विज्ञान, नीति और जीवनशैली का संतुलित समन्वय ही प्रकृति के साथ प्रगति का मार्ग है।
21वीं सदी
में मानव सभ्यता ने अभूतपूर्व तकनीकी और आर्थिक प्रगति की है। स्मार्ट शहर, कृत्रिम
बुद्धिमत्ता,
अंतरिक्ष
अन्वेषण और वैश्विक व्यापार जैसे आयामों ने विकास की नयी परिभाषाएँ रच दी हैं।
किंतु इस चकाचौंध भरे विकास के पीछे एक कड़वा सच छिपा है—प्रकृति से बढ़ती दूरी और
उसके साथ होता अमानवीय व्यवहार। हम भूलते जा रहे हैं कि "प्रकृति केवल संसाधन
नहीं,
जीवन
का मूल स्रोत है।" महात्मा गांधी ने कहा था, “पृथ्वी हर
व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, लेकिन हर
व्यक्ति के लोभ को नहीं।” यह विचार आज के समय में और भी प्रासंगिक हो गया है।
वर्तमान विकास ने
पर्यावरण पर असाधारण दबाव डाला है। वनों की अंधाधुंध कटाई, प्रदूषण, जैव
विविधता में भारी गिरावट, और जलवायु परिवर्तन जैसे संकट मनुष्य
की उसी उन्नति के परिणाम हैं जिस पर वह गर्व करता है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि
जब तक विकास प्रकृति के साथ समन्वय में नहीं होगा, तब तक वह
टिकाऊ नहीं हो सकता।
पर्यावरणीय संकट का
समाधान किसी एक क्षेत्र के प्रयासों से नहीं हो सकता। इसके लिये तीन
स्तंभों—विज्ञान, नीति और जीवनशैली—का संतुलन आवश्यक है।
विज्ञान हमारे समय का दिशा-निर्देशक है। जलवायु मॉडलिंग, जैव
विविधता सूचकांक, प्रदूषण ट्रैकिंग, और उपग्रह
आँकड़ों से हमें पर्यावरणीय खतरों की सटीक पहचान करने में मदद मिलती है। IPCC के मॉडल,
Living Planet Index, GIS तकनीक और Climeworks जैसी
नवाचार कंपनियाँ इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं। भारत में अंतर्राष्ट्रीय
सौर गठबंधन (ISA)
और
जलवायु अनुकूल कृषि तकनीकों का प्रयोग इसी वैज्ञानिक चेतना के उदाहरण हैं।
BPSC सिविल सेवा परीक्षा के लिए अति उपयोगी
बिहार के समसामयिक घटनाओं पर आधारित
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नीति-निर्माण
विज्ञान को सामाजिक व्यवहार में बदलने का माध्यम है। पेरिस समझौता, सतत विकास
लक्ष्य (SDGs),
और
अन्य बहुपक्षीय संधियाँ वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय नीति की रीढ़ हैं। प्लास्टिक
प्रदूषण आज एक वैश्विक संकट है। हर वर्ष लगभग 11 मिलियन टन
प्लास्टिक अपशिष्ट महासागरों में पहुँचता है, जिससे
पारिस्थितिक तंत्र और मानव स्वास्थ्य दोनों पर गंभीर असर पड़ता है। इससे निपटने के
लिये “Refuse,
Reduce, Reuse, Recycle, Rethink” जैसे व्यवहार अपनाने की आवश्यकता है। इसी को
देखते हुए जहां विश्व पर्यावरण दिवस 2025 की थीम "प्लास्टिक
प्रदूषण को हराना” रखा गया
भारत सरकार ने 2008 में
राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना (NAPCC) प्रारंभ की, जिसमें आठ
प्रमुख मिशन शामिल हैं जैसे सौर ऊर्जा मिशन, जल मिशन, हरित भारत
मिशन,
एक
पेड़ मां के नाम जैसे कार्यक्रम आदि। राज्यों द्वारा तैयार की गई पर्यावरण योजनाएँ
स्थानीय स्तर पर अनुकूलन की मिसाल हैं। इस दिशा में बिहार का जल जीवन हरियाली मिशन, कृषि रोड
मैप उल्लेखनीय प्रयास है। भारत का राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन और इलेक्ट्रिक वाहनों
को बढ़ावा देने वाली FAME योजना भी पर्यावरणीय नीति के सशक्त उदाहरण
हैं।
पर्यावरण संरक्षण
की दिशा में व्यक्तिगत जीवनशैली भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज की
उपभोक्तावादी संस्कृति ने अतिउपभोग और अपशिष्ट उत्पादन को बढ़ावा दिया है। फास्ट
फैशन,
इलेक्ट्रॉनिक
कचरा,
अत्यधिक
पैकेजिंग और मांस आधारित आहार कार्बन उत्सर्जन को तीव्र कर रहे हैं। संयुक्त
राष्ट्र के अनुसार, वैश्विक स्तर पर केवल 13.5% ठोस कचरा
ही पुनःचक्रण के योग्य है। इसके विपरीत भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी
द्वारा प्रस्तुत “LiFE (Lifestyle for Environment)” आंदोलन एक
परिवर्तनकारी पहल है, जो छोटे-छोटे व्यक्तिगत प्रयासों के माध्यम
से बड़े बदलाव की बात करता है। “प्रो-प्लैनेट पीपल” की अवधारणा यही
सिखाती है कि जलवायु समाधान केवल सरकारों की जिम्मेदारी नहीं, हर व्यक्ति
का कर्तव्य है।
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शिक्षा और जागरूकता
इस परिवर्तन के मूल हैं। बाल्यकाल से ही यदि बच्चों को पर्यावरणीय नैतिकता सिखाई
जाए,
तो
समाज में दीर्घकालिक परिवर्तन संभव है। स्कूली पाठ्यक्रमों में पर्यावरणीय अध्ययन
का समावेश,
इको-क्लब, हरित
विश्वविद्यालय अभियान, और युवाओं का नेतृत्व—जैसे लिसिप्रिया
कंगुजम,
ग्रेटा
थनबर्ग या भारत के ग्रीन स्टार्ट-अप—नई सोच को जन्म दे रहे हैं। सामुदायिक
प्रयासों जैसे शहरी बागवानी, झील पुनरुद्धार, जीरो वेस्ट
पहलें और पारंपरिक ज्ञान आधारित कृषि प्रणाली ने यह सिद्ध कर दिया है कि समाधान
हमारे आस-पास ही मौजूद हैं।
इस प्रकार विज्ञान, नीति और
जीवनशैली के संतुलित समन्वय के साथ पर्यावरण संरक्षण की दिशा में व्यापक स्तर
पर कार्य किए जा रहे हैं फिर भी कुछ गंभीर चुनौतियाँ सामने हैं जिनमें स्थागत
समन्वय की कमी,
राजनीतिक
इच्छाशक्ति का अभाव, तकनीकी असमानता और आम नागरिकों की उदासीनता
प्रमुख हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम जैसे कानूनों का प्रभाव तब तक सीमित रहेगा
जब तक उन्हें ज़मीनी स्तर पर सख्ती से लागू नहीं किया जाएगा। जन भागीदारी, पारदर्शिता, और
दीर्घकालिक दृष्टिकोण ही इन चुनौतियों से निपटने के उपाय हैं।
प्रसिद्ध
पर्यावरणविद् रचेल कार्सन ने कहा था, “In nature, nothing exists
alone.” अर्थात्
प्रकृति में कुछ भी अकेले अस्तित्व में नहीं रहता। यही बात मानव समाज पर भी लागू
होती है। जब तक विज्ञान जोखिमों की पहचान करता रहेगा, नीति
उन्हें व्यवहार में लागू करेगी और जीवनशैली उन्हें अपनाएगी तभी हम सच्चे अर्थों
में सतत विकास की ओर बढ़ सकते हैं।
निष्कर्षतः, आज जब
पर्यावरणीय संकट वैश्विक अस्तित्व के सामने चुनौती बन चुके हैं, तब यह
स्वीकार करना ही होगा कि प्रकृति के बिना कोई भी प्रगति पूरी नहीं हो सकती।
विज्ञान,
नीति
और जीवनशैली के त्रिकोणीय संतुलन से ही हम इस संकट से उबर सकते हैं। सच्चा विकास
वही है जो प्रकृति के साथ कदम मिलाकर चले, न कि उसके
विरुद्ध। इस संतुलन को अपनाना ही हमारे और आने वाली पीढ़ियों के लिये एक सुरक्षित, संवहनीय और
समृद्ध भविष्य की कुंजी है।
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