"भ्रष्टाचार को केवल दंड से नहीं, बल्कि नैतिक मानसिकता के परिवर्तन से ही रोका जा सकता है।"
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भ्रष्टाचार किसी भी लोकतांत्रिक
व्यवस्था और सामाजिक संरचना के लिए दीमक की तरह है। यह न केवल आर्थिक विकास को
बाधित करता है,
बल्कि
न्याय,
समान
अवसर और पारदर्शिता जैसी संवैधानिक मूल्यों की नींव को भी कमजोर करता है। संयुक्त
राष्ट्र के अनुसार, वैश्विक स्तर पर हर वर्ष लगभग 2.6 ट्रिलियन
अमेरिकी डॉलर भ्रष्टाचार के कारण नष्ट हो जाते हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में
तो यह समस्या और गहरी है क्योंकि यहाँ भ्रष्टाचार केवल बड़े घोटालों तक सीमित नहीं, बल्कि
रोज़मर्रा की छोटी रिश्वतखोरी से लेकर चुनावी राजनीति तक फैला हुआ है।
सामान्यतः समाधान के रूप में कड़े कानून, दंड और सतर्कता उपायों को प्रमुखता दी जाती है। किंतु अनुभव यह बताता है कि केवल कानूनी दंड भ्रष्टाचार का स्थायी समाधान नहीं है। असली परिवर्तन तभी संभव है जब समाज और प्रशासन में नैतिक दृष्टिकोण की जड़ें गहरी हों। महात्मा गांधी ने कहा था
“ईमानदारी
बिना किसी बाहरी दबाव के भीतर से आने वाली शक्ति है; भ्रष्टाचार
केवल तब तक जीवित है जब तक नैतिकता सो रही है।”
भ्रष्टाचार से निपटने के लिए भारत समेत कई देशों ने कई कानून बनाए हैं, जैसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013, और केंद्रीय सतर्कता आयोग। इन संस्थाओं का मुख्य कार्य भ्रष्टाचार पकड़ना है। लेकिन ये उपाय अधिकतर प्रतिक्रियात्मक हैं, निवारक नहीं। इस संबंध में अरस्तू का कथन प्रासंगिक है कि
“क़ानून
अच्छे आचरण को मजबूर कर सकता है, लेकिन सच्चे नागरिक
वही हैं जिनका चरित्र स्वयं नैतिक है।”
भय-आधारित अनुपालन अक्सर अस्थायी
साबित होता है। उदाहरण के लिए, सीसीटीवी कैमरे या छापे रिश्वतखोरी
को रोक सकते हैं, लेकिन जैसे ही निगरानी खत्म होती है, वही
प्रवृत्ति वापस लौट आती है। कानूनी प्रक्रिया लंबी और जटिल होने से उच्च-प्रोफ़ाइल
घोटालों में न्यायिक प्रक्रिया वर्षों तक खिंचती रहती है जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश
लगाने का प्रयास असफल हो जाता है।
भ्रष्टाचार का सामाजिक स्वीकार्यकरण
भी बड़ी चुनौती है। अक्सर नागरिक छोटी-छोटी रिश्वत देकर या "एडजस्ट कर
लो" कहकर इसे सामान्य बना देते हैं। ऐसे में स्पष्ट हो जाता है कि कानूनी
उपाय केवल लक्षणों का इलाज करते हैं, परंतु बीमारी की
जड़ व्यक्ति और समाज की मानसिकता को बदल नहीं पाते।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था
कि “मानव
चरित्र ही सब कुछ है। यदि चरित्र में शुद्धता है तो भ्रष्टाचार पनप ही नहीं सकता।”
यदि इस कथन का सार समझे तो स्पष्ट होता है कि भ्रष्टाचार के
विरुद्ध स्थायी संघर्ष का केंद्र बिंदु आंतरिक नैतिकता है। जब व्यक्ति और संस्थाएँ
अपने मूल्यों के अनुसार आचरण करती हैं, तब ईमानदारी
स्वाभाविक रूप से उनके व्यवहार का हिस्सा बन जाती है।
कई बार कानून अस्पष्ट होते हैं और हर परिस्थिति को स्पष्ट रूप से नहीं ढक पाते। ऐसे समय में नैतिक मानसिकता ही सही और ईमानदार निर्णय लेने में मार्गदर्शन करती है। दंड केवल भय पैदा करता है, जबकि नैतिकता विश्वास और आत्म-सम्मान को बढ़ाती है।
जब प्रशासन और नागरिक दोनों ही नैतिक
आचरण अपनाते हैं, तो समाज में विश्वास और सहयोग की संस्कृति
विकसित होती है। यही स्थायी सुधार का मूल आधार है कानून केवल दिशा दिखा सकते हैं, लेकिन
परिवर्तन तब ही गहरा और स्थायी होता है जब मनोवृत्ति और नैतिक मूल्यों को सुधार
दिया जाए।
लोक सेवकों को केवल कानून की समझ नहीं, बल्कि नैतिक दुविधाओं से निपटने की क्षमता भी होनी चाहिए। इसके लिए कई उपाय महत्वपूर्ण हैं। प्रारंभिक कैरियर में नैतिकता प्रशिक्षण बेहद जरूरी है। नौकरशाही को केवल नियम और कानून नहीं, बल्कि गांधीवादी सिद्धांत, सत्यनिष्ठा और वास्तविक जीवन की केस स्टडी के माध्यम से नैतिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इससे वे जटिल परिस्थितियों में सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित कर सकते हैं। इसके साथ ही आदर्श उदाहरण और नैतिक नेतृत्व का महत्व भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। वरिष्ठ अधिकारियों का आचरण अधीनस्थों के लिए मार्गदर्शन का काम करता है। टी.एन. शेषन ने चुनाव आयोग में विश्वसनीयता स्थापित करके यह सिद्ध किया कि नेतृत्व केवल दिशा निर्देश नहीं, बल्कि मूल्य और नैतिकता का प्रदर्शन भी है।
नैतिक आचरण को पुरस्कृत करना भी
आवश्यक है। प्रशासनिक मूल्यांकन में केवल दक्षता को नहीं, बल्कि
ईमानदारी और पारदर्शिता को भी शामिल किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री पुरस्कार जैसे
नवाचार और पारदर्शिता के लिए दिए जाने वाले सम्मान इसी दिशा में योगदान करते हैं।
साथ ही,
गांधीवादी
ट्रस्टीशिप की भावना अपनाना लोक सेवकों के लिए अनिवार्य है। उन्हें स्वयं को जनता
के संसाधनों का संरक्षक मानना चाहिए, स्वामी नहीं। यह
मानसिकता भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
कन्फ्यूशियस ने कहा
था कि “अगर किसी
देश को महान बनाना है तो सबसे पहले उसके नागरिकों के दिल में नैतिकता के बीज बोने होगे।”
इस कथन का तात्पर्य यह है कि कोई देश तभी महान बनता है जब उस देश के नागरिकों
में नैतिक चेतना होती है। नागरिकों में इसके लिए मूल्य-आधारित शिक्षा की आवश्यकता
है। विद्यालयों में सक्रिय नागरिकता, सत्यनिष्ठा और
सामाजिक जिम्मेदारी पर जोर देना चाहिए, ताकि बच्चे छोटे
स्तर से ही नैतिक आचरण सीखें।
हालिया अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो भ्रष्टाचार की गंभीरता और उसके नैतिक समाधान की आवश्यकता स्पष्ट होती है। बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन, श्रीलंका का आर्थिक संकट, नेपाल का हालिया जनआंदोलन ने दिखाया कि लोकतांत्रिक संस्थाएँ मजबूत होने के बावजूद नैतिक आधार की कमी भ्रष्टाचार को पनपने देती है। जनता ने सड़कों पर आंदोलन कर यह संदेश दिया कि भ्रष्टाचार केवल प्रशासनिक समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व का प्रश्न बन सकता है।
भारत में कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला, दिल्ली की
शराब नीति विवाद और पश्चिम बंगाल शिक्षक भर्ती घोटाले जैसी घटनाओं ने यह स्पष्ट
किया कि भ्रष्टाचार लोकतंत्र और विकास दोनों को कमजोर करता है। ट्रांसपेरेंसी
इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार बोध सूचकांक में भारत 2024 में 96वें स्थान
पर रहा,
जो
स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।
यदि लोक सेवकों में नैतिक सुधार और
नागरिकों में नैतिक चेतना होगी तो ऐसी स्थिति नहीं आती क्योंकि हमने देखा है कि भ्रष्टाचार
के स्थायी समाधान हेतु केवल कानून और दंड पर्याप्त नहीं हैं यदि ऐसा होता तो हर देश
में भ्रष्टाचार रोकने हेतु कानून होने के बावजूद वहां ऐसी घटनाएं नहीं रूक पा रही
है। अत: इसके समाधान के लिए आचरण, नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों
पर ध्यान देना होगा।
वैश्विक ऐसे अनेक उदाहरण
है जो हमें बताते हैं कि किस प्रकार से कानून एवं नैतिकता के समन्वय ने भ्रष्टाचार
पर अंकुश लगाया। सिंगापुर
मॉडल को देखा जाए तो वहाँ पारदर्शी प्रशासन और कठोर कानून के साथ-साथ
नैतिकता-आधारित प्रशिक्षण ने भ्रष्टाचार को लगभग समाप्त कर दिया। इसी में स्कैंडिनेवियाई
देश में नागरिक शिक्षा, सामाजिक समानता और पारदर्शिता ने
ईमानदारी की संस्कृति को जन्म दिया। भारत तथा अन्य देश भी इससे सीख सकते है कि केवल
दंडात्मक उपाय पर्याप्त नहीं हैं बल्कि सामाजिक मूल्य, शिक्षा और
नैतिक नेतृत्व की स्थापना ही स्थायी समाधान है।
निष्कर्षत: भ्रष्टाचार से लड़ाई केवल अदालतों और सतर्कता आयोगों में नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक और लोक सेवक की अंतरात्मा में भी लड़ी जानी चाहिए। दंडात्मक उपाय भय पैदा कर सकते हैं, लेकिन नैतिकता स्थायी विश्वास और आचरण गढ़ती है।
गांधीजी ने कहा था— “आप वह परिवर्तन
बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।” यही भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष का
मूलमंत्र होना चाहिए। जब लोक सेवक स्वयं को जनता का ट्रस्टी मानें और नागरिक
ईमानदारी को स्वाभाविक आदत बना लें, तब ही भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त होगा
और सच्चे अर्थों में सुशासन और सतत विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।
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