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Jul 14, 2025

"ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं, बल्कि ज्ञान का भ्रम है।"

"ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञानता नहीं, बल्कि ज्ञान का भ्रम है।"


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ज्ञान मानव जीवन की सबसे मूल्यवान और शक्ति संपन्न संपदा है। यह केवल पुस्तकीय सूचनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि मानवीय चेतना, विवेक और नैतिकता का उजास है, जो मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। परंतु जब यह ज्ञान 'भ्रम' में बदल जाता है—जब व्यक्ति यह मान लेता है कि वह सब कुछ जान चुका है—तब यही ज्ञान उसके आत्मिक और सामाजिक विकास में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। जैसा कि स्टीफन हॉकिंग ने कहा था, “The greatest enemy of knowledge is not ignorance, it is the illusion of knowledge.” आज के सूचना-प्रधान युग में यह वाक्य और अधिक प्रासंगिक हो गया है।

 

ज्ञान दो प्रकार का होता है—सैद्धांतिक और व्यवहारिक । एक ओर पुस्तकें पढ़कर अर्जित सूचनात्मक ज्ञान होता है, वहीं दूसरी ओर अनुभवजन्य ज्ञान होता है जो व्यक्ति को गहराई से परिपक्व करता है। सच्चा ज्ञान वह होता है जो विवेक, समझ, और विनम्रता को जन्म दे। परंतु जब व्यक्ति अपने अधूरे ज्ञान को पूर्ण मान लेता है, तब वही ज्ञान अहंकार और आत्ममुग्धता का रूप धारण कर लेता है। यह स्थिति ‘ज्ञान के भ्रम’ की है, जिसमें व्यक्ति सीखने की प्रक्रिया को छोड़ देता है।

 

ज्ञान का भ्रम एक ऐसी मानसिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति यह मान लेता है कि उसे सब कुछ ज्ञात है। यह भ्रम व्यक्ति की जिज्ञासा को मार देता है और आत्मचिंतन की संभावना को समाप्त कर देता है। यह केवल एक व्यक्तिगत त्रुटि नहीं, बल्कि एक सामाजिक विकृति भी है। आज सोशल मीडिया पर अधूरी जानकारी के साथ लोगों का विशेषज्ञ बन जाना, झूठे तथ्य फैलाना, और दूसरों की बात को अनसुना करना उसी भ्रम का उदाहरण है। चिकित्सा से लेकर इतिहास तक, हर क्षेत्र में यह झूठा बोध आज समाज को भ्रम और ध्रुवीकरण की ओर ले जा रहा है।

 

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ज्ञान का भ्रम समाज के विकास में भी बाधक है। हम GDP, टेक्नोलॉजी और इंफ्रास्ट्रक्चर को देखकर देश के विकास का भ्रम पाल लेते हैं, जबकि उसी देश में बेरोजगारी, भूख, लिंग आधारित हिंसा, और भ्रष्टाचार चरम पर हो सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, भारत को ‘विकासशील’ देश कहा जाता है क्योंकि इसकी जीडीपी लगातार बढ़ रही है। लेकिन यदि हम जमीनी सच्चाइयों पर गौर करें—जैसे सीमावर्ती आतंकवाद, जातीय तनाव, जलवायु आपदाएँ, और शिक्षा तथा स्वास्थ्य का असमान वितरण—तो यह स्पष्ट होता है कि यह केवल तथ्यों के आधार पर निर्मित ज्ञान का भ्रम है।

 

शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं, बल्कि विवेक और विचारशीलता का विकास करना होना चाहिए। एक शिक्षक अगर यह मान ले कि वह सब कुछ जानता है और सीखने की आवश्यकता नहीं है, तो वह केवल एक पाठ्यपुस्तक बनकर रह जाता है, जो जीवन की जीवंतता से कट चुका होता है। दूसरी ओर, एक विनम्र शिक्षक या साधक जो यह स्वीकार करता है कि वह हर दिन कुछ नया सीख सकता है, वह सच्चा ज्ञानी होता है। यही बात अर्जुन के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में भी देखी जाती है, जहाँ अर्जुन को आत्मज्ञान तब मिलता है जब वह अपने अहंकार और पूर्वग्रहों का त्याग करता है।

 

धार्मिक जगत में ज्ञान का भ्रम अनेक विकृतियों को जन्म देता है। धार्मिक ग्रंथों को केवल रट लेना ज्ञान नहीं होता। जब व्यक्ति उनके अर्थ, सन्दर्भ और संदर्भ-प्रसंग को नहीं समझता, तब वह उस ज्ञान का प्रचार नहीं, बल्कि अज्ञान का विस्तार करता है। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, या डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे महापुरुषों ने ग्रंथों को आत्मसात कर व्यवहार में उतारा, तभी वह ज्ञान बन सका। गांधीजी के लिए गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं थी, बल्कि उनके नैतिक और राजनीतिक संघर्ष की प्रेरणा थी। इसी तरह प्रेमचंद ने अपने साहित्य में ग्रामीण भारत की गहराइयों से प्राप्त व्यवहारिक ज्ञान को उकेरा।

 

वर्तमान समय में तकनीकी और सूचना का ज्ञान अक्सर राजनीतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल हो रहा है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर जनमत तैयार करना, धार्मिक ध्रुवीकरण, और भ्रामक वादों के माध्यम से जनसंख्या को प्रभावित करना ज्ञान का दुरुपयोग है। चुनावी राजनीति में यह भ्रम और गहराता है कि सत्ता पक्ष सब जानता है और जनता अज्ञानी है। लेकिन जब जनचेतना जागृत होती है, तब यह भ्रम टूट सकता है और वास्तविक ज्ञान का उदय होता है।

 

अज्ञानता, जहाँ सीखने की संभावना है, वहाँ ज्ञान का भ्रम एक ऐसी स्थिति है, जहाँ सीखना समाप्त हो जाता है। एक अज्ञानी व्यक्ति जिज्ञासु हो सकता है, लेकिन एक भ्रमित ज्ञानी आलोचना, संवाद और आत्मसमीक्षा से दूर रहता है। इसीलिए समाज में अधूरे ज्ञान से अधिक हानिकारक वह अहंकारी ‘ज्ञानी’ है, जो न स्वयं सीखता है, न दूसरों को सीखने देता है।

 

ज्ञान यदि विनम्रता और जिज्ञासा से जुड़ा हो, तो वह मनुष्य को ईश्वरत्व तक पहुँचा सकता है लेकिन वही ज्ञान यदि अहंकार और भ्रम से जुड़ जाए, तो वह विनाशकारी हो जाता है। इसीलिए, हमें चाहिए कि हम ज्ञान को साधन बनाएं, साध्य नहीं। ‘मैं सब कुछ जानता हूँ’ कहने की बजाय ‘मुझे और जानना है’ कहने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में ज्ञानी होता है। कबीरदास के शब्दों में—

"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।"

अतः यह आवश्‍यक है कि हम ज्ञान की विनम्रता को अपनाएं, और भ्रम को त्यागें। यही आत्म-विकास और समाज-विकास की सच्ची दिशा है।



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