छोटे राज्य बनाम बड़े राज्य
प्रश्न:
स्वतंत्रता के बाद वे कौन से आधार थे जिन्होंने राज्यों के पुनर्गठन में महत्वपूर्ण
भूमिका निभायी ?
छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की मांगों की समीक्षा करते हुए अपने
सुझाव दे कि छोटे राज्यों के गठन में किन बातों को प्राथमिकता दिया जाना बेहतर
होगा ?
स्वतंत्रता के बाद राज्यों के पुनर्गठन में क्या आधार बनाया जाए इस पर देश एकमत नहीं था क्योंकि कांग्रेस ने जहां स्वतंत्रता से पूर्व भाषा के आधार पर राज्य के गठन की बात की थी वहीं नेहरू तथा पटेल जैसे नेता इसके पक्षधर नहीं थे।
अत: इस स्थिति में जहां राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को
सुरक्षित करना था वहीं लोगों की आंकाक्षाओं की भी पूर्ति करनी थी । अत: समकालीन
परिप्रेक्ष्य में ऐसे अनेक आधार थे जिन पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ।
प्रशासनिक सुविधाओं और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता
- 1950 के दशक में प्रशासनिक सुविधाओं और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का पुनर्गठन किया गया। इस क्रम में 1956 में देशी रियासतों को पुनगर्ठित कर प्रशासनिक इकाई के रूप में राज्यों के गठन को प्राथमिकता दी गयी।
भाषायी एवं सांस्कृतिक आधार पर
- इस समय भाषायी एवं सांस्कृतिक आधारों ने भी राज्य के पुनर्गठन
को बल दिया। मद्रास से अलग होकर आन्ध्र प्रदेश, मुम्बई से
गुजरात एवं महाराष्ट्र, पंजाब से हिन्दी भाषी क्षेत्र को अलग
कर हरियाणा का गठन इस का उदाहरण है।
भौगौलिक एवं नृजातीय विशेषता के आधार पर
- भौगौलिक एवं नृजातीय विशेषताओं के साथ आंतरिक सुरक्षा को
ध्यान में रखते हुए 1962 में असम से अलग कर नागालैंड
का गठन हुआ।
- इसके अलावा 1971 में
पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम
द्वारा मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का गठन हुआ।
- 1986 में मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ।
सामाजिक आर्थिक विकास के आधार पर
- उदारीकरण के बाद विभिन्न राज्यों के बीच तथा राज्यों के अंदर बढ़ती सामाजिक आर्थिक विषमताओं ने असंतोष को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप वर्ष 2000 में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा 2014 में तेलंगाना का गठन हुआ।
इस प्रकार उपरोक्त आधारों पर भारत में नए राज्यों का
गठन हुआ । जिनमें कई बड़े तो कई छोटे राज्य है जिसके कारण राज्यों के पुनर्गठन
के क्रम में बड़े राज्य बनाम छोटे राज्य का विवाद भी उठा । भारत में कई बड़े राज्य
है जिनको लेकर नए छोटे राज्यों की मांग उठती रहती है जैसे उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड,
रूहेलखंड, पूर्वांचल तो बिहार में मिथिलांचल,
पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ,
गुजरात में सौराष्ट्र इत्यादि।
छोटे राज्यों की मांग को देखा जाए तो कुछ ऐसे आधार है
जिन पर छोटे राज्य की मांग आए दिन उठती रहती है जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है
- किसी क्षेत्र विशेष की भौगौलिक, सामाजिक संरचना और विशिष्ट नृजातीय पहचान जैसे बाडोलैंड और गोरखालैंड की मांग ।
- भाषागत एवं सांस्कृतिक विशिष्टता जैसे गुजरात एवं महाराष्ठ का गठन एवं मिथिलांचल की गठन की मांग।
- आर्थिक
पिछड़ापन और असंतोष जैसे-
बुंदेलखंड और विदर्भ का पिछड़पन इसके मांग में प्रेरक तत्व है।
- कुछ
छोटे राज्यों जैसे केरल,
हरियाणा, गोवा, पंजाब आदि
में आर्थिक संवृद्धि और मानव विकास अपेक्षाकृत अन्य राज्यों से बेहतर स्थिति में होना
।
- राजनीतिक
हित एवं आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए नए राज्यों की मांग, जैसे तेलंगाना का गठन।
- अधिकांश बड़े राज्य जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार विकास की दौड़ में छोटे राज्यों से पिछड़े हुए हैं जिससे छोटे राज्यों की अवधारणा को बल मिलता है।
छोटे राज्यों के पक्ष में
तर्क
- लोकतंत्र के अनुकूल क्योंकि कम जनसंख्या पर प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है।
- जनता और प्रशासन के बीच निकट एवं प्रभावी संवाद होने से बेहतर प्रशासन।
- जनता
की लोकतांत्रिक संस्थाओं,
न्यायालय तक पहुंच आसान होती है।
- संसाधनों
को अधिकतम विदोहन होने से तीव्र विकास की संभावना।
- आवश्यकतानुसार
योजनाओं का निर्माण, क्रियान्वयन एवं बेहतर प्रबंधन ।
- भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में छोटे राज्य द्वारा सभी के हितों को प्राथमिकता ।
- सांस्कृतिक विविधता के पोषण तथा संरक्षण में अनुकूल ।
छोटे राज्यों के विपक्ष
में
- जनसंख्या, क्षेत्रफल आदि के आधार
पर छोटा होना विकास की गारंटी नहीं है। पूर्वोत्तर के कई राज्य, झारखंड छोटे हैं फिर भी विकास अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ है।
- राज्यों में विकास में कुशल प्रशासन एवं बेहतर संसाधन प्रबंधन महत्वपूर्ण होता है न कि उसका आकार।
- छोटे
राज्य कई बार राजनीतिक अस्थिरता,
क्षेत्रीयता, अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं जैसे
असम से टूट कर पूर्वोत्तर के अनेक राज्य बने फिर भी बोडोलैंड की मांग की जा रही है।
- अलग राज्यों के गठन से लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं होता जब तक स्थानीय स्तर की भागीदारी न हो। आदिवासी हित के नाम पर गठित झारखंड में आज भी आदिवासियों की वही स्थिति है जो पहले थी।
- नए राज्यों का गठन करने पर संपूर्ण प्रशासनिक ढांचा विकसित करना होता है जिससे वित्तीय बोझ बढ़ता है।
- यदि कोई छोटा राज्य आर्थिक संसाधन विहीन होता है तो उसकी निर्भरता केन्द्र की तरफ बढ़ती है जिससे उस राज्य के निर्माण का औचित्य ही समाप्त हो जाता है।
- नए एवं छोटे राज्य के निर्माण से कई प्रकार संसाधनों के वितरण में असंतुलन होने पर विवाद होता है जो उस राज्य के विकास में बाधक होता है तथा राज्यों के संबंध प्रभावित होते हैं।
- छोटे राज्यों का गठन विखंडनकारी शकतियों को बढ़ावा दे सकता है जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश की एकता हेतु उचित नहीं है।
- छोटे राज्य के स्थान पर प्रशासनिक सुविधा हेतु छोटे प्रशासनिक इकाई बनाकर क्षेत्र विकास के कार्य किए जा सकते हैं।
- छोटे राज्य के पीछे विकेन्द्रीकरण की प्रेरणा होती है लेकिन विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य छोटा राज्य नहीं बल्कि स्थानीय जनता की भागीदारी को बढ़ाना तथा महत्व देना है।
छोटे राज्यों के निर्माण
में सुझाव
- वित्तीय
रूप से साध्य एवं प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखा जाए।
- नए
राज्य के पास यथोचित संसाधन
हो तथा मूल राज्य के हित प्रभावित ना हो।
- नवोदित छोटे राज्य में आर्थिक विकास की व्यापक संभावना हो।
- पूर्ण
राज्य निर्माण से पूर्व स्वायत्त क्षेत्र की संभावना, कुछ विशेष अधिकार
देने जैसे विकल्पों पर विचार किया जाए।
- राजनीतिक
लाभ के बजाय एकता, अखंडता तथा विकास को प्राथमिकता दी जाए।
- संवैधानिक दायरे में की जानेवाली मांगों पर ही विचार किया जाए।
निष्कर्ष
भारत
में देखा जाए तो छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के राज्य है और इनका अनुभव मिश्रित रहा
है। महाराष्ट्र और गुजरात के विभाजन के सार्थक परिणाम सामने आए और आज दोनों राज्य विकास
की राह पर अग्रसर है। हरियाणा,
गोवा, पंजाब जैसे राज्यों के गठन के बाद तीव्र
गति से विकास हुआ। इसी प्रकार छत्तीसगढ़, झारखंड एवं उत्तराखंड
का निर्माण हुआ था। इनमें छत्तीसगढ़ तथा उत्तराखंड का परिणाम अच्छा रहा है,
जबकि झारखंड का कमजोर रहा है। उत्तर पूर्वी राज्य भी छोटे राज्य है लेकिन
वहां अपेक्षाकृत विकास नहीं हो पाया है।
निष्कर्षतः
छोटा या बड़ा राज्य होना विकास की गांरटी नहीं है बल्कि
और भी बहुत सारे कारण होते हैं जो इसे प्रभावित करते हैं। अतः
राज्यों के निर्माण में आर्थिक वहनीयता और प्रशासनिक क्षमता को ध्यान में रखा जाना
चाहिए। किसी क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक हितों के संरक्षण हेतु राज्य के अंदर स्वायत्त
क्षेत्र के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है तथा पिछड़े क्षेत्रों को विशेष राहत
पैकेज दिया जा सकता है। अतः यह कहना गलत नहीं है कि नए राज्यों के निर्माण के पूर्व
यथासंभव सभी विकल्पों को आजमाया जाना चाहिए।
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