भारतीय संविधान की प्रस्तावना-प्रश्न और उत्तर
यहां पर विषयवार प्रश्न तथा उसका संभावित मॉडल उत्तर दिया जा रहा है जिसमें आप आवश्यकतानुसार सुधार कर मौलिकता के साथ एक बेहतर उत्तर लिख सकते है।
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Mains answer writing
1. प्रश्न:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक सिद्धांत का क्या महत्व है?
उत्तर: भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक सिद्धांत का तात्पर्य है कि सर्वोच्च शक्ति
जनता के हाथों में है। भारत में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र अपनाया गया है, जिसे प्रतिनिधि संसदीय प्रणाली कहते
हैं। यहां कार्यकारिणी अपनी नीतियों के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह है।
लोकतंत्र वयस्क मताधिकार, कानून की सर्वोच्चता, सामयिक चुनाव और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आधारित है।
डॉ.
भीमराव अंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया कि राजनीतिक लोकतंत्र तभी स्थाई हो सकता है
जब इसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र हो। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे आदर्श
लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करते हैं। साथ ही, भारतीय
लोकतंत्र केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है; इसमें
सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी शामिल है।
2. प्रश्न: भारतीय संविधान में गणराज्य का क्या
महत्व है?
उत्तर: गणराज्य का तात्पर्य है कि राज्य का प्रमुख
जनता द्वारा चुना जाता है और वह पद वंशानुगत नहीं होता। भारत में राष्ट्रपति का
चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है, जो लोकतंत्र के आदर्शों को दर्शाता
है।
गणराज्य का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें
राजनीतिक संप्रभुता जनता के हाथों में होती है। साथ ही, यहां
विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का कोई स्थान नहीं है, जिससे हर
नागरिक को समान अवसर प्राप्त होते हैं।
गणराज्य की यह अवधारणा न केवल नागरिकों को समान अधिकार
देती है,
बल्कि यह सुनिश्चित करती है कि सार्वजनिक कार्यालय सभी के लिए खुला
रहे। भारत में गणराज्य और लोकतंत्र एक-दूसरे के पूरक हैं।
3. प्रश्न: प्रस्तावना में न्याय का क्या अर्थ है और
इसके तीन स्वरूपों का महत्व क्या है?
उत्तर: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में न्याय का
तात्पर्य है—सामाजिक,
आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं का उन्मूलन।
सामाजिक न्याय: यह जाति, धर्म,
लिंग, रंग आदि के आधार पर भेदभाव को समाप्त कर
हर नागरिक के साथ समान व्यवहार को सुनिश्चित करता है।
आर्थिक न्याय: आय, संपदा
और अवसरों की असमानता को समाप्त करता है और आर्थिक समानता को बढ़ावा देता है।
राजनीतिक न्याय: सभी नागरिकों
को समान राजनीतिक अधिकार देता है, जैसे चुनाव में भाग लेना और सार्वजनिक
कार्यालय में प्रवेश करना।
इन तीनों स्वरूपों का उद्देश्य एक समतामूलक समाज की
स्थापना करना है। ये सिद्धांत भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में प्रस्तुत
करते हैं।
4. प्रश्न : भारतीय संविधान
में धर्मनिरपेक्षता का क्या अर्थ है, और यह किस प्रकार
सुनिश्चित की जाती है?
उत्तर:भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है
कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान महत्व दिया जाएगा। यह भारत
को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाता है, जहाँ धार्मिक स्वतंत्रता
और समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में सुनिश्चित किया गया है।
सुनिश्चित करने के उपाय:
- सभी धर्मों को समान मान्यता और समर्थन।
- सरकार द्वारा किसी धर्म का पक्ष नहीं लेना।
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, जो
किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार
करने की अनुमति देता है।
इस प्रकार संवैधानिक प्रावधानों के माध्ये से भारत
में धर्म के आधार पर भेदभाव समाप्त किया गया है और एक समावेशी समाज की स्थापना को
सुनिश्चित किया गया है।
5. प्रश्न: स्वतंत्रता के सिद्धांत का प्रस्तावना
में क्या महत्व है?
उत्तर: संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता का अर्थ
है व्यक्ति की अभिव्यक्ति,
विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता।
स्वतंत्रता का उद्देश्य नागरिकों को बाधाओं से मुक्त करना और उनके विकास के लिए
अवसर प्रदान करना है।
हालांकि स्वतंत्रता अनियंत्रित नहीं है। इसके लिए
संवैधानिक सीमाएं निर्धारित की गई हैं ताकि समाज में शांति और अनुशासन बना रहे। यह
स्वतंत्रता केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं है, बल्कि समाज के व्यापक हित
को ध्यान में रखती है।
स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आदर्श
एक साथ मिलकर लोकतंत्र को सफल बनाते हैं। ये सिद्धांत फ्रांस की क्रांति से
प्रेरित हैं और भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करते हैं।
6. प्रश्न
: भारतीय संविधान में संप्रभुता का क्या महत्व है, और यह किन विशेषताओं द्वारा प्रकट होता है?
उत्तर:भारतीय
संविधान में संप्रभुता का महत्व यह है कि भारत एक स्वतंत्र और स्वायत्त राष्ट्र है, जो अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का
स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में सक्षम है। संप्रभुता भारत की स्वतंत्र पहचान और
राष्ट्र के रूप में इसकी शक्ति को दर्शाती है।
विशेषताएँ:
- भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है।
- वर्ष 1949 में राष्ट्रमंडल की सदस्यता
स्वीकार करने के बावजूद भारत की संप्रभुता अछूती रही।
- संयुक्त राष्ट्र में भारत की सदस्यता भी इसकी संप्रभुता को सीमित नहीं करती।
- भारत अपनी सीमाओं के किसी हिस्से को विदेशी देशों को हस्तांतरित करने का अधिकार रखता है।
- संप्रभुता का यह आदर्श भारत को एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में स्थापित करता है।
7. प्रश्न: समाजवाद को भारतीय संविधान में किस प्रकार परिभाषित किया गया है, और इसका उद्देश्य क्या है?
उत्तर:भारतीय संविधान में
समाजवाद को 42वें
संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा
गया। यह लोकतांत्रिक समाजवाद का आदर्श अपनाता है, जो
गांधीवाद और मार्क्सवाद का मिश्रण है। इसका उद्देश्य सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों
का सह-अस्तित्व सुनिश्चित करना और समाज में समानता लाना है। भारतीय संविधान में
मौलिक अधिकार एवं नीति निदेशक तत्व में समाजवाद की झलक मिलती है।
उद्देश्य:
- गरीबी, उपेक्षा, बीमारी,
और अवसर की असमानता को समाप्त करना।
- मिश्रित
अर्थव्यवस्था की नीति अपनाना, जहाँ
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र साथ-साथ काम कर सकें।
- नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना।
हालाँकि 1991 की उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने समाजवादी प्रतिरूप को लचीला बनाया है,
फिर भी भारतीय समाजवाद का मूल उद्देश्य समानता और न्याय को बनाए
रखना है।
8. प्रश्न: भारतीय संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व
है, और इसके प्रमुख तत्वों को स्पष्ट करें।
उत्तर: भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान का सार
प्रस्तुत करती है और इसके उद्देश्यों को रेखांकित करती है। यह भारत को संप्रभु, समाजवादी,
धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती
है। इस प्रकार प्रस्तावना संविधान को समझने में महत्वपूर्ण है।
प्रस्तावना के प्रमुख तत्व
प्रस्तावना संविधान की शक्ति का स्रोत "हम भारत
के लोग" को मानती है और न्याय, स्वतंत्रता, समता, और बंधुत्व के उद्देश्यों को सुनिश्चित करने
का वचन देती है। यह 42वें संशोधन के माध्यम से समाजवादी,
धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे मूल्यों को जोड़कर और अधिक व्यापक हो
गई। साथ ही, यह 26 नवंबर, 1949 की तिथि को संविधान लागू होने के रूप में दर्शाती है। प्रस्तावना संविधान
के उद्देश्य और इसकी मूल भावना को स्पष्ट करती है, जो भारतीय
लोकतंत्र की नींव है।
उत्तर:भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में वर्णित आदर्श,
जैसे समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, और गणतंत्र, भारतीय
शासन की प्रकृति को परिभाषित करते हैं। ये आदर्श शासन प्रणाली के मूलभूत
सिद्धांतों को दर्शाते हैं और देश के सामाजिक, आर्थिक,
और राजनीतिक उद्देश्यों की दिशा को स्पष्ट करते हैं।
समाजवाद:
भारतीय
समाजवाद लोकतांत्रिक स्वरूप का है, जहां
सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों का सह-अस्तित्व है। इसका उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक
समानता स्थापित करना है। 1991 में नई आर्थिक नीति के तहत भारत में समाजवाद को
लचीला बनाया गया, लेकिन गरीबी उन्मूलन और असमानता कम करना
इसका प्राथमिक लक्ष्य बना रहा। इससे शासन की नीतियां जनता के कल्याण और समतामूलक
समाज निर्माण पर केंद्रित रहती हैं।
धर्मनिरपेक्षता:
धर्मनिरपेक्षता
भारतीय शासन के एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू को परिभाषित करती है। यह सुनिश्चित करती
है कि राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखा
जाएगा। अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार यह स्पष्ट करता है कि
नागरिक किसी भी धर्म को मानने, पालन
करने, या प्रचारित करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह आदर्श
सामाजिक सद्भाव और सांस्कृतिक विविधता को प्रोत्साहित करता है।
लोकतंत्र:
भारतीय
शासन का लोकतांत्रिक स्वरूप जनता के प्रतिनिधित्व और उनकी सहभागिता को सुनिश्चित
करता है। यह राजनीतिक, सामाजिक,
और आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा को अपनाता है। व्यस्क मताधिकार और
कानून की सर्वोच्चता जैसे पहलू इसे और मजबूत बनाते हैं। इससे शासन प्रणाली में
पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।
गणतंत्र:
गणतंत्र
का तात्पर्य है कि भारत में राष्ट्राध्यक्ष का पद वंशानुगत नहीं, बल्कि निर्वाचित है। यह व्यवस्था
सुनिश्चित करती है कि राजनीतिक संप्रभुता जनता के हाथों में हो। इसके साथ, किसी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति सामाजिक समानता को बढ़ावा
देती है।
भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ये आदर्श शासन की लोकतांत्रिक, समतामूलक, और
धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को परिभाषित करते हैं। ये भारत को एक आधुनिक, समावेशी और प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जहां हर नागरिक को समान अवसर और अधिकार प्राप्त हैं। यह प्रस्तावना न केवल
शासन की दिशा निर्धारित करती है बल्कि यह सुनिश्चित करती है कि सरकार के निर्णय और
नीतियां जनता के व्यापक कल्याण के उद्देश्य से संचालित हों।
उत्तर:भारतीय
संविधान की प्रस्तावना को "संविधान की आत्मा" कहा जाता है, क्योंकि यह संविधान के उद्देश्य,
आदर्शों और स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। प्रस्तावना
में संविधान के प्राधिकार का स्रोत, राज्य के स्वरूप,
और नागरिकों की आकांक्षाओं का उल्लेख है, जो
इसे एक मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत बनाता है।
प्राधिकार का स्रोत और संप्रभुता का परिचायक:
प्रस्तावना
यह स्पष्ट करती है कि भारतीय संविधान का प्राधिकार भारतीय जनता है। यह बताता है कि
भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में स्वतंत्र है। यह
देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करता है।
शासन की प्रकृति का निर्धारण:
प्रस्तावना
भारतीय राज्य को संप्रभु, समाजवादी,
धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, और गणतांत्रिक घोषित करती है। ये विशेषताएं भारतीय शासन प्रणाली के
बुनियादी सिद्धांत हैं और राज्य के चरित्र को परिभाषित करती हैं।
संविधान की व्याख्या में मार्गदर्शक:
प्रस्तावना
संविधान की व्याख्या में न्यायपालिका के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का
भाग माना और इसे संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा घोषित किया।
संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं का प्रतीक:
प्रस्तावना
संविधान निर्माताओं के दृष्टिकोण और आदर्शों को दर्शाती है। यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता,
और बंधुता के आदर्शों को उजागर करती है, जो एक
कल्याणकारी राज्य की नींव हैं। सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने इसे
"दीर्घकालिक सपनों का विचार" कहा है।
संविधान का मूल्यांकन:
प्रस्तावना
संविधान के उद्देश्यों और आदर्शों को समझने और उनका मूल्यांकन करने का उचित स्थान
है। यह न केवल संविधान की आत्मा है, बल्कि
इसे पढ़कर संविधान के हर पहलू का आकलन किया जा सकता है।
प्रस्तावना
में बाध्यकारी शक्तियां न होते हुए भी यह संविधान का सार है। यह न्यायपालिका के
लिए संविधान की व्याख्या का मार्गदर्शक और नागरिकों के लिए प्रेरणास्त्रोत है।
संविधान के उद्देश्यों को समझने और उन्हें लागू करने में प्रस्तावना की भूमिका अहम
है। इस प्रकार इसे "संविधान की आत्मा" कहना पूर्णतः उपयुक्त है।
उत्तर: भारतीय
संविधान की प्रस्तावना का महत्व और इसकी संवैधानिक स्थिति न्यायपालिका के विभिन्न
निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। प्रारंभ में न्यायपालिका ने इसे संविधान का
हिस्सा नहीं माना, लेकिन
केशवानंद भारती वाद (1973) में इसे संविधान का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया,
जिससे इसका संवैधानिक महत्व स्थापित हुआ।
आरंभिक न्यायिक दृष्टिकोण
- ए.के. गोपालन वाद (1950): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का शक्ति-स्रोत नहीं है और इसे सीधे लागू नहीं किया जा सकता।
- बेरूबरी
यूनियन मामला (1960): न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है, लेकिन इसे संविधान की अस्पष्ट
प्रावधानों की व्याख्या के लिए मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
- गोलकनाथ वाद 1967 में भी प्रस्तावना को संवैधानिक व्याख्या में सहायक माना गया ।
आरंभिक न्यायिक दृष्टिकोण में बदलाव
केशवानंद
भारती वाद (1973): इस ऐतिहासिक मामले ने प्रस्तावना के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव
किया और उसकी संवैधानिक स्थिति को सुदृढ़ किया और सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि:
- प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है और इसे अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है।
- हालांकि, संविधान के मूल ढांचे को बदला नहीं जा
सकता।
- प्रस्तावना
न तो विधायिका की शक्ति का स्रोत है और न ही इसे सीमित करती है, लेकिन संविधान की व्याख्या में यह
महत्वपूर्ण मार्गदर्शक है।
- "मूल
ढांचे का सिद्धांत" स्थापित किया गया,
जिसने प्रस्तावना को संविधान के मूल तत्वों का प्रतीक बना दिया।
इस
प्रकार न्यायपालिका के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से न केवल प्रस्तावना को संवैधानिक
स्थिति बढ़ी बल्कि इसका महत्व भी बढ़ा जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है
- इसे संविधान के एक भाग के रूप में स्वीकार गया तथा इसे संविधान के उद्देश्य और आदर्शों को व्यक्त करने वाला दर्पण की संज्ञा दी गयी।
- न्यायिक दृष्टिकोण का प्रभाव यह हुआ कि प्रस्तावना न केवल संविधान के नैतिक और वैचारिक मार्गदर्शक की भूमिका में आया बल्कि केशवानंद भारती मामले के बाद संविधान के मूल ढांचे को स्पष्ट करते हुए इसके इसकी सुरक्षा सुनिश्चित की गयी
- कालांतर में होनवाले विभिन्न न्यायिक व्याख्याओं में मार्गदर्शक का कार्य किया गया।
- न्यायालय के निर्णय के बाद संविधान में विभिन्न शब्दों जैसे समाजवादी, पंथनिरपेक्ष जैसे तत्वों को जोड़ कर संविधान को और जीवंत और गतिशील बनाया गया ।
- मूल ढांचे द्वारा जहां संसद की संविधान संशोधन की शक्ति को सीमित किया गया वहीं संविधान की महत्ता को और सुदृढ़ किया गया।
निष्कर्षत:
कहा जा सकता है "केशवानंद भारती वाद" ने प्रस्तावना को संवैधानिक
दृष्टिकोण में एक निर्णायक स्थान प्रदान किया, जिससे यह न केवल भारतीय शासन प्रणाली
का आदर्श बन गई, बल्कि इसे बदलने के प्रयासों पर भी सीमाएं
लगा दी गईं जैसा कि हाल में आए एक जनहित याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज
कर दिया जो प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द हटाने से संबंधित था।
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