प्रश्न- न्यायिक नियुक्तियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त
रखने के क्रम में न्यायपालिका द्वारा कॉलेजियम नामक एक सुरक्षा कवच का विकास किया
गया ? चर्चा
करें
भारतीय
संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका नियंत्रण
एवं संतुलन (Check and Balance) के
सिदधांत पर कार्य करती है और इसके लिए प्रत्येक स्तंभ को एक दूसरे से स्वतंत्रत
रखने की व्यवस्था की गयी है ।
इसी
सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए संविधान में अनुच्छेद 124 (2) द्वारा सर्वोच्च
न्यायालय और 214 द्वारा उच्च न्यायालय को निष्पक्ष, स्वतंत्र एवं राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने रखने संबंधी प्रावधान किए गए । फिर भी ऐसे कई अवसर
आए है जब न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी में राजनीतिक प्रभाव स्पष्ट रूप
से परिलक्षित होता है।
- वर्ष
1973
एवं 1977 में वरिष्ठता के सिद्धांत का उल्लंघन
करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की गयी।
- 1977 में जस्टिस H.R. Khanna सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे जबकि जस्टिस M.H. Beg को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
- 1993 में वी रामास्वामी पर चलाया गया महाभियोग की प्रक्रिया भी कही न कही राजनीति से प्रेरित था।
न्यायाधीशों
की नियुक्ति संबंधी विवाद
हांलाकि
उपरोक्त उदाहरणों में संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में न्यायाधीशों की
नियुक्ति की गयी लेकिन इसमें परामर्श शब्द विवाद का विषय रहा जिसके कारण कार्यपालिका
एवं न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ा और न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप
बढ़ा ।
कार्यपालिका
के न्यायाधीशों की नियुक्ति में बढ़ते हस्तक्षेप और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय
पर अपने निर्णयों के माध्यम से 'परामर्श' शब्द
की दी गयी व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में कॉलेजियम व्यवस्था का विकास हुआ । कॉलेजियम
व्यवस्था के विकास को न्यापालिका के 3 महत्वपूर्ण निर्णयों के माध्यम से समझा जा सकता है जो निम्न है -
कॉलेजियम
का उदय
प्रथम
न्यायाधीश मामले (1982) एस.पी.गुप्ता बनाम भारत संघ 1982
- इसमें दिए गए निर्णय से हांलाकि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया फिर भी कॉलेजियम की पृष्ठभूमि इसके द्वारा बनी ।
द्वितीय
न्यायाधीश मामले (1993)
- इस निर्णय से न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया का संवैधानिक संतुलन पूरी तरह न्यायपालिका के पक्ष में हो गया।
- इस निर्णय के संबंध में न्यायपालिका द्वारा कहा गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का भाग है और इसे सुनिश्चित करने हेतु न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को राजनीति से अलग रखा जाए।
तृतीय
न्यायाधीशों के मामले (1998)
- न्यायालय द्वारा कहा गया कि भारत के मुख्य
न्यायाधीश द्वारा अपनाई जाने वाली परामर्श प्रक्रिया के लिये ‘न्यायाधीशों के सम्मिलित परामर्श’ की आवश्यकता होती
है। इस प्रकार न्यायिक नियुक्ति में कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत होती है।
उल्लेखनीय है कि भारत के मूल संविधान में या
संशोधनों में कॉलेजियम का कोई उल्लेख नहीं है तथा राजीनतिक हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि में 'परामर्श' शब्द की व्याख्या पर उठे प्रश्नों के
संदर्भ में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच उत्पन्न विवाद से न्यायाधीशों की
नियुक्ति में कोलोजिमय की संकल्पना का उदय होता है ।
इसके माध्यम से न्यायपलिका द्वारा न केवल न्यायिक
नियुक्ति के अधिकारों को अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया जाता है बल्कि इसे संविधान
की मूल संरचना से जोड़कर एक सुरक्षा कचव का रूप दिया जाता है जिसे तोड़ने का कार्य केवल न्यायपालिका
ही कर सकती है।
इसी प्रकार से
अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों के मॉडल उत्तर आप नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से देख
सकते हैं
भारतीय संविधानएवं राजव्यवस्था
No comments:
Post a Comment