केन्द्र-राज्य संबंध में राज्यपाल की भूमिका
प्रश्न-केन्द्र एवं राज्य के मध्य संबंधों में राज्यपाल अपनी दोहरी भूमिका को निभाता है लेकिन कई बार इस दोहरी भूमिका में होनेवाला असंतुलन ही विवाद का कारण बनता है । चर्चा करें ।
भारत
की संघीय व्यवस्था में केन्द्र एवं राज्यों के मध्य समन्वय सेतु के रूप में
कार्य करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 153
के अनुसार राज्यपाल का प्रावधान किया गया है । भारतीय संविधान
द्वारा संवैधानिक प्रधान के रूप में राज्यपाल को अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका सौपी
गयी है और जो अपनी दोहरी भूमिका का निर्वहन करते हैं ।
राज्य
के संवैधनिक प्रमुख के रूप में।
केन्द्र
सरकार के प्रतिनिधि के रूप में।
उल्लेखनीय
है कि जब राज्यपाल अपनी दोहरी भूमिका के बीच संतुलन बनाए रखता है तो केन्द्र–राज्य
संबंधों में कोई विवाद नहीं होता लेकिन जब इसमें असंतुलन आता है तो वह कई बार
विवाद का कारण बनता है। राज्यपाल की
दोहरी भूमिका तथा उसके तहत किए जानेवाले कार्यों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता
है ।
राज्यपाल की भूमिका
राज्य के संवैधनिक प्रमुख के रूप में।
- कार्यकारी भूमिका- राज्य के सभी निर्णय, महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति राज्यपाल द्वारा।
- न्यायिक भूमिका-अपराध नियंत्रण हेतु उपाय करना,क्षमादान देने की शक्ति,त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में मुख्यमंत्री की नियुक्ति।
केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप
में।
- आपातकालीन भूमिका- संवैधानिक
व्यवस्था फेल/बाधित होने पर राज्य
प्रशासन को संचालित करना।
स्पष्टत:
जब राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में अपने कार्यकारी एवं न्यायिक
कर्तव्यों का निर्वहन करता है तो सामान्यत: केन्द्र-राज्य संबंधों में विवाद
नहीं होता लेकिन जब वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में संवैधानिक कर्तव्यों
के निर्वहन के बजाए केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कर्तव्यों का निर्वहन
करते हैं तो केन्द्र एवं राज्य सरकार के बीच संबंध प्रभावित होने लगते हैं और
स्थिति उस समय और ज्यादा बिगड़ जाती है जब केन्द्र एवं राज्यों में अलग-अलग
दलों की सरकारें हो।
- हाल
ही में महाराष्ट्र, गोवा, तथा उतराखंड में राज्यपाल की जो भूमिका देखी
गयी उससे स्पष्ट होता है कि राज्यपाल के निर्णय संवैधानिक प्रमुख के बजाए केन्द्र
सरकार के प्रतिनिधि के रूप में प्रतीत हो रहे थे ।
- इसी
क्रम में केरल में मंत्रिपरिषद के सलाह को राज्यपाल द्वारा न मानना तथा पिछले
दिनों कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि के राज्यपालों के व्यवहारों
को देखा जाए तो यह राज्यों की राजनीति में केंद्र के अनुचित हस्तक्षेप को बढ़ावा देनेवाला
प्रतीत होत है ।
- विपक्षी
दल द्वारा शासित राज्यों में सरकार भंग करने हेतु राज्यपाल की सलाह पर अनुच्छेद-365 का प्रयोग,
राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार की विशिष्ट नीतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी
करना अन्य कार्य है जो विवाद को जन्म देते हैं ।
निष्कर्ष
भारतीय
संविधान दी गयी व्यवस्था के तहत राज्यपाल नाममात्र का प्रमुख होता है लेकिन जब वह
केन्द्र के एजेंट के रूप में कार्य करता है तो यह भारत की संघीय संरचना और लोकतांत्रिक
प्रणाली के विरुद्ध है।
अत:
भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों तथा प्रक्रियाओं को सुचारू रूप से संचालित करने हेतु
राज्यपाल की दोहरी भूमिका के बीच संतुलन आवश्यक है और इस संदर्भ में सरकारिया
आयोग, पुंछी
आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग तथा समय-समय पर न्यायालय द्वारा
दिए गए निर्णयों के आलोक में आवश्यक कानून बनाने की आवश्यकता है ।
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