“जइसन बोअब ओइसने कटब”
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मानव जीवन का आधार
उसके कर्म हैं। व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही बोलता है; जैसा बोलता है, वैसा ही करता है – और अंततः जैसा करता है, वैसा ही उसका भाग्य बनता है। जीवन के इस सत्य को भोजपुरी की एक कहावत
अत्यंत सहज शब्दों में कहती है – “जइसन बोअब ओइसने कटब।” ग्रामीण पृष्ठभूमि की यह
कहावत जीवन के गहरे दार्शनिक और नैतिक सिद्धांत को सरल भाषा में प्रकट करती है और
बताती है कि अपने विचारों, शब्दों और कर्मों के रूप में जो कुछ हम आज बोते हैं वही कल हमारे जीवन में
फल बनकर लौटता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” इसका भावार्थ
यह है कि मनुष्य का अधिकार केवल अपने कर्म पर है, फल पर
नहीं। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि कर्म के बिना फल संभव नहीं। जो कर्म हम करते
हैं, वे किसी न किसी रूप में परिणाम अवश्य उत्पन्न करते हैं।
इसी कारण से उपनिषदों और अन्य ग्रंथों में यह भाव मिलता है कि जीवन में न तो कोई
अच्छा फल बिना अच्छे कर्मों के प्राप्त हो सकता है और न ही बुरा कर्म अच्छे परिणाम
ला सकता है। इस संदर्भ में महाकवि तुलसीदास ने भी कहा है “जैसी
करनी वैसी भरनी” यानी व्यक्ति को अपनी करनी का फल अवश्य भोगना
पड़ता है। इस प्रकार यह कहावत हमें बताती है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य के बीज
हैं।
इस कहावत को इस कहानी से
समझा जा सकता है। एक लकड़हारा जंगल में प्रतिदिन मेहनत और ईमानदारी से लकड़ी काटकर
आजीविका चलाता था। एक दिन उसने देखा कि एक घायल बंदर पेड़ के नीचे पड़ा है। दया
भाव से उसने उसे उठाकर अपने घर लाया और कई दिनों तक उसकी सेवा की जिससे बंदर ठीक
हो गया और जंगल लौट गया। कुछ समय बाद एक दिन लकड़हारा पेड़ काट रहा था, तभी जंगली जानवरों का एक झुंड उसकी ओर दौड़ा। लकड़हारा गिर पड़ा और भाग
नहीं सका। तभी वही बंदर अपने साथियों के साथ आया और जानवरों को भगाकर लकड़हारे की
जान बचाई। इस प्रकार यह कहानी "जइसन बोअब ओइसने कटब" का संदेश देती है
कि लकड़हारा ने जैसा व्यवहार बंदर के प्रति किया उसे संकट के समय वैसा ही फल मिला
और उसकी जान बची।
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जो अपने स्वास्थ्य के
प्रति सजग रहते हैं वे न केवल दीर्घायु होते हैं बल्कि जीवन में ऊर्जा और
आत्मविश्वास से भरपूर रहते हैं। इसके विपरीत जो लोग लापरवाह होते हैं नशा करते हैं
उन्हें शरीर और मन दोनों स्तर पर बीमारियों और मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता
है। जो विद्यार्थी अनुशासित ढंग से समय का सदुपयोग करते हैं, वे सफलता प्राप्त करते हैं जबकि समय की बर्बादी करने वाले छात्र अंततः
पछताते हैं। इसी संदर्भ में गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “मनुष्य अपने कर्मों का
ही उत्तरदायी है”
यह कहावत न केवल
व्यक्तिगत जीवन बल्कि राष्ट्र और समाज के स्तर पर भी समान रूप से लागू होती है। जब
समाज में लोग ईमानदारी, सदाचार और सेवा की भावना से कार्य करते हैं, तो समाज में समरसता, सहयोग और विश्वास की फसल लहलहाती है। लेकिन यदि
समाज में स्वार्थ, हिंसा और भ्रष्टाचार के बीज बोए जाएँ, तो परिणाम विघटन, संघर्ष और अविश्वास के रूप में सामने आते हैं। इसी
प्रकार जो शासक जनहित, पारदर्शिता और संवेदनशीलता को प्राथमिकता देते
हैं, वे कल जनता के विश्वास और इतिहास के सम्मान के पात्र
बनते हैं। वहीं जो केवल सत्ता, तुष्टिकरण और अहंकार के बीज बोते हैं, उन्हें अंततः अस्वीकार और अपमान का सामना करना पड़ता है। इतिहास ऐसे
उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहाँ अत्याचारी शासकों ने अपने कर्मों का ही फल
भुगता है – चाहे वह रोमन सम्राट नीरो हो, फ्रांसीसी क्रांति के
समय लुई सोलहवाँ हो या आधुनिक तानाशाह।
वर्षों तक हमने वनों
की कटाई, जलवायु के साथ छेड़छाड़ और प्राकृतिक संसाधनों का
अंधाधुंध उपयोग किया। अब, जब ग्लोबल वॉर्मिंग, जल
संकट और प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ रही हैं, तो हमें अपने ही कर्मों
का परिणाम झेलना पड़ रहा है। यह एक वैश्विक उदाहरण है कि सामूहिक रूप से किए गए
कर्म किस प्रकार समूची मानवता को प्रभावित करते हैं।
इस प्रकार यह कहावत
जीवन को दिशा देने वाली प्रेरणा है। यह हमें निरंतर आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया में
बनाए रखती है । यह हमें यह समझने की शक्ति देती है कि भविष्य कोई नियत भाग्य नहीं
है, बल्कि वह हमारी आज की मेहनत और सोच का प्रतिबिंब है। यदि
हम सत्य, करुणा,
श्रम और धैर्य को बोएँगे, तो कल समाज और स्वयं जीवन में शांति, सफलता
और सम्मान प्राप्त होगा। वहीं, यदि हम आलस्य, कपट, स्वार्थ और हिंसा को बढ़ावा देंगे, तो वही
हमारे जीवन की विफलता और दुर्भाग्य का कारण बनेगा।
निष्कर्षत: यह कहावत
एक कालजयी कहावत है जो व्यक्ति को केवल कर्मशील ही नहीं, बल्कि
उत्तरदायी भी बनाता है। यह आत्मविकास, सामाजिक सुधार और
राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की प्रेरणा बन सकता है यदि हम इसे जीवन-दर्शन के रूप में
अपनाएँ। जो इस सत्य को पहचान लेता है, वह कभी दिशाहीन नहीं
होता। इसलिए यह आवश्यक है कि हम आज जो बो रहे हैं, वह
इतना सशक्त, सच्चा और सुंदर हो कि कल जब उसकी फसल काटें, तो आत्मगौरव, संतोष और समाज की प्रशंसा से युक्त हो।
शब्द
संख्या-848
यह निबंध एक मार्गदर्शन के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है जिसमें आप अपनी मौलिकता, अपने विचार को जोड़कर इसे और बेहतर कर सकते हैं।
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