विश्व कल्याण आध्यात्मिक चेतना के बिना असंभव है
आज
का युग विज्ञान,
तकनीक और
भौतिक प्रगति का युग कहा जाता है। मनुष्य ने चंद्रमा पर पैर रखा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता विकसित की, और वैश्विक बाजार का निर्माण किया, लेकिन इसके बावजूद युद्ध, आतंक, नैतिक ह्रास, मानसिक तनाव और सामाजिक विघटन
जैसे संकट भी तेजी से बढ़े हैं। ऐसे में यह विचार अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि
क्या केवल भौतिक विकास से ही विश्व कल्याण संभव है? इसका उत्तर है—नहीं। जब तक मानवता
के भीतर आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं होता, तब तक सच्चे और स्थायी विश्व
कल्याण की कल्पना नहीं की जा सकती।
आध्यात्मिक
चेतना का अर्थ है व्यक्ति का अपनी आत्मा से,
परमात्मा
से, और समस्त सृष्टि से गहरे स्तर पर
जुड़ना। यह चेतना व्यक्ति को केवल शरीर,
जाति, धर्म, या राष्ट्र तक सीमित नहीं रखती, बल्कि उसे सम्पूर्ण मानवता के
प्रति उत्तरदायी बनाती है। यह केवल कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन को एक समग्र, नैतिक और दिव्य अनुभव के रूप में
देखने की दृष्टि है।
महात्मा
गांधी ने कहा था – “अगर हम सच्चा विश्व शांति चाहते हैं, तो हमें बच्चों से आध्यात्मिक
मूल्यों के साथ उनकी शिक्षा की शुरुआत करनी चाहिए।”आध्यात्मिक चेतना विकास व्यक्ति
के शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक पक्षों को
संतुलित करता है। इससे व्यक्ति पूर्णता की ओर अग्रसर होता है, और जब व्यक्ति पूर्ण होता है, तब समाज और राष्ट्र भी विकासशील
और स्थिर होते हैं। इस संदर्भ में ध्यान देना चाहिए कि प्राचीन भारतीय संस्कृति
में भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति को एक साथ देखा गया था।
आज
की भौतिकवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति ने मानव को बाह्य वस्तुओं के पीछे दौड़ने
को विवश कर दिया है। यह दौड़ व्यक्ति को भीतर से खोखला बना रही है, जहाँ न संतोष है, न शांति। भौतिक संसाधनों की
अधिकता के बावजूद तनाव,
अवसाद, ईर्ष्या, हिंसा, युद्ध और पारिवारिक विघटन जैसे
संकट गहराते जा रहे हैं। यह संकेत है कि केवल बाहरी विकास पर्याप्त नहीं है।
“मनुष्य ने विज्ञान से तेज़ी तो पाई है,
लेकिन
दिशा खो दी है।”
आध्यात्मिक
चेतना का सबसे बड़ा प्रभाव व्यक्ति की नैतिकता पर होता है। यह चेतना उसे सही और
गलत की पहचान कराती है,
और वह
केवल अपने लाभ के लिए नहीं,
बल्कि
समाज, प्रकृति और विश्व के कल्याण हेतु
आचरण करता है। यह दृष्टिकोण “सर्वजन सुखाय,
सर्वजन
हिताय” की संस्कृति को पुष्ट करता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – “अपने
कर्तव्यों का पालन इस भाव से करो कि वह सभी के हित में हो।”
जब
व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिक चेतना जागृत होती है, तब वह “वसुधैव कुटुम्बकम्” की
भावना से प्रेरित होकर संपूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है। वह सीमाओं, भेदभाव और स्वार्थ से ऊपर उठकर
प्रेम, सेवा और करुणा के मार्ग पर चलता
है। यह चेतना उसे यह बोध कराती है कि किसी भी एक का कल्याण समग्र मानवता से जुड़ा
हुआ है। यदि मानव आध्यात्मिक चेतना को विकसित कर ले तो आतंकवाद, युद्ध, भुखमरी, असमानता, पर्यावरण संकट जैसी वैश्विक समस्याओं
का समाधान संभव हो सकेगा।
आज
के समय में विश्व जिस प्रकार हिंसा,
आतंक, पर्यावरणीय संकट और मानसिक रोगों
से जूझ रहा है,
वह इस
बात का स्पष्ट संकेत है कि आध्यात्मिक चेतना का अभाव किस प्रकार विनाश का कारण
बनता है। यदि तकनीक और विज्ञान को नैतिक और आध्यात्मिक दिशा न दी जाए, तो वही साधन विनाशकारी बन जाते
हैं। आज के युद्ध और हथियार इसी चेतना-विहीन भौतिकता के उदाहरण हैं। “अगर आत्मा से
शून्य हो,
तो ज्ञान
भी विनाश का कारण बनता है।” – यह आधुनिक युग की सबसे बड़ी सीख है।
आध्यात्मिक
व्यक्ति समाज में प्रेम,
सहिष्णुता, दया, और सेवा की भावना का विस्तार करता
है। वह हर जीव में ईश्वर का अंश देखता है,
जिससे
समाज में भेदभाव,
हिंसा और
शोषण की प्रवृत्तियाँ घटती हैं। आध्यात्मिकता ही वह मूल शक्ति है जो मानव को उसकी
दिव्यता से जोड़ती है और उसे विश्व कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करती है। यह व्यक्ति
को स्वार्थ,
क्रोध, घृणा और भेदभाव से ऊपर उठाकर
करुणा, सेवा, समर्पण और प्रेम की ओर ले जाती
है। जब प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर की दिव्यता को पहचानेगा और अपने कर्मों को
“सर्वजन हिताय” समर्पित करेगा,
तभी एक
शांत, स्थायी, नैतिक और सशक्त विश्व की रचना
संभव होगी। अतः विश्व कल्याण की संपूर्ण और स्थायी कल्पना, आध्यात्मिक चेतना के बिना अधूरी
और असंभव है।
यदि
आज के समय में विश्व कल्याण की सच्ची दिशा खोजनी है, तो वह आध्यात्मिक चेतना में ही
छिपी है। इसके बिना राजनीति भी स्वार्थमयी बन जाती है, शिक्षा केवल रोजगार तक सीमित रह
जाती है, और विज्ञान भी मानवीय मूल्यों से
कटकर केवल तकनीक में सिमट जाता है। “जब तक भीतर दीप नहीं जलेगा, बाहर प्रकाश व्यर्थ है।” – यह
केवल आध्यात्मिकता ही सिखा सकती है।
निष्कर्षतः, स्पष्ट है कि सच्चा और स्थायी
विश्व कल्याण केवल तकनीक,
राजनीति
या धन से नहीं,
बल्कि
आध्यात्मिक चेतना से ही संभव है। जब मानवता अपने भीतर की दिव्यता को पहचानेगी, आत्मा की आवाज सुनेगी, और जीवन को एक नैतिक उत्तरदायित्व
मानेगी, तभी वह विश्व को एक शांत, करुणाशील और समरस स्थान बना
सकेगी। अतः विश्व कल्याण की संपूर्ण और स्थायी कल्पना, आध्यात्मिक चेतना के बिना अधूरी
और असंभव है।
शब्द संख्या 835
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