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इतिहास-निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं।
अक्सर यह भ्रम होता है कि इतिहास मनुष्य की रचना है और हम उसे अपनी इच्छा के अनुसार गढ़ते हैं, परंतु सत्य इससे उलट है। इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि वह आधार है जिस पर हमारी सोच, पहचान, समाज, संस्कृति और राजनीतिक ढांचा निर्मित होता है। हमारा वर्तमान अस्तित्व, हमारे निर्णय और हमारे मूल्य अतीत की परतों से निर्मित हैं। इसलिए यह कहना अधिक उचित है कि हम इतिहास-निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं।
“भूतकाल हमारे वर्तमान को गढ़ता है।” हेरोडोटस
भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही दृष्टिकोण इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य अपने समय, समाज और पूर्ववर्ती परिस्थितियों का उत्पाद होता है। चाणक्य, बुद्ध, कबीर, गांधी या आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व अचानक प्रकट नहीं हुए, बल्कि वे अपने युग की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों की उपज थे। गांधी का सत्याग्रह केवल उनके व्यक्तित्व का परिणाम नहीं था, बल्कि सदियों की धार्मिक चेतना, औपनिवेशिक दमन, सामाजिक संघर्ष और आध्यात्मिक परंपरा की परिणति था। गांधी स्वयं स्वीकार करते थे कि व्यक्ति का चिंतन उसके पूर्वजों के अनुभवों और इतिहास की घटनाओं से निर्मित होता है। पाश्चात्य विचारधारा में भी मार्क्स ने इतिहास को आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं द्वारा संचालित माना और हेगेल ने
इसे मानव चेतना का विकास बताया।
भारतीय संस्कृति में वैदिक युग से लेकर आज तक की परंपराओं ने हमारे सोचने और समझने के ढाँचे को आकार दिया है। रामायण और महाभारत केवल कथाएँ नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों और सामाजिक संरचनाओं का निर्माण करनेवाली शक्तियाँ हैं। बौद्ध और भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज की मानसिकता, आस्था और व्यवहार को प्रभावित किया। औपनिवेशिक शासन ने आधुनिक शिक्षा, न्यायिक प्रणाली और प्रशासन की नींव रखी जिसने स्वतंत्र भारत के राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे को दिशा दी। हमारा संविधान, लोकतंत्र और न्याय की अवधारणा इतिहास की ही देन है। यही कारण है कि हम जो सोचते, मानते या करते हैं, उसमें इतिहास की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
इतिहास का प्रभाव केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना पर भी पड़ता है। भारतीय समाज में जातीय संरचना, धार्मिक पहचान, भाषाई विविधता और सामाजिक संघर्ष इतिहास द्वारा निर्मित हैं। रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, भगत सिंह या नेहरू जैसे व्यक्तित्व केवल अपनी प्रतिभा के कारण इतिहास में नहीं आए, बल्कि वे अपने युग की ऐतिहासिक परिस्थितियों की अभिव्यक्ति थे। जिस साहस, विद्रोह और नेतृत्व की हम प्रशंसा करते हैं, वह इतिहास की पृष्ठभूमि में पनपा हुआ था। साहित्य, कला और दर्शन भी इतिहास की उपज हैं। तुलसीदास, कबीर, मीरा, टैगोर जैसे साहित्यकार अपने समय की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से प्रेरित थे। भक्ति आंदोलन असमानता और कट्टरता के विरुद्ध एक ऐतिहासिक प्रतिक्रिया था जिसने भारतीय आत्मचेतना को पुनर्गठित किया।
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इतिहास आधुनिक समाज को भी उतनी ही मजबूती से प्रभावित करता है। दो विश्वयुद्धों ने वैश्विक राजनीति, शांति, मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अवधारणा को जन्म दिया। उपनिवेशवाद के अनुभवों ने स्वतंत्र राष्ट्रों की पहचान, संविधानवाद और कल्याणकारी राज्य की सोच को आकार दिया। आज का राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, नारीवाद, मानवाधिकार आंदोलन और वैश्विक संबंध भी अतीत के संघर्षों की उपज हैं। डिजिटल युग, मीडिया, साहित्य, फिल्में और सोशल नेटवर्क हमारी सोच को उतनी ही दृढ़ता से प्रभावित करते हैं जितना अतीत की घटनाएँ करती हैं। इसीलिए कहा गया है कि वर्तमान इतिहास की संतान है।
हालाँकि यह भी सत्य है कि मनुष्य इतिहास की धारा में रहते हुए उसमें कुछ परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। संयुक्त राष्ट्र का निर्माण, भारतीय संविधान की रचना, मानवाधिकारों की स्वीकृति, उपनिवेशवाद से मुक्ति और सामाजिक सुधार आंदोलनों जैसे उदाहरण बताते हैं कि मनुष्य इतिहास में हस्तक्षेप कर सकता है। परंतु यह हस्तक्षेप भी उन्हीं परिस्थितियों से प्रेरित होता है जो इतिहास ने पहले से निर्मित की होती हैं। व्यक्ति या समाज इतिहास की इच्छा से स्वतंत्र होकर निर्णय नहीं लेते, बल्कि वे उन्हीं अनुभवों, मूल्यों और संदर्भों के आधार पर आगे बढ़ते हैं जिन्हें इतिहास ने प्रदान किया है।
अतः यह बिल्कुल उचित है कि हम इतिहास के निर्माता नहीं, बल्कि इतिहास की उपज हैं। इतिहास केवल अतीत नहीं है, बल्कि वह जीवंत शक्ति है जो हमें आकार देती है। हमारा
ज्ञान, हमारी चेतना, हमारे निर्णय, हमारी राजनीति और हमारा समाज सब इतिहास की परतों से
निर्मित होते हैं। वर्तमान कोई निर्वात में नहीं जन्मता, बल्कि इतिहास की गोद में पलता है। हम चाहे जितना गर्व करें कि हम इतिहास रचते हैं, पर सच्चाई यह है कि इतिहास पहले ही हमें रच चुका
होता है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था “अतीत की धारा में बहते हुए ही हम वर्तमान का निर्माण करते हैं।” यह कथन इस सत्य को पुष्ट करता है कि हमारी पहचान और हमारी चेतना का मूल वर्तमान नहीं, बल्कि वह इतिहास है जिसने हमें आकार दिया। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि “हम इतिहास-निर्माता नहीं हैं, बल्कि हम इतिहास द्वारा निर्मित हैं।”
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