूरदास की पदावलियाँ और कबीर के दोहे साधारण जन तक
गूढ़ जीवन-दर्शन पहुँचाने वाले साहित्यिक सूत्र हैं।
साहित्य का ज्ञान केवल
पुस्तक तक सीमित नहीं रहता, बल्कि
वह अनुभव और भावनाओं के साथ हृदय में उतरता है। यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति
प्रेमचंद का गोदान पढ़ता है तो उसे केवल खेती-किसानी की जानकारी नहीं मिलती,
बल्कि किसान की पीड़ा का एहसास भी होता है।
साहित्य यह सिखाता है कि
हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। यह हमारे जीवन की नैतिकता एवं आचरण को दिशा
देता है। रामचरितमानस में राम का आदर्श पुत्र और आदर्श राजा का स्वरूप, महाभारत में अर्जुन का द्वंद्व और गीता
में कृष्ण का उपदेश ये सब नैतिक आचरण के उदाहरण हैं। गांधीजी ने कहा था “गीता ने
मेरे जीवन को आकार दिया और कठिन परिस्थितियों में मेरा मार्गदर्शन किया।”
पाश्चात्य साहित्य में
शेक्सपियर के नाटकों में मानवीय दुर्बलताओं का चित्रण हमें यह सोचने पर मजबूर करता
है कि नैतिक पतन कैसे विनाश की ओर ले जाता है। टॉल्स्टॉय का वॉर एंड पीस या विक्टर
ह्यूगो का लेस मिज़रेबल्स मनुष्य के आचरण और नैतिकता को गहराई से छूते हैं। इस
प्रकार साहित्य केवल मन बहलाने का साधन नहीं,
बल्कि नैतिक चेतना जगाने वाली शक्ति है।
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साहित्य का सबसे बड़ा
महत्व यही है कि वह समाज को बदलने वाली चेतना जगाता है। साहित्यकार अपनी लेखनी से
उन सच्चाइयों को उजागर करते हैं जिन्हें समाज अक्सर छिपा लेना चाहता है। भारत में
प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान और कहानी कफ़न में किसानों और गरीबों की दयनीय
स्थिति को सामने रखा। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटकों और लेखन के जरिए समाज
में सुधार और राष्ट्रवाद की भावना को जीवित किया। दिनकर ने साहित्य को “समाज के
मर्म को स्पर्श करने वाली वाणी” बताया और स्वयं अपनी कविताओं के जरिए स्वतंत्रता
आंदोलन को स्वर दिया।
महाश्वेता देवी की
कहानियों ने आदिवासियों और दलितों की पीड़ा को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया।
इसी तरह चार्ल्स डिकेन्स ने औद्योगिक युग की विसंगतियों को उजागर किया और गोर्की
ने श्रमिक वर्ग की पीड़ा को आवाज़ दी। साहित्य पढ़ने मात्र से समाज बदलता नहीं, लेकिन यह परिवर्तन की चेतना पैदा करता
है और यही चेतना आगे चलकर सामाजिक क्रांति का आधार बनती है।
भारतीय संस्कृति में
साहित्य को “सहित” कहा गया है, जिसका अर्थ है सबको साथ ले चलने वाला। यही कारण है कि भारतीय साहित्य में
समाज की चेतना और लोकमंगल की भावना सदैव प्रमुख रही। भक्ति आंदोलन के संत कवि कबीर,
तुलसी, सूर, मीराबाई ने
अपने काव्य के जरिए सामाजिक समानता, प्रेम और भक्ति का संदेश
दिया। सूफ़ी संतों की कविताओं ने भाईचारे और नैतिक जीवन का मार्ग प्रशस्त किया।
गुरुनानकदेव की वाणी ने धर्म से परे मानवता को सर्वोच्च मूल्य के रूप में प्रस्तुत
किया। यह स्पष्ट करता है कि भारतीय साहित्य केवल सौंदर्य या मनोरंजन का साधन नहीं,
बल्कि सामाजिक और नैतिक जीवन का मार्गदर्शक है।
आज जब सूचना और तकनीक का
युग है, साहित्य की भूमिका
और भी महत्वपूर्ण हो गई है। सोशल मीडिया, ब्लॉग और डिजिटल
साहित्य ने विचारों को त्वरित रूप से समाज तक पहुँचाने का मार्ग खोल दिया है। आज
पर्यावरण साहित्य जलवायु परिवर्तन और प्रकृति संरक्षण की चेतना जगाता है। नारीवादी
साहित्य लैंगिक समानता की आवाज़ बन रहा है। दलित साहित्य ने हाशिये पर खड़े वर्गों
को स्वर दिया है। भारत की जी20 अध्यक्षता (2023) का थीम “One Earth, One
Family, One Future” भी उसी साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से
प्रेरित था जो सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। साहित्य का यही वैश्विक स्वर आज
भी प्रासंगिक है।
यद्यपि साहित्य समाज का
दर्पण और मार्गदर्शक है, लेकिन
इसकी भी सीमाएँ हैं। साहित्य कभी-कभी कल्पना की उड़ान में वास्तविकता से कट जाता
है। एक अबोध बच्चा केवल साहित्य पढ़कर नैतिक जीवन नहीं सीख सकता, उसके लिए परिवार और समाज का व्यवहारिक उदाहरण आवश्यक है। इसी प्रकार कोई
भी शासक केवल साहित्यिक ज्ञान से शासन नहीं कर सकता; उसे
व्यवहारिक राजनीति और सहयोगियों की आवश्यकता होती है। दार्शनिक अरस्तू ने साहित्य
को कैथार्सिस अर्थात् मनोशुद्धि का साधन माना, पर यह तभी
संभव है जब पाठक उसे आत्मसात करने की क्षमता रखे। यदि साहित्य केवल भावुकता का
साधन बन जाए और वास्तविकता से कट जाए तो वह समाज के लिए निरर्थक हो सकता है।
निष्कर्षत: साहित्य
केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि
यह नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी जीवंत रूप है। यह व्यक्ति को आचरण की प्रेरणा
देता है और समाज को परिवर्तन की चेतना। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था - “साहित्य समाज
का दर्पण है।” किंतु यह केवल दर्पण ही नहीं, बल्कि परिवर्तन
का प्रेरक भी है। आज जब दुनिया जलवायु संकट, युद्ध और
असमानता की चुनौतियों से जूझ रही है, साहित्य की भूमिका और
अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। यह हमें न केवल सोचने के लिए मजबूर करता है, बल्कि सही दिशा में कदम उठाने की प्रेरणा भी देता है। इसलिए यह कहा जा
सकता है कि “साहित्य ज्ञान की पुस्तक ही नहीं, जीवन की
प्रयोगशाला भी है।”
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