प्रश्न- भारत में विभिन्न दलों द्वारा किए जानेवाले लोकलुभावन वादे राज्यों की वित्तीय एवं शासकीय स्थिति किस प्रकार प्रभावित करते हैं। इन लोकलुभावनवादों पर नियंत्रण के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे।
उत्तर-राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए घोषणा-पत्र में कई बार जनता की समस्याओं को दूर करने एवं चर्चित मुद्दों को भुनाने के लिए लोकलुभावन वादे किए जाते हैं । न्यू पेंशन से पुरानी पेंशन की ओर जाना, मुफ्त बिजली-पानी की सुविधा, ऋण माफी, मुफ्त सामान वितरण, भारी संख्या में सरकारी नौकरी आदि जैसी घोषणाएं इसी प्रकार के लोकलुभावन वादे हैं ।
लोकलुभावन वादे का उद्देश्य जनकल्याण होता है लेकिन बिना किसी योजना, आर्थिक क्षमता आकलन के ऐसी घोषणाएं को लागू करने में समस्या आती है। इसी को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जहां ऐसी घोषणाओं को रेवड़ी की संज्ञा दी वहीं भारतीय रिवर्ज बैंक ने इस पर रोक लगाने की बात कही।
हांलाकि लोकलुभावन वादे का उद्देश्य जनता की समस्याओं को दूर करना होता है लेकिन राज्यों द्वारा अपनी क्षमताओं को ध्यान में रखे बिना ऐसी घोषणाओं के किए जाने से ये वित्तीय एवं शासकीय स्थिति को प्रभावित करते हैं जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
वित्तीय प्रभाव
- राज्यों का औसत ऋण-जीडीपी अनुपात में वृद्धि से राजकोषीय असंतुलन
- मुफ्त बिजली, ऋण माफी आदि सब्सिडी से राजकोषीय घाटा में वृद्धि ।
- राज्यों के कर राजस्व एवं लोकलुभावन व्यय में सामंजस्य की कमी से केंद्र सरकार पर निर्भरता ।
- मूल्य नियंत्रण एवं संरक्षणवादी उपायों जैसी लोकलुभावन नीतियों द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में गिरावट
- लोकलुभावन नीतियां द्वारा सरकारी व्यय में वृद्धि के बावजूद कोई उल्लेखनीय रोज़गार सृजन नहीं होना।
नोट- यदि आंकड़ा याद हो तो परीक्षा में लिख सकते हैं नहीं तो उपरोक्त के अनुसार भी लिख सकते हैं
- RBI के अनुसार OPS के कारण NPS की तुलना में 4.5 गुना अधिक देनदारी होगी, जिससे वर्ष 2060 तक सकल घरेलू उत्पाद पर 0.9% का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
- सब्सिडी पर राज्यों का औसत व्यय उनके जीएसडीपी का 0.87% है जबकि कुछ राज्य जैसे पंजाब 2.35%, राजस्थान 1.92% में कही ज्यादा है।
शासन पर प्रभाव
- लोकलुभावनवादी नीतियों द्वारा सरकारी निर्णयन में पारदर्शिता में कमी से भ्रष्टाचार को बढ़ावा।
- सरकार के जरूरी व्यय में कटौती होने से शासन व्यवस्था में बदलाव।
- क्षमता से बाहर तथा असंगत वादों से सामान्य शासन प्रक्रियाओं, नियमों में बदलाव भावी विकास के लिए बाधाकारी।
- वास्तविक मुद्दों से मतदाताओं का भटकाव
- राजनीतिक दलों में जुमलेपन, मतदाताओं को भ्रमित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा।
- राजनीति में स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्श में कमी ।
इस प्रकार लोकलुभावनवाद राज्यों की आर्थिक एवं शासन संबंधी नीतियों को प्रभावित करते हैं । इस कारण इन पर नियंत्रण आवश्यक है जिसके लिए निम्न उपायों को अपनाया जा सकता है।
- वित्त आयोग द्वारा वित्तीय हस्तांतरण
में प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन की नीति को अपनाया जाना चाहिए
जिससे राजनीतिक दल घोषणाओं के बजाए अपने नीतियों एवं कार्यों के बेहतर परिणाम पर ध्यान दें।
- राज्यों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऋण सीमा
का निर्धारण किया जाए।
- समाज के पिछड़े, कमजोर, गरीबों, संवेदनशील लोगों के लिए किए गए विशेष प्रावधानों का बेहतर क्रियान्वयन किया जाए।
- अवसंरचना,
रोजगार, सतत विकास को प्रेरित करनेवाली दीर्घकालिक
विकास नीतियों को बढ़ावा दिया जाए।
- लोकलुभावन वादों के संदर्भ में चुनाव आयोग द्वारा
चुनाव आचार संहिता में आवश्यक
सुधार, मतदाता जागरुकता जैसे कार्य किया जाए।
- लोकलुभावन उपायों के दीर्घकालिक परिणामों जैसे बढ़ते ऋण और भविष्य की पीढ़ियों पर बढ़ता बोझ जैसे मुद्दों को प्रति जन जागरुकता लायी जाए।
- केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर वित्तीय प्रशासन हेतु सहयोगात्मक दृष्टिकोण
अपनाया जाना चाहिए।
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनकल्याण का उद्देश्य निहित है लेकिन इसकी भी सीमा निर्धारित होनी चाहिए ताकि राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए राज्यों की वित्तीय एवं प्रशासनिक सीमा से बाहर जाकर ऐसी घोषणाएं नहीं की जाए जो दीर्घकाल में आर्थिक संकट का कारण बनें।
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