सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप
भारतीय संस्कृति
में सत्य को जीवन का सर्वोच्च गुण माना गया है। कबीरदास की अमर वाणी "सांच
बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप" न केवल एक कहावत है, बल्कि
मानव जीवन के नैतिक मूल्यों का सार भी है। यह पंक्ति हमें यह बताती है कि सत्य
सबसे बड़ा तप है और झूठ सबसे बड़ा पाप। आज के भौतिकवादी युग में जब नैतिकता और
अनैतिकता के बीच संघर्ष तीव्र हो चला है, तब यह कहावत और
अधिक प्रासंगिक हो गई है।
मानव जाति अपनी
विवेकशीलता के कारण सृष्टि की अन्य प्रजातियों से भिन्न मानी जाती है।
नैतिकता-अनैतिकता,
सत्य-असत्य का विवेक केवल मानव को प्राप्त है। परंतु आज का मनुष्य
भौतिक प्रगति की दौड़ में नैतिकता और सत्य से दूर होता जा रहा है। आज लोगों में
ज्यादा-से-ज्यादा झूठ बोलना और कम-से-कम समय में आर्थिक एवं भौतिक प्रगति कर लेना
उच्चता का प्रतीक माना जाता है लेकिन इस प्रक्रिया में वह भूल जाता है कि असत्य और
अनैतिकता का मार्ग दीर्घकालीन नहीं होता।
आज समाज में तीव्र
विकास की होड़ ने सत्य और नैतिकता को हाशिये पर धकेल दिया है। आगे बढ़ने की तीव्र
लालसा में लोग सत्य से समझौता करने लगे हैं। झूठ बोलना, धोखा
देना और छल-कपट करना सामान्य हो गया है। आज का व्यक्ति यह भूल गया है कि असत्य का
मार्ग चाहे कितनी ही तेजी से सफलता दिलाए, पर उसका अंत पतन
में ही होता है। इतिहास इसका साक्षी है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक अंतिम रूप से
सत्य की ही विजय हुई है, चाहे सत्य के पक्ष वालों की संख्या
कम ही क्यों न रही हो और चाहे वह कितनी ही कठिनाइयों से क्यों न गुजरे।
वास्तव में सत्य
और असत्य व्यापक अर्थों वाले दो पद हैं जिसके अंदर संसार की दो विपरीत धाराएं
समाहित हैं जिनका अस्तित्व हमेशा बना रहा है और बना रहेगा। जहां सत्य का प्रभाव
सकारात्मक होता है तो वहीं झूठ का नकारात्मक। सत्य आत्मबल, स्वाभिमान
और शांति का मार्ग है। सत्य हमें समाज में सम्मान दिलाता है और आत्मगौरव की
अनुभूति कराता है। इसके विपरीत असत्य भय, आत्मग्लानि और
सामाजिक तिरस्कार का कारण बनता है। असत्य श्रृंखलाबद्ध होता है । एक झूठ को छुपाने
के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं, और अंततः व्यक्ति का नैतिक
पतन हो जाता है।
रामायण में रावण
जैसा विद्वान व्यक्ति असत्य और अधर्म के कारण ही विनष्ट हुआ। महाभारत में धर्मराज
युधिष्ठिर को भी एक अवसर पर अश्वत्थामा के विषय में अर्धसत्य बोलना पड़ा, और
उसके पश्चात वे अपराधबोध से ग्रस्त हो गए। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं
जहां असत्य का अंत बर्बादी में हुआ और सत्य ने ही विजय पाई। महात्मा गांधी का
सत्याग्रह सत्य और नैतिकता की शक्ति का प्रतीक है। उन्होंने सत्य और अहिंसा को
अपना अस्त्र बनाकर ब्रिटिश साम्राज्य को झुका दिया।
आज भी सत्य का
महत्व उतना ही है। उदाहरण स्वरूप बिल क्लिंटन का प्रकरण देखा जा सकता है। उनके
अनैतिक आचरण से अधिक उनकी आलोचना इसलिए हुई क्योंकि उन्होंने न्यायालय में झूठ
बोला। इससे यह सिद्ध होता है कि समाज में असत्य को कभी स्वीकार नहीं किया जाता। प्रत्येक
मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह खुद तो सत्य का अनुपालन करे ही, साथ
ही अपने आसपास ऐसे वातावरण को निर्मित करे कि सभी लोग सत्य के मार्ग के चयन के लिए
ही प्रेरित हों।
आज जब सोशल मीडिया और सूचना तकनीक का युग है, तब झूठ या असत्य देर तक छिप नहीं सकता। उद्योग जगत में जब कोई कंपनी अपने उपभोक्ताओं को धोखा देती है, तो उसकी साख समाप्त हो जाती है। हालिया उदाहरण के रूप में ऐप आधारित निवेश घोटाले, क्रिप्टोकरेंसी घोटाले देखे जा सकते हैं, जहां असत्य के सहारे लोगों को एक बार तो धोखा दिया गया, लेकिन जैसे ही जनता जागरूक हुई, वे साधन असफल हो गए।
"सत्यमेव जयते
नानृतम्" केवल भारत का ही नहीं, संपूर्ण विश्व का आदर्श
वाक्य है। सत्य पर ही सभ्यताओं की नींव टिकी होती है। असत्य चाहे कितनी ही छल-कपट
से सफलता पा ले, पर उसका अंत विनाश होता है। स्वामी
विवेकानन्द का कथन स्मरणीय है "सत्य
एक ऐसा रत्न है जो झूठ के सहारे कभी नहीं चमक सकता।" आज समाज में सत्यप्रियता
का वातावरण बनाना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है।
सत्य का पालन कठिन
अवश्य है,
पर यही धर्म का मार्ग है। हांलाकि आज के युग में सामाजिकता निभाते
हुए हमेशा सत्य का पालन करना कठिन हो गया है। कई बार सत्य बोलना संकट उत्पन्न कर
सकता है, जैसे किसी की मृत्यु की सूचना देते समय परिजनों पर
विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इसी कारण धर्मग्रंथों में कहा गया है — “सत्यं
ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात सत्यमप्रियम्”, अर्थात
सत्य बोलो, प्रिय बोलो, पर अप्रिय सत्य
मत बोलो।
निष्कर्षत:
"सांच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप" केवल एक सूक्ति नहीं, बल्कि
जीवन जीने की दिशा है। सत्य कठिन अवश्य है, पर इसकी विजय
सुनिश्चित है। असत्य का मार्ग चाहे क्षणिक सफलता दिलाए, पर
उसका अंत पतन में होता है। सत्य न केवल आत्मशांति देता है बल्कि समाज में सम्मान
दिलाता है और मानवता का वास्तविक आभूषण बनता है। संसार कर्मभूमि है; इसलिए फल की चिंता किए बिना कर्म करना आवश्यक है — “कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन”। अंततः सफलता वही पाता है जो सत्य मार्ग पर चलता है, जबकि असत्य मार्ग की सफलता क्षणिक होती है। आधुनिक समाज में, जब चारों ओर भौतिकता और तात्कालिक लाभ की अंधी दौड़ लगी है, तब इस कहावत का स्मरण हमें सच्चे जीवन मूल्य अपनाने की प्रेरणा देता है।
यही जीवन की सफलता का मार्ग है ।
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