अनकर धन पाबी त अस्सी मोन तोलाबी
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“अनकर धन पाबी तऽ अस्सी मोंन तोलाबी” एक प्रचलित कहावत है, जिसका आशय यह
है कि मनुष्य जब जीवन में मिलने वाली सुविधाओं और संसाधनों के प्रति अत्यधिक आसक्ति
और लोभ रखता है, तब वह अपनी आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं की लालसा में व्यस्त हो जाता है। यह
कहावत केवल आर्थिक भूख का नहीं, बल्कि मानवीय मनोविज्ञान, सामाजिक संरचना, और नैतिक संतुलन
पर गहरा संकेत करती है। मनुष्य की लालसा जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही सामाजिक
असंतुलन, आर्थिक विषमता और संबंधों में स्वार्थ की प्रवृत्ति गहराती जाती है।
मनुष्य की आवश्यकताओं का स्वरूप सीमित है, लेकिन उसकी इच्छाएँ अनंत। यह
मानवीय स्वभाव का ऐसा पक्ष है जो समाज में असमानता, संघर्ष और प्रतिस्पर्धा को जन्म
देता है। महात्मा गांधी ने उचित रूप से कहा था-“धरती सबकी जरूरत पूरी कर सकती
है, पर किसी एक
व्यक्ति का लालच नहीं।” यह विचार स्पष्ट करता है कि लालसा मानव-व्यवहार का
वह पक्ष है, जो समाज को सामूहिक समृद्धि की दिशा से भटका कर स्वार्थ की ओर ले जाता है।
आर्थिक संदर्भ में देखा जाए तो यह कहावत सामाजिक और सरकारी योजनाओं के मनोवैज्ञानिक
प्रभाव को समझने में भी सहायक है। जिन समाजों में सुविधाएँ सीमित या अनियमित रूप से
मिलती हैं, वहाँ लोग वस्तुओं को संग्रहित करने, संचित करने और बुनियादी जरूरतों
से अधिक संसाधनों को हासिल करने की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं। यह केवल सामान्य
गृहस्थों तक सीमित नहीं, बल्कि अधिकारी, व्यापारी, राजनेता और
संसाधन नियंत्रित करने वाले समूहों तक फैला होता है। ऐसे में समाज में संसाधनों का
न्यायोचित वितरण प्रभावित होता है और अवसरों की असमानता बढ़ने लगती है।
बिहार के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने ग्रामीण जीवन के चित्रण में स्पष्ट
कहा है “दुखी और गरीब के सामने भोजन की थाली केवल भोजन नहीं, जीवित रहने
की आशा होती है।” इस पंक्ति में उन परिस्थितियों का संकेत मिलता है जहाँ कमी का भय व्यक्ति को
अनियंत्रित संग्रह और लालसा की ओर ले जाता है।
सामाजिक व्यवहार में यह प्रवृत्ति कई रूपों में दिखाई देती है जैसे-राशन की दुकान
पर ज़रूरत से अधिक खाद्यान्न लेने की चाह, सरकारी लाभों का बार-बार प्राप्त
करने का प्रयास, और यहाँ तक कि दूसरों की हकदारी वाले संसाधनों को हड़पने की ललक। जो व्यक्ति
जितना अधिक पाता है, उसे उतना ही और पाने की इच्छा होती है। यह स्थिति अंततः आंतरिक शांति को क्षीण
कर देती है। इस व्यवहार से समाज में अविश्वास, असंतोष और नैतिकता का ह्रास होता
है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “सुख बाहरी वस्तुओं में नहीं, मन की संतुष्टि
में है।”
राजनीतिक संदर्भ में यह कहावत चुनावी राजनीति के वितरणवादी चरित्र को भी उजागर
करती है। चुनाव के समय कई नेता मुफ्त योजनाओं, वस्तुओं और लाभों के वादों के
माध्यम से जनता को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। इससे लोकतंत्र की दिशा नागरिक
चेतना से हटकर लाभ आधारित मानसिकता पर जा टिकती है। इससे न केवल मतदान के निर्णय बाधित
होते हैं, बल्कि नीति निर्माण भी अल्पकालिक और लोकलुभावन हो जाता है। यह प्रवृत्ति प्रशासनिक
क्षमता और दीर्घकालिक विकास दृष्टि को कमजोर करती है।
आज के समय में बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद ने इस कहावत के अर्थ को और अधिक सजीव
बना दिया है। टीवी, सोशल मीडिया और डिजिटल विज्ञापन निरंतर यह संदेश देते हैं कि जीवन की खुशी वस्तुओं
के अधिकाधिक उपभोग में है। यह प्रचार मनुष्य के व्यवहार को “जरूरत” से “अनावश्यक इच्छाओं” की ओर मोड़
देता है। परिणामस्वरूप, व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति, मानसिक संतुलन
और सामाजिक संबंधों को जोखिम में डाल देता है।
यह कहावत हमें न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि सामूहिक और राष्ट्रीय जीवन
में भी संतुलन और संयम की शिक्षा देती है। समाज को यह समझना आवश्यक है कि संसाधनों
का न्यायोचित उपयोग और साझा जिम्मेदारी ही स्थायी समृद्धि का आधार होते हैं।
सामाजिक जीवन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य आवश्यकताओं और इच्छाओं
के बीच की रेखा समझे, संसाधनों का उचित उपयोग करे और सामूहिक हित को व्यक्तिगत लाभ पर प्राथमिकता
दे। यदि लालच बढ़ता है, तो असंतोष भी उसी गति से बढ़ता है। असंतोष बढ़ता
है तो समाज में संघर्ष, अपराध और अविश्वास पनपता है। इसीलिए यह कहावत केवल
व्यक्ति के स्वभाव की आलोचना नहीं, बल्कि समाज की चेतावनी भी है। महात्मा बुद्ध ने
कहा था- “इच्छाएँ दुःख का मूल हैं।” यह कहावत भी इसी मूलभाव को व्यक्त करती है।
अंततः, “अनकर धन पाबी तऽ अस्सी मोंन तोलाबी” मानव व्यवहार और सामाजिक संरचना
की उस सच्चाई को व्यक्त करती है जिसका समाधान संयम, विवेक और नैतिकता में निहित है।
जब समाज आवश्यकता और लालसा के बीच अंतर पहचान लेता है, तब समृद्धि केवल आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक रूप से भी फलित होती है। इस प्रकार यह कहावत केवल चेतावनी नहीं, एक मार्गदर्शन
है जिसके अनुसार समृद्धि की कुंजी संसाधनों के संग्रह में नहीं, बल्कि संतुलित
उपयोग, समान वितरण और सामूहिक जिम्मेदारी में निहित है।


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