जंगल अपने पेड़ स्वयं तैयार करता है। यह लोगों के जंगल में आकर बीज फेंकने का इंतजार नहीं करता है।
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प्रकृति केवल जीवन का
आधार ही नहीं, बल्कि महानतम
शिक्षक भी है। उसके हर दृश्य, हर प्रक्रिया और हर तत्व में
गहन दर्शन छिपा है। जंगल इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। जंगल अपने अस्तित्व और विकास
के लिए किसी बाहरी व्यक्ति पर निर्भर नहीं करता। वह अपने वृक्षों से बीज गिराकर नई
पीढ़ी का निर्माण करता है और जल, पोषण तथा संतुलन स्वयं
उपलब्ध कराता है। यही जीवन-दर्शन मनुष्य के लिए मार्गदर्शक है—दूसरों की प्रतीक्षा
मत करो, अपनी राह स्वयं बनाओ। भगवद्गीता में कहा गया
है—“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्” अर्थात् मनुष्य को अपने द्वारा ही
स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए, दूसरों पर आश्रित होकर नहीं। यह
सूक्ति स्वयं के प्रयासों और आंतरिक शक्ति के महत्व पर जोर देती है, यह बताते हुए कि व्यक्ति की अपनी चेतना और इच्छाशक्ति ही उसे ऊँचा उठा
सकती है या उसे नीचे गिरा सकती है।
जंगल हमें आत्मनिर्भरता
का स्पष्ट संदेश देता है। वह किसी बाहरी व्यक्ति से बीज बोने की प्रतीक्षा नहीं
करता, बल्कि अपने वृक्षों से
गिरने वाले बीजों को ही जीवन देता है। जन्म, विकास और
पुनरुत्पत्ति का यह स्वाभाविक चक्र हमें बताता है कि यदि हमें निरंतरता चाहिए तो
आत्मनिर्भरता अपनानी होगी। उपनिषदों की उक्ति—“आत्मानं विद्धि” (स्वयं को जानो)—भी
इसी तथ्य को पुष्ट करती है। जब व्यक्ति अपने भीतर की शक्ति पहचान लेता है, तो उसे दूसरों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं होती।
भारतीय संस्कृति में
आत्मनिर्भरता को सदैव सर्वोच्च मूल्य माना गया। गीता का कर्मयोग कहता है कि
व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन स्वयं करना चाहिए। उपनिषद आत्मज्ञान को सबसे बड़ी
शक्ति मानते हैं। संत कवि कबीर ने कहा—“निज घर पाहीजै, पर घर क्यों डोलै।” अर्थात् सच्चा ज्ञान
अपने भीतर खोजो, बाहर भटकने से कुछ हासिल नहीं होगा।
तुलसीदास ने लिखा—“पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।” यानी परनिर्भरता दुख का कारण है। इस
प्रकार भारतीय दर्शन आत्मनिर्भरता को केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य के रूप में भी देखता है। राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त ने कहा “निराश न हो मन को;
कुछ काम करो, कुछ काम करो।” यह पंक्तियाँ हमें बताती हैं कि निराशा और दूसरों पर आश्रित रहने के बजाय
हमें सक्रिय होकर अपने जीवन की राह स्वयं बनानी चाहिए।
इतिहास इस बात का साक्षी
है कि महानता उन्हीं को मिली जिन्होंने आत्मनिर्भरता का मार्ग अपनाया। गौतम बुद्ध
ने कठिन तपस्या और आत्मचिंतन से ज्ञान प्राप्त किया और अपने शिष्य आनंद से
कहा—“अप्प दीपो भव”, अर्थात्
स्वयं अपना दीपक बनो। महात्मा गांधी ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी को
जीवन का आधार बनाया। उनका कथन था—“खुद वो बदलाव बनो, जो तुम
दुनिया में देखना चाहते हो।” स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को प्रेरित करते हुए
कहा—“उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक रुको मत।”
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अब्राहम लिंकन गरीबी और
संघर्ष के बावजूद अपने प्रयासों से अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उन्होंने कहा
था—“जो भी बनो, सर्वश्रेष्ठ
बनो।” थॉमस एडीसन ने बल्ब बनाने के लिए हज़ारों प्रयोग किए और कहा—“मैं असफल नहीं
हुआ, मैंने केवल 1000 तरीके खोजे जो काम नहीं करते।” इसी तरह
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अख़बार बाँटते हुए पढ़ाई की और आगे चलकर भारत को मिसाइल
शक्ति प्रदान की। उनका कथन—“सपना वह नहीं जो आप सोते समय देखते हैं, सपना वह है जो आपको सोने न दे।”—आत्मनिर्भरता का प्रेरक सूत्र है।
आज के वैश्विक परिदृश्य
में आत्मनिर्भरता का महत्व और भी बढ़ गया है। भारत ने इसी विचार को समझते हुए
आत्मनिर्भर भारत अभियान, मेक
इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाएँ शुरू कीं। विज्ञान और तकनीक में
चंद्रयान-3 तथा गगनयान मिशन, डिजिटल क्षेत्र में यूपीआई और
आधार, रक्षा क्षेत्र में तेजस लड़ाकू विमान और मिसाइल
प्रणाली तथा स्वास्थ्य क्षेत्र में कोविड-19 वैक्सीन—ये सभी आत्मनिर्भरता के सशक्त
उदाहरण हैं। भारत की जी20 अध्यक्षता (2023) ने भी यह संदेश दिया कि वह केवल अपने
लिए नहीं, बल्कि पूरे वैश्विक दक्षिण के लिए आत्मनिर्भरता का
मार्ग सुझाने वाला देश है।
व्यक्तिगत जीवन में भी
आत्मनिर्भरता सफलता की कुंजी है। यदि हम अपने सपनों को पूरा करने के लिए दूसरों पर
निर्भर रहेंगे, तो जीवन ठहर
जाएगा। एक प्रेरक कथा है-गुरु अपने शिष्य को जंगल में ले जाते हैं और कहते हैं,
“देखो यह पेड़, इसने किसी से नहीं पूछा कि कौन
मुझे सींचेगा। इसने अपने भीतर से ताक़त पाई और खुद बढ़ा। जीवन भी ऐसा ही
है—तुम्हें अपने भीतर की शक्ति पहचाननी होगी।” यह कथा स्पष्ट करती है कि
आत्मनिर्भरता ही सच्चा आत्मसम्मान है।
आज आत्मनिर्भरता केवल
व्यक्ति और राष्ट्र का ही प्रश्न नहीं है, बल्कि वैश्विक अस्तित्व का भी सवाल है। जलवायु परिवर्तन ने यह सिखा दिया
है कि हमें प्रकृति की रक्षा स्वयं करनी होगी। यूक्रेन युद्ध और इज़रायल-हमास
संघर्ष ने दिखाया है कि ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भरता अत्यावश्यक है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के क्षेत्र में भी राष्ट्र
आत्मनिर्भरता की दिशा में काम कर रहे हैं ताकि वे तकनीकी उपनिवेश का शिकार न हों।
हालाँकि आत्मनिर्भरता
जीवन का आदर्श है, लेकिन
इसके भी कुछ व्यावहारिक सीमाएँ हैं। एक अबोध शिशु कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता,
उसे माता-पिता और समाज की देखभाल की आवश्यकता होती है। एक
विद्यार्थी भी केवल आत्मनिर्भर नहीं बन सकता, उसे गुरु के
मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। इसी तरह कोई भी राजा या शासक अकेले शासन नहीं कर
सकता; उसे मंत्रियों, सैनिकों और जनता
के सहयोग की आवश्यकता होती है।
दार्शनिक अरस्तू ने कहा
था “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” इसका अर्थ है कि पूर्ण आत्मनिर्भरता संभव नहीं, बल्कि सापेक्ष आत्मनिर्भरता ही यथार्थ
है। जंगल का भी एक पारिस्थितिक तंत्र है जहाँ वृक्ष, पशु-पक्षी
और जल-धारा मिलकर उसका जीवन संभव करते हैं। यह दिखाता है कि आत्मनिर्भरता का अर्थ
पूर्ण अलगाव नहीं, बल्कि सहयोग के बीच अपनी स्वतंत्रता बनाए
रखना है।
जंगल का संदेश शाश्वत
है। वह दूसरों की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि अपने ही बीजों से नए वृक्षों का निर्माण करता है। यही दर्शन हमें भी
अपनाना चाहिए। दूसरों पर निर्भरता हमें कमजोर बनाती है, जबकि
आत्मनिर्भरता हमें शक्तिशाली और आत्मविश्वासी बनाती है। जैसे जंगल अपनी ऊर्जा और
संतुलन स्वयं पैदा करता है, वैसे ही आज की दुनिया को भी
आत्मनिर्भरता के दर्शन को अपनाना होगा। जैसा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था “विश्वास
उस पक्षी का नाम है जो भोर से पहले अँधेरे में भी प्रकाश देख लेता है।” इसलिए जीवन
का मूलमंत्र यही होना चाहिए “स्वयं अपना दीपक बनो और अपनी राह खुद तैयार करो।”
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