जन-सहभागिता विकास एवं
लोकतंत्र का आधार है।
विकास-प्रक्रिया में जन-सहभागिता आज
न केवल नीति निर्धारकों,
समाजशास्त्रियों और योजनाकारों के विमर्श का केंद्र बन चुकी है,
बल्कि यह लोक-जीवन में भी गहराई से स्थान बना रही है। वैश्विक
परिदृश्य में प्रजातांत्रिक चेतना का उभार, समाजवादी
व्यवस्थाओं का ह्रास, और नागरिक संगठनों की बढ़ती सक्रियता
इस बात का प्रमाण हैं कि अब जनता केवल शासित नहीं, बल्कि
सक्रिय भागीदार बनना चाहती है। महात्मा गांधी का यह कथन इस सन्दर्भ में स्मरणीय है
– “जनता के बिना कोई योजना नहीं चल सकती, जैसे समुद्र के बिना लहर नहीं हो सकती।” यही कारण है कि आज विकास की किसी
भी प्रक्रिया को जन-सहभागिता से अलग नहीं देखा जा सकता।
जन-सहभागिता का अभिप्राय है कि लोग
उन समस्त प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लें जो उनके जीवन को प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। यह केवल योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं, बल्कि
उनके निर्माण और निगरानी तक फैला हुआ दायित्व है। जन-सहभागिता का स्वरूप बहुआयामी
है – यह आर्थिक गतिविधियों में, सामाजिक न्याय की स्थापना
में और राजनीतिक निर्णय-निर्माण में समान रूप से आवश्यक है। दार्शनिक दृष्टि से जन-सहभागिता
व्यक्ति को पराश्रित नहीं, बल्कि स्वायत्त बनाती है। जैसा कि
रूसो ने कहा था – “लोकशक्ति ही सच्चे समाज का आधार है।”
जन-सहभागिता कई प्रकार से व्यक्त
होती है – व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में। मतदान, उपभोक्ता
के रूप में चयन, या शिकायत निवारण में सक्रियता व्यक्तिगत
भागीदारी के उदाहरण हैं। सहकारिता आंदोलन, मजदूर संगठन,
महिला सशक्तिकरण समूह सामूहिक सहभागिता के रूप हैं। हाल ही में ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘जल जीवन मिशन’, और ‘हर घर तिरंगा’ जैसी योजनाओं में व्यापक
जन-सहभागिता देखने को मिली, जिसने सिद्ध किया कि यदि
उद्देश्य जनहित में हो और जनता को स्वामित्व का अनुभव कराया जाए, तो सहभागिता स्वाभाविक रूप से आती है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को समृद्ध
करने के साथ साथ विकास को पोषित करती है।
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विकास प्रक्रिया में जन-सहभागिता के
साधन और साध्य दोनों ही जनता है। इसका अर्थ यह है कि विकास जनता की जरूरतों के
अनुरूप होना चाहिए और उसमें शक्ति-संपन्नता भी जनता के हाथों में रहनी चाहिए।
आर्थिक दृष्टि से इसका अर्थ है कि लोग उत्पादन, उपभोग और वितरण प्रक्रियाओं
में सक्रिय हों। सामाजिक दृष्टि से यह धर्म, जाति, लिंग, वर्गभेद से परे सभी को समान अवसर दे। राजनीतिक
दृष्टि से यह शक्ति के विकेंद्रीकरण और निर्णय प्रक्रिया में जनता की भूमिका
सुनिश्चित करे। यह त्रिसूत्री सहभागिता एक-दूसरे की पूरक है और इनमें से किसी का अभाव
विकास को अधूरा बना देता है।
हालाँकि, आज
जन-सहभागिता की राह में कई विसंगतियाँ भी हैं। विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र
विकास कार्यक्रम की हालिया रिपोर्टें बताती हैं कि विश्व की बहुसंख्यक आबादी अभी
भी गरीबी, भुखमरी और असमान अवसरों से जूझ रही है। स्त्रियाँ
अभी भी विधायिकाओं और प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व से वंचित हैं। हाल ही में
भारत में मनरेगा योजना में कुछ स्थानों पर श्रमिकों की सहभागिता केवल नाममात्र रही
क्योंकि बिचौलियों और भ्रष्टाचार ने उस आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को कमजोर किया।
ऐसे उदाहरण दर्शाते हैं कि जन-सहभागिता केवल कागजों पर नहीं, जमीनी हकीकत में होनी चाहिए।
विकास की प्रक्रिया में आशाजनक
पहलुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। शीतयुद्ध के समाप्त होने के बाद वैश्विक शक्ति
संतुलन में आए बदलावों ने विकास को सहयोग का माध्यम बनाया है। पेरिस जलवायु समझौता, जी-20
में भारत की भूमिका, और अंतरराष्ट्रीय सौर
गठबंधन जैसे उदाहरण हैं जहाँ जन-सहभागिता और राष्ट्रों की साझेदारी ने समन्वित
विकास की राह खोली है। इन प्रयासों ने यह स्पष्ट किया है कि विकास को अब समावेशी
और टिकाऊ बनाना आवश्यक है, न कि केवल आर्थिक सूचकांकों का
खेल।जन-सहभागिता व्यक्ति को महज़ साधन नहीं रहने देती बल्कि विकास का साध्य बना
देती है। जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “जब तक लाखों
लोग भूखे और अशिक्षित हैं, तब तक हर आदमी जो समाज को शिक्षित
बनाने की बात करता है, अपराधी है यदि वह अपनी शक्ति को उस
दिशा में नहीं लगाता।” इस दृष्टि से जन-सहभागिता केवल नीति का भाग नहीं, नैतिक अनिवार्यता है।
आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि विकास
के पुराने प्रतिमानों में बदलाव लाया जाए। विकास का उद्देश्य केवल राज्य या सत्ता
का विस्तार न होकर व्यक्ति और समाज की गरिमा का संवर्धन होना चाहिए। इसके लिए
सत्ता के विकेंद्रीकरण,
सामुदायिक संगठनों की भूमिका में वृद्धि, और
नागरिक जागरूकता का विस्तार अनिवार्य है। आज डिजिटल क्रांति के युग में यह कार्य
और सरल हो गया है। मायगव प्लेटफॉर्म, ई-ग्राम स्वराज,
और भीम ऐप जैसे डिजिटल साधनों ने जन-सहभागिता को तकनीकी आधार प्रदान
किया है। अब जरूरत इस बात की है कि इन साधनों के साथ लोकशक्ति को जोड़कर सहभागी
लोकतंत्र को मजबूती दी जाए। जन-सहभागिता
केवल औपचारिकता नहीं बल्कि विकास के आधार, साधन और लक्ष्य –
तीनों ही रूपों में होना चाहिए। बिना जन-सहभागिता के विकास का कोई भी दावा खोखला
है। जैसा कि कहा गया है “विकास वही सार्थक
है जिसमें जनता अपनी आँखों से सपनों को साकार होते देख सके, और
अपने हाथों से अपने भविष्य को गढ़ सके।”
निष्कर्षतः विकास-प्रक्रिया में जन-सहभागिता केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि विकास का प्राणतत्व है। यह वह शक्ति है जो विकास को वास्तविकता का रूप देती है। जब जनता अपने जीवन को प्रभावित करने वाली नीतियों में स्वाभाविक और सशक्त भागीदार बनती है, तभी विकास स्थायी, न्यायसंगत और समावेशी बनता है। जैसा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था – “लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है।” यही विचार विकास के संदर्भ में भी लागू होता है। जब तक जन-सहभागिता सुनिश्चित नहीं होती, तब तक विकास के सारे दावे अधूरे और खोखले रहेंगे। अतः हमें एक ऐसे विकास मॉडल की ओर बढ़ना होगा, जो जनता के स्वाभिमान, स्वावलंबन और शक्ति का सम्मान करे और उसे विकास का सच्चा भागीदार बनाए।
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