न्यायिक पुनर्विलोकन
प्रश्न- संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन संबंधी प्रत्यक्ष प्रावधान न होने के बावजूद भी न्यायालय न केवल अपनी इस शक्ति का उपयोग करता है बल्कि इसके माध्यम से दिए गए सिद्धांतों के माध्यम से राज्य एवं नागरिक के मध्य संतुलन स्थापित करने का कार्य भी करता है, विवेचना करें।
किसी विधि की संवैधानिकता की जांच करना न्यायिक पुनर्विलोकन कहलाता है। दूसरे शब्दों में न्यायालय की वह शक्ति जिसके तहत न्यायालय किसी कानून या सरकारी कार्य को जिसे वह विधि अथवा संविधान के विरुद्ध समझता है उसे असंवैधानिक घोषित कर सकें न्यायिक पुनर्विलोकन कहलाता है।
अमेरिका से ली गयी न्यायिक पुनर्विलोकन की अवधारणा भारतीय संविधान में किसी अनुच्छेद में नहीं है ना ही इस शब्द का प्रयोग किया गया है फिर भी संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय को कानून की वैधता की जांच करने की शक्ति प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 13 मौलिक अधिकारों के
संबंध में कानून की संगतता की जांच |
अनुच्छेद 32 तथा 226 मौलिक अधिकारों के
उल्लंघन की स्थिति में रिट जारी करने की शक्ति |
अनुच्छेद 132 संविधान की व्याख्या से
संबंधित प्रश्नों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील |
अनुच्छेद 245 संसद तथा राज्य विधान
मंडल द्वारा बनाई गई विधि संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल होनी चाहिए। |
अनुच्छेद 246 केंद्र या राज्य
विधायिका अपनी सीमा के बाहर यदि कोई कानून बनाते हैं तो न्यायालय कानून को अवैध
घोषित कर सकता है। |
अनुच्छेद 368 संविधान संशोधन की विधि
संगतता की जांच। |
इस प्रकार उपरोक्त संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन संबंधी शक्ति का उपयोग करता है और अपने निर्णयों के माध्यम से विभिन्न सिद्धांत दिए जिसके माध्यम से राज्य एवं नागरिकों के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य किया।
अधित्याग का सिद्धांत
- कोई व्यक्ति जिसे मूल अधिकार प्राप्त है वह उसका त्याग नहीं कर सकता।
पृथक्करणीयता का
सिद्धांत
- यदि विधि का कोई भाग मूल अधिकारों के विरुद्ध है तो वह पूर्णता शून्य नहीं होगी बल्कि उस भाग को शून्य घोषित किया जाएगा जो मूल अधिकारों के विरुद्ध है।
आच्छादन का सिद्धांत
- कोई संविधान एवं विधि मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होगा बल्कि वह निष्क्रिय हो जाती है
विरुद्ध निर्णय का
सिद्धांत
- किसी भी विधि को पूर्व तिथि से लागू नहीं किया जाना चाहिए।
प्रगतिशील निर्वचन का
सिद्धांत
- संविधान का निर्वाचन करते समय सतत परिवर्तनशील सामाजिक एवं कानून संदर्भ का ध्यान रखना होगा।
इस प्रकार उपरोक्त सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में समय समय पर न्यायालय द्वारा अनेक ऐसे निर्णय दिए गए जिसने न केवल सिद्धांतों को मान्यता दी और व्यवहार में लाया बल्कि उसके माध्यम से राज्य एवं नागरिक के मध्य संतुलन स्थापित करने का कार्य भी किया ।
- 1950 में पटना हाई कोर्ट ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम को अनुच्छेद 14 के तहत अवैध बताया।
- गोलकनाथ बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद ऐसी कोई विधि नहीं बना सकती जो मौलिक अधिकारों को कम करती हो अथवा समाप्त करती हो।
- देसी रियासतों की प्रिवीपर्स तथा विशेष अधिकारों को अध्यादेश द्वारा समाप्ति को न्यायालय ने अवैध किया।
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ में विधि की सम्यक प्रक्रिया की संकल्पना को अपनाया गया।
- 2007 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार अप्रैल 1973 के बाद 9वी अनुसूची के प्रावधानों का न्यायिक पुनर्विलोकन हो सकता है।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक ठहराया जाना।
निष्कर्ष
उल्लेखनीय है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया, अनुसूची 9 के प्रावधानों, मूल अधिकारों की सीमाएं, समवर्ती सूची के तहत शक्तियों के विभाजन से न्यायिक पुनर्विलोकन का दायरा सीमित हो गया है फिर भी न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई महत्वपूर्ण सिद्धांत एवं निर्णयों को दिया गया जिसने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक एवं राज्य के मध्य संतुलन स्थापित करने का कार्य किया ।
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