भारतीय संविधान का मूल ढांचा
प्रश्न- भारतीय संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के प्रतिपादन में न्यायालय
की भूमिका पर चर्चा करें तथा बताए कि किस प्रकार इस अवधारणा ने संविधान संशोधन की
कठोरता एवं नम्यनता के संतुलन को पुष्ट करने का कार्य किया ?
संविधान में निहित ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान जो संविधान और भारत के
राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक आदर्शों को व्यक्त करता है तथा इनमें किसी प्रकार का
नकारात्मक बदलाव संविधान को आधारहीन/सारहीन बना देगा संविधान का मूल ढांचा कहलाता है।
संविधान में मूल ढांचे को कहीं पर स्पष्ट रूप से परिभषित नहीं किया
गया है तथा मूल ढांचा न्यायपालिका द्वारा दिया गया न्यायिक सिद्धांत है जो भारतीय
संविधान के मूल ढांचे को स्पष्ट करता है तथा इस ढांचे को संसद संविधान संशोधन के
द्वारा नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकते यदि ऐसा किया जाता है तो वह कानूनी रूप से
निष्प्रभावी होगा।
“संविधान के मूल ढाँचे की धारणा” एवं न्यायालय की भूमिका
1975-76 की राजनीतिक स्थिति पर में जब लोकतंत्र पर सवाल
उठने लगे तथा संसद की सर्वोच्चता को स्थापित कर संविधान के संतुलित मूल संरचना को
बिगाड़ने का कार्य किया गया तो सर्वोच्च न्यायालय इसकी संरक्षक की भूमिका में आया
और सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि संसद पर अनुचित प्रभाव और नियंत्रण स्थापित कर
संसद की सर्वोच्चता के नाम पर शासक वर्ग संविधान के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं।
अतः शासन की इस शक्ति पर रोक लगाने के लिए “संविधान के मूल
ढाँचे की धारणा” को अपनाया जाना चाहिए। इसके बाद उच्चतम
न्यायालय द्वारा समय समय पर अनेक वादों के माध्यम से इस सिद्धांत को और पुष्ट किया
गया। उल्लेखनीय है कि “संविधान के मूल ढाँचे की धारणा”
के विकास में केशवानन्द
भारती बनाम केरल राज्य
1973 में लिया गया निर्णय अति महत्वपूर्ण् माना जाता है ।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस वाद की सुनवाई
के क्रम में निर्णय दिया गया कि “संसद
अनुच्छेद 368 के तहत मौलिक
अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग को संशोधित या सीमित कर सकती है,
किन्तु
संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।”
इस वाद में न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय ने संविधान
के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है
- संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गई।
- यह संविधान के किसी या सभी भागों के संपूर्ण संशोधन (निर्धारित सीमाओं के अंदर ) की अनुमति देता है।
- संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्त्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फ़ैसला अंतिम होगा।
संविधान के मूल ढाँचे की धारणा एवं संवैधानिक संतुलन
सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा केशवानंद मामले में दिए गए निर्णय के बाद के दशकों में संविधान की सभी
व्याख्याएँ इसको ध्यान में रखकर की गयी जिनमें इंदिरा
गाँधी मामला- न्यायिक समीक्षा तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, मिनर्वा मिल्स मामला- न्यायिक
समीक्षा, मौलिक अधिकारों तथा नीति निर्देशक सिद्धांतों के
बीच संतुलन, भामसिंह जी मामला -कल्याणकारी
राज्य की अवधारणा, इंदिरा साहिनी मामला महत्वपूण है ।
इस
प्रकार न्यायपालिका द्वारा मूल ढांचे के सिद्धांत से भारतीय लोकतंत्र व्यवस्था के
मूल स्वरूप को गारंटी
मिली तथा संसद के मनमाने ढंग से संविधान संशोधन की प्रवृत्ति पर
अंकुश लगी। संविधान के कुछ हिस्सों को संशोधन के दायरे से बाहर रखने और उसके कुछ
हिस्सों को संशोधन प्रक्रिया के अंतर्गत लाने से कठोरता और लचीलेपन का संतुलन
निश्चय ही पुष्ट हुआ है।
प्रश्न - संविधान के मूल ढांचे के महत्व को
स्पष्ट करें तथा बताए कि भारतीय संविधान में मूल ढांचे के निर्धारण में कौन कौन
सी बातें महत्वपूर्ण मानी जाती है?
संविधान में निहित ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान जो संविधान और भारत के
राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक आदर्शों को व्यक्त करता है तथा इनमें किसी प्रकार का
नकारात्मक बदलाव संविधान को आधारहीन/सारहीन बना देगा संविधान का मूल ढांचा कहलाता है।
मूल संरचना का सिद्धांत स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है।
संविधान में इस अवधारणा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक
व्याख्याओं से जन्मा है। विगत तीन दशकों के दौरान बुनियादी संरचना के सिद्धांत को
व्यापक स्वीकृति मिली है जिसके महत्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
- इस सिद्धांत द्वारा भारतीय संविधान निर्माताओं के आदर्शों, दर्शन को सुरक्षित
करने का प्रयास किया गया।
- संविधान के मूल स्वरूप को अमरत्व जैसी स्थिति प्रदान करने में सहायक।
- भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं जनमानस के विकास हेतु अति आवश्यक।
- मूल ढांचे संबंधी प्रावधानों को संविधान में संशोधन के द्वारा भी
नहीं हटाया जा सकता।
- संविधान संशोधन की संसद की असीमित शक्ति पर रोक लगी।
- मूल ढांचे संबंधी प्रावधानों द्वारा सरकार के मनमानी पर नियंत्रण की व्यवस्था।
- अपरिभाषित और निराकार स्वरूप जिसका विकास न्यायपालिका द्वारा दिए गए विभिन्न निर्णयों से हुआ।
- न्यायपालिका संविधान संरक्षक के रूप में मजबूती से स्थापित हुई।
- इसके द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे को विस्तार मिला।
- नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में सहयोगी।
- भारतीय लोकतंत्र के तीनों अंगों के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य।
इस सिद्धांत ने संविधान की नींव को मजबूत किया है तथा भविष्य में होने
वाले किसी भी ऐसे संशोधन को न्यायालय द्वारा अमान्य किया जा सकता है जो इसकी मूल संरचना
के विरुद्ध हो।
संविधान में मूल ढांचे को कहीं पर स्पष्ट रूप से परिभषित नहीं किया
गया है तथा मूल ढांचा न्यायपालिका द्वारा दिया गया न्यायिक सिद्धांत है जो भारतीय
संविधान के मूल ढांचे को स्पष्ट करता है। यह
एक एक गतिशील सिद्धांत है जो न्यायालय की व्याख्या तथा निर्णय के आधार पर स्वरूप
ग्रहण करता है जिसमें निम्नलिखित बातें अवश्य आनी चाहिए।
- संविधान की सर्वोच्चता
- शक्तियों का पृथक्करण
- संविधान का
लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष स्वरूप।
- भारत की संघीय संरचना
- भारतीय संसदीय प्रणाली
- मौलिक अधिकार एवं नीति निदेशक तत्व के बीच संतुलन
- व्यस्क मताधिकार पर आधारित स्वतंत्र चुनाव ।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता ।
उल्लेखनीय है कि संविधान में आधारभूत अवसंरचना को स्पष्ट नहीं किये
जाने के कारण इसका निर्धारण न्यायपालिका पर निर्भर है और न्यायपालिका ने अपने विभिन्न
निर्णयों में आधारभूत ढाँचे को महत्त्व प्रदान करते हुए कई महत्त्वपूर्ण
प्रावधानों को संविधान के आधारभूत ढाँचे का भाग बताया गया।
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