शिथिल कानून और
व्यवस्था नारी सशक्तीकरण की बाधा है
नारी
सशक्तीकरण एक सभ्य और न्यायपूर्ण राष्ट्र के निर्माण की आधारशिला है परंतु यदि
सशक्तिकरण को संरक्षित करने वाली कानून व्यवस्था ही लचर और उदासीन हो,
तो
यह प्रक्रिया जड़ से बाधित हो जाती है। नारी सशक्तीकरण का अर्थ है – महिलाओं को
उनके जीवन के हर क्षेत्र में समान अधिकार, अवसर
और स्वतंत्रता प्रदान करना ताकि वे सामाजिक, राजनीतिक,
आर्थिक
और शैक्षिक रूप से सशक्त बन सकें। लेकिन जब हम अपने चारों ओर नज़र डालते हैं,
तो
पता चलता है कि नारी सशक्तीकरण शिथिल कानून व्यवस्था के कारण सपना बनकर रह गया
है। शिथिल कानून और व्यवस्था न केवल महिलाओं के आत्मबल को हतोत्साहित करती है,
बल्कि
उनके अधिकारों,
स्वतंत्रता
और गरिमा को भी गंभीर रूप से प्रभावित करती है।
शिथिल
कानून और व्यवस्था उस स्थिति को दर्शाती है जहाँ कानूनी प्रावधान प्रभावी रूप से
लागू नहीं हो पाते, अपराधियों को सजा में देर
होती है,
और
नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पाती। महिलाओं के मामले में यह स्थिति
लैंगिक हिंसा,
कार्यस्थल
पर उत्पीड़न और भेदभाव के विरुद्ध कमजोर संरक्षण को दर्शाती है। जैसे,
भारत
में बलात्कार और घरेलू हिंसा में दोषसिद्धि की कम दर इस शिथिलता का प्रमाण है,
जिससे
महिलाओं में भय और असुरक्षा की भावना पैदा होती है, जो
उनके सशक्तीकरण में बाधक बनती है।
कार्यस्थल
पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध बने कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन न होना उन्हें
कार्यक्षेत्र से बाहर कर देता है तो संपत्ति, तलाक
और घरेलू हिंसा जैसे मामलों में न्याय में विलंब उन्हें आर्थिक व मानसिक रूप से
कमजोर बनाता है। साथ ही, जब
अपराधियों को सजा नहीं मिलती, तो यह
पुरुषवादी सोच को बढ़ावा देता है, जिससे
महिलाओं की गरिमा और समानता को ठेस पहुँचती है। यह केवल भारत की नहीं बल्कि अनेक
देशों में लगभग यही देखने को मिलता है।
महात्मा गांधी ने कहा था, “किसी राष्ट्र की प्रगति का वास्तविक मापदंड यह है कि वहाँ महिलाएँ कितनी सुरक्षित और सशक्त हैं।” यदि इसी मानक से मूल्यांकन करें, तो यह स्पष्ट होता है कि कानून व्यवस्था की कमजोरी महिलाओं को समान अवसर और अधिकार देने में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं की सुरक्षा और विकास के लिए कानून की कमी है। घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम 2005, दहेज निवारण अधिनियम 1961, बालिका शिक्षा अधिनियम, कार्यस्थल महिला यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध एवं समाधान) अधिनियम 2013, निर्भया कांड के बाद भारतीय न्याय संहिता 2023 में बलात्कार हेतु मृत्युदंड की सजा आदि कानून है फिर भी इनका उचित क्रियान्वयन न होने से आज भी महिलाएं असुरक्षित है।
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भारत
जैसे लोकतांत्रिक देश में जहाँ महिलाओं को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं,
वहाँ
आज भी घरेलू हिंसा, बलात्कार,
दहेज
हत्या,
बाल-विवाह
और मानव तस्करी जैसी घटनाएँ रोज़ होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के
अनुसार 2022
में
महिलाओं के खिलाफ 4.45 लाख से अधिक अपराध दर्ज
हुए जो हर 51
मिनट
में एक अपराध को दर्शाता है। जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट फॉर विमेन,
पीस
एंड सिक्योरिटी द्वारा जारी महिला शांति और सुरक्षा सूचकांक 2023 के अनुसार,
महिलाओं
के समावेशन,
न्याय
और सुरक्षा के मामले में भारत 177 देशों में से 128वें स्थान पर है।
महिलाओं
के लिए कानून होने के बावजूद उनका क्रियान्वयन कमजोर होने से महिलाओं के विरुद्ध
अपराध के मामले बढ़े हैं। पुलिस कभी एफआईआर दर्ज करने से बचती है तो कई बार
कानून-निर्माताओं द्वारा ही आपत्तिजनक बयान देना, पीड़िताओं
को दोषी ठहराना या अपराधियों के पक्ष में खड़े होने जैसी घटनाएं सामने आती है। बिहार
में पंचायत से लेकर विधानसभा तक महिलाओं को आरक्षण मिला है,
परंतु
मुखिया पति व्यवस्था, निर्णयन
स्वायत्तता,
सुरक्षा
जैसे मुद्दे व्याप्त है। इसलिए कहा गया है “जहाँ नारी भयमुक्त नहीं,
वहाँ
स्वतंत्रता एक भ्रम है।”
शिथिल
कानून व्यवस्था के कारण महिलाएं वास्तविक रूप में सशक्त नहीं हो पा रही है जिसके
पीछे कई संरचनात्मक और सामाजिक कारण निहित हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी,
पुलिस और न्यायपालिका में
संसाधनों तथा लैंगिक संवेदनशीलता की कमी, विशेषकर
महिला कार्मिकों की न्यून भागीदारी, कानून के
प्रभावी क्रियान्वयन में बाधक है। साथ ही, पितृसत्तात्मक
सामाजिक मानसिकता अपराधों को सामान्य मानकर पीड़िता को ही दोषी ठहराती है।
न्यायिक
प्रक्रिया की जटिलता और मामलों की लंबी प्रतीक्षा से पीड़िताओं का विश्वास टूटता
है और अपराधियों का दुस्साहस बढ़ता है जहां निर्भया कांड जैसे मामलों में भी न्याय
मिलने में वर्षों लगते हैं। अत: इस दिशा
में समाधान हेतु न्यायिक सुधारों जैसे फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना,
यौन
अपराधों में समयबद्ध सुनवाई, पीड़िता
की गुमनामी और सुरक्षा सुनिश्चित करना के साथ साथ पुलिस बल को लैंगिक संवेदनशीलता को
प्रोत्साहित करना होगा। बिहार जैसे राज्यों में महिला पुलिस बल की संख्या बढ़ाना,
थानों
में महिला हेल्प डेस्क की स्थापना, और ‘वन
स्टॉप सेंटर’ जैसे प्रयासों को ज़मीनी स्तर तक फैलाना चाहिए।
कानूनी
प्रयासों के साथ साथ समाजिक मानसिकता में बदलाव भी जरूरी है इसके लिए स्कूल स्तर
से ही लैंगिक समानता, संवैधानिक अधिकार और
महिला-सम्मान को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। मीडिया, सिनेमा
और सोशल मीडिया को भी महिलाओं के प्रति संवेदनशील व्यवहार को बढ़ावा देना होगा। तकनीकी
उपकरणों जैसे— महिला सुरक्षा एप, जीपीएस
ट्रैकिंग,
सीसीटीवी
निगरानी,
आदि
का प्रयोग कर सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
बिहार में ‘मुख्यमंत्री नारी सुरक्षा योजना’ जैसी योजनाओं को ज़मीनी स्तर तक
पहुँचाने के साथ साथ महिला उद्यमिता, शिक्षा
और स्वास्थ्य को जोड़कर सशक्तिकरण को बहुआयामी रूप देना होगा।
निष्कर्षतः
केवल कानून पारित करना पर्याप्त नहीं है क्योंकि जब तक कानून व्यवस्था में दृढ़ता,
संवेदनशीलता
और पारदर्शिता नहीं आएगी, तब तक
नारी सशक्तिकरण अधूरा ही रहेगा। डॉ. आंबेडकर ने कहा था – "एक
राष्ट्र की प्रगति महिलाओं की प्रगति से मापी जानी चाहिए। जब एक महिला प्रगति करती
है तो वह सशक्त बनती है और "एक सशक्त महिला ही सशक्त परिवार,
समाज
और राष्ट्र का निर्माण कर सकती है। अतः आवश्यक है कि हमारे देश की कानून व्यवस्था
इतनी सक्षम हो कि वह प्रत्येक नारी को सुरक्षा, न्याय
और गरिमा का आश्वासन दे सके।
शब्द
संख्या 950
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