जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट 2023
बिहार में 7 जनवरी 2023 से
आरंभ हुई दो चरणों में पूरी हुई जाति आधारित गणना के आंकड़े गांधी जयंती के अवसर पर
2 अक्टूबर 2023 को जारी कर दिए गए और इसके साथ ही बिहार आजादी के बाद जाति आधारित
गणना आंकड़े जारी करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है।
उल्लेखनीय है कि आजादी से पूर्व
1931 में इस प्रकार की गणना हुई थी तब बिहार, झारखंड और उड़ीसा एक राज्य थे। हांलाकि वर्ष 2011 में केन्द्र
सरकार ने देश में सामाजिक आर्थिक जनगणना करायी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट जारी नहीं की
गयी थी। 2011 के बाद भारत के 2 राज्यों ने भी जातीय गणना करायी थी लेकिन वह रिपोर्ट
जारी नहीं कर सके। इस प्रकार बिहार आजादी के बाद भारत का पहला राज्य बना जिसने न केवल
जातीय, सामाजिक और आर्थिक
गणना को सफलतापूर्वक किया बल्कि जाति आधारित गणना के आंकड़े भी जारी किए।
उल्लेखनीय है कि 18 फरवरी
2019 बिहार विधानसभा और विधानपरिषद ने जाति आधारित गणना का प्रस्ताव पारित किया था
तथा 04 मई 2023 हाईकोर्ट के आदेश पर इस गणना पर रोक लगी थी। इस मामले के सुप्रीम
कोर्ट पहुंचने पर उसने हाईकोर्ट से सुनवाई करने को कहा जिसके बाद हाईकोर्ट ने 1 अगस्त
2023 को गणना जारी रखने का आदेश दिया।
बिहार के विकास आयुक्त विवेक
कुमार सिंह द्वारा जातीय गणना के आंकड़े जारी करते हुए बताया गया कि इन आंकड़ों
का उपयोग बिहार सरकार समावेशी विकास की नीतियों, विकासोन्मुखी
कार्यक्रम एवं आधारभूत शैक्षणिक सुधार के लिए करेगी। इसके साथ-साथ जरूरतमंदों के
लिए सामाजिक उत्थान एवं आर्थिक सुदृढ़ीकरण सहित अन्य सकारात्मक कार्यों के लिए
किया जा सकेगा।
रिपोर्ट
के मुख्य बिन्दु
- जाति आधारित गणना के तहत आम लोगों की स्वैच्छिक भागीदारी के सिद्धांत को अपनाया गया है। इसमें सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण सहित कुल 13 सूचकों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से समाज के सभी वर्गों के आंकड़े संग्रहित किये गए हैं।
- पहले चरण में जहां मकानों की गिनती हुई वही दूसरे चरण में दूसरे चरण में परिवारों की संख्या, उनके रहन-सहन, आय आदि के आंकड़े जुटाए गए।
- जाति आधारित गणना में राज्य के लगभग तीन लाख कर्मियों को लगाया गया।
- जाति आधारित गणना रिपोर्ट में जातियों की संख्या 214 बतायी गयी है।
- बिहार की आबादी 13 करोड़ 7 लाख हो गयी । इस प्रकार 2011 की जनगणना की तुलना में बिहार की आबादी में 2.66 करोड़ की वृद्धि हुई। सर्वाधिक आबादी यादव (1.86 करोड़) की है। सबसे कम भास्कर जाति की आबादी सिर्फ 37 है।
- बिहार में पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग की आबादी 63% है जबकि अनारक्षित वर्ग (हिंदू एवं मुस्लिमों की कुछ जातियां) कुल आबादी का 15.52%है।
- जाति आधारित गणना के 2022 के आंकड़ों की वर्ष 1931 में हुई गणना से तुलना करने पर यह पता चलता है कि पिछड़ों के अलावा अति पिछड़ा, यादव, दलित एवं मुस्लिमों की आबादी में इजाफा हुआ है। वहीं, सवर्णो की आबादी में कमी आई है।
- 1931 के अनुसार माना जाता था कि बिहार में अति पिछड़े वर्ग की आबादी 33 प्रतिशत है लेकिन इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार की आबादी में अब सबसे ज्यादा 36 प्रतिशत की हिस्सेदारी अति पिछड़ा वर्ग की है।
वर्ष 1931 एवं 2023 के आंकड़ों की तुलना |
||
वर्ग/ जाति |
वर्ष 1931 |
वर्ष 2023 |
अति पिछड़ा
समाज |
33 प्रतिशत |
36.01 प्रतिशत |
यादव (सबसे ज्यादा आबादी) |
10 प्रतिशत |
14.26 प्रतिशत |
अनुसूचित जाति
(दलित) |
14.1 प्रतिशत |
19.65 प्रतिशत |
मुस्लिम |
12.5 प्रतिशत |
17.70 प्रतिशत |
सवर्ण (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और
कायस्थ) |
13 प्रतिशत |
10.56 प्रतिशत |
ब्राह्मण |
4.7 प्रतिशत |
3.65 प्रतिशत |
भूमिहार |
2.9 प्रतिशत |
2.86 प्रतिशत |
राजपूत |
4.2 प्रतिशत |
3.45 प्रतिशत |
कायस्थ |
1.2 प्रतिशत |
0.60 प्रतिशत |
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जाति आधारित गणना पर उच्च न्यायालय
का पक्ष ¶ न्यायालय
का मानना था कि विधायिका के पास कानून बनाने की शक्ति है तो फिर विधायिका द्वारा
जाति आधारित सर्वे करने के लिए सीधे कानून क्यों नहीं बनाया गया और क्यों
दोनों सदनों से जाति आधारित सर्वे प्रस्ताव को पारित करा कैबिनेट से मंजूरी ली
गई। ¶ न्यायालय
ने सर्वे और जनगणना में अंतर बताते हुए कहा कि सर्वे में किसी खास का डाटा
इकट्ठा कर उसका विश्लेषण किया जाता है, जबकि जनगणना में
प्रत्येक व्यक्ति का विवरण इकट्ठा किया जाता है। पटना उच्च न्यायालय ने
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह मौलिक अधिकार से जुड़ा
मामला है। ¶
न्यायालय के अनुसार जाति आधारित सर्वे
एक प्रकार की जनगणना है और जनगणना करने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार के पास
है। राज्य सरकार जाति आधारित सर्वे नहीं करा सकती है |
जाति आधारित जनगणना से लाभ
- इस जनगणना से बिहार के विभिन्न जातियों के लोगों की
संख्या एवं उनकी आर्थिक स्थिति का भी पता लगाना आसान होगा। लोगों की आर्थिक
स्थिति पता चलने से उनके लिए बेहतर योजनाएं, नीतियां बनाने में आसानी
होगी ।
- यह रिपोर्ट सामाजिक न्याय का गणितीय आधार बन सकती है जो भारत राजनीतिक में नए बदलाव लाएगी।
- इसके आधार पर जाति आधारित आर्थिक विश्लेषण एवं नीतियों के निर्धारण में सटीकता एवं सरलता आएगी।
- सामाजिक समानता लाने एवं आरक्षण नीतियों को ज्यादा बेहतर एवं लाभदायी बनाने में सहायक हो सकता है।
- केन्द्र एवं अन्य राज्यों पर भी इस प्रकार की जाति आधारित गणना का दबाव बनेगा।
जाति आधारित जनगणना से हानि
- बिहार में सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से बहुसंख्यकवाद मुखर
हो सकता है जिसके प्रतिरोधस्वरूप आपसी टकराव बढ़ सकता है और जिस जाति की संख्या
कम रहेगी उनकी उपेक्षा,
अत्याचार बढ़ सकते हैं ।
- बिहार राजनीति में जातिवाद एक मुख्य पक्ष है और इससे राजनीति में जातिवाद और ज्यादा बढ़ेगा ।
- बिहार में जातिवाद सदा ही प्रभावी भूमिका में रहा है ऐसे में इससे आपसी मतभेद और बढ़ सकता है।
- राजनेता वोट बैंक, चुनाव जीतने, राजनीतिक उलटफेर के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं।
- भारत तेजी से विकसित देश की श्रेणी में शामिल होने की ओर अग्रसर है अत: ऐसे मुद्दे का दुरुपयोग लोगों को बांटने और देश के विकास में बाधा पहुंचाने का कार्य कर सकते हैं ।
- औपनिवेशिक काल में भी भारत में कई जनगणना हुई जिससे कई बार आपसी टकराहट और तनाव के हालात बने थे।
- जातिगत जनगणना से जातियों के बीच अपनी संख्या के अनुसार आरक्षण लेने की होड़ बढ़ सकती है जिससे सामाजिक विभाजन और गहरा हो सकता है।
बिहार की राजनीति पर प्रभाव
जाति आधारित गणना के 2022 के आंकड़ों की वर्ष 1931 में
हुई गणना से तुलना करने पर यह पता चलता है कि पिछड़ों के अलावा अति पिछड़ा, यादव,
दलित एवं मुस्लिमों की आबादी में इजाफा हुआ है। वहीं, सवर्णो की आबादी में कमी आई है।
1931 के अनुसार माना जाता था कि बिहार में अति पिछड़े वर्ग
की आबादी 33 प्रतिशत है लेकिन इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार की आबादी में अब सबसे ज्यादा
36 प्रतिशत की हिस्सेदारी अति पिछड़ा वर्ग की है।
राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा बिहार में अति पिछड़ा एक
सशक्त समूह है जिनकी अलग अलग पहचान और सियासत में हिस्सेदारी है लेकिन सबसे बड़े
समूह के तौर पर बिहार के बाहर उसकी मान्यता नहीं है। इस गणना के बाद सबसे बड़े वर्ग
के रूप में मान्यता मिलेगी और बिहार की राजनीति में सियासी गणित और गोलबंदी में इनकी
भूमिका बढ़ेगी ।
नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग अति पिछड़ा और महिला
केन्द्रित रही है। इस कारण इन वर्गों के सहयोग से वह जिस भी गठबंधन में रहे उसका
पलड़ा भारी रहा। वर्ष 2005,
2010, 2015 और 2019 के चुनावों के संदर्भ में इसे
और बेहतर समझा जा सकता है।
इसी क्रम में लगभग तीन दशक तक राजद का बड़ा आधार रहे ‘माई’
का भी आकार बढ़कर 32 प्रतिशत का हो गया है जो अति पिछड़ा आबादी से 4 प्रतिशत कम है। स्पष्ट है
चुनाव में वर्ग एवं जाति की राजनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और कइ बार देखा गया
है कि जब जदयू एवं राजद गठबंधन बनाते हैं तो अधिकांश सीटों पर जीत दर्ज करते हैं यानी
ध्रुवीकरण का आधार नेतृत्व की गारंटी भी होता है।
आगे की राह
जाति आधारित गणना के सकारात्मक
एवं नकारात्मक दोनों पहूल है तथा कोशिश की जाए कि इसका उपयोग सामाजिक विकास में किया
जाए। मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद जो हालात बने उससे सबक लेते हुए सरकार को यह
सुनिश्चित करना होगा कि समाज में कोई बिखराव नहीं आए और बिहार जैसे पिछड़े राज्य को
किस प्रकार विकास के मार्ग पर अग्रसर किया जाए इस दिशा में इस रिपोर्ट के आधार पर आगे
बढ़ना बेहतर होगा।
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में जैसे जैसे अपडेट आएगा इस लेख को अपडेट किया जाएगा । अत: वेवसाइट पर बने रहे और
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