भूमि संरक्षण और जैविक खेती
भारतीय दर्शन में पृथ्वी को ‘धरणी’ कहा गया है — अर्थात् वह जो धारण करती
है, पोषण देती है और जीवन का आधार बनती है। यह दृष्टिकोण न केवल सांस्कृतिक
बल्कि पारिस्थितिकीय दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है, क्योंकि
यह भूमि को मात्र उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि जीवंत इकाई
मानता है। एल्डो लियोपोल्ड का कथन – “एक सभ्यता तब तक टिकाऊ नहीं हो सकती जब तक वह
अपनी भूमि के प्रति संवेदनशील नहीं होती” – भूमि संरक्षण की आवश्यकता को नैतिक और
व्यवहारिक दोनों स्तरों पर स्थापित करता है।
भारतीय संस्कृति में “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” का भाव यह सिखाता है
कि हम प्रकृति के अधिपति नहीं, बल्कि उसके पुत्र हैं। यदि हम इस भाव के अनुरूप कार्य करें,
तो भूमि केवल बचाई नहीं जाएगी, वह पुनर्जीवित
होगी – और इसके साथ ही हमारी खाद्य सुरक्षा, पर्यावरणीय
स्थिरता और सामाजिक समृद्धि भी। महात्मा गांधी ने कहा था – “पृथ्वी सबकी
आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी एक के लोभ को
नहीं।” यह कथन आज के समय में और भी प्रासंगिक हो जाता है। भूमि संरक्षण और जैविक
खेती न केवल कृषि सुधार, बल्कि सभ्यता के पुनरुत्थान का
माध्यम बन सकते हैं।
भूमि, जो मानव सभ्यता की रीढ़ है, आज तेजी से क्षरण,
प्रदूषण और अति दोहन का शिकार हो रही है। ऐसे में भूमि संरक्षण केवल
एक तकनीकी विषय नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी बन गया है। और
इस दायित्व के निर्वहन का एक बेहतर उपाय जैविक कृषि है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य
स्थापित कर भूमि को पुनर्जीवित करने का कार्य करती है।
भूमि संरक्षण और जैविक खेती न केवल एक-दूसरे के पूरक हैं, बल्कि
दीर्घकालिक कृषि-नीति की दो अनिवार्य धुरी हैं। भूमि संरक्षण के अंतर्गत समोच्च
कृषि, वृक्षारोपण, चेक डैम निर्माण,
कंटूर प्लाउइंग आदि तकनीकें अपनाई जाती हैं जो मृदा अपरदन को रोकने,
जल संचयन बढ़ाने और भौगोलिक संतुलन बनाए रखने में सहायक होती हैं। वहीं
जैविक कृषि एक ऐसी कृषि प्रणाली है, जिसमें रासायनिक
उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता, बल्कि गोबर,
हरी खाद, नीम अर्क, वर्मी
कम्पोस्ट, जैव उर्वरकों का उपयोग कर मृदा के सूक्ष्मजीवों और
जैविक गुणों को पुनर्जीवित किया जाता है। यह भूमि को केवल संरक्षित ही नहीं करती,
बल्कि उसे संवर्धित भी करती है। जैविक खेती के द्वारा मृदा में
जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ती है, जलधारण क्षमता में सुधार
होता है, और लंबे समय तक भूमि की उर्वरता बनी रहती है। यह
रसायनमुक्त उत्पादन के साथ-साथ खाद्य गुणवत्ता और पोषण मानकों को भी सुनिश्चित
करती है।
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संयुक्त राष्ट्र की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर
पर लगभग 33% उपजाऊ भूमि गंभीर क्षरण की स्थिति में पहुँच चुकी है। भारत में CSWCRTI
के अनुसार, लगभग 147 मिलियन हेक्टेयर भूमि
विभिन्न प्रकार के क्षरण का शिकार है। जलवायु परिवर्तन, बढ़ती
जनसंख्या, और रासायनिक कृषि ने इस संकट को और तीव्र कर दिया
है।
इस पृष्ठभूमि में जैविक खेती एक रणनीतिक समाधान के रूप में उभरती है। IPCC की 2023
रिपोर्ट बताती है कि जैविक खेती के अंतर्गत प्रति हेक्टेयर भूमि 20–30% अधिक
कार्बन अवशोषित करती है, जिससे वह न केवल जलवायु परिवर्तन को
धीमा करती है बल्कि जलवायु लचीलापन भी बढ़ाती है। यह सूखा, बाढ़,
मृदा क्षरण जैसी आपदाओं से लड़ने की क्षमता को मजबूत करती है। FAO
की 2024 रिपोर्ट यह संकेत देती है कि वैश्विक बाजार में जैविक
उत्पादों की मांग में प्रति वर्ष 10% की वृद्धि हो रही है। यह न केवल पर्यावरणीय
दृष्टि से उपयोगी है, बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी किसानों
के लिए लाभप्रद विकल्प बन चुका है।
भारत में सिक्किम जैसे राज्यों ने सम्पूर्ण जैविक राज्य बनकर इस दिशा में
अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। त्रिपुरा, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों ने भी
जैविक खेती को नीतिगत प्राथमिकता देकर किसान आय, पर्यावरण
संरक्षण और निर्यात तीनों लक्ष्यों को साधा है।
हालाँकि जैविक खेती और भूमि संरक्षण के लाभ स्पष्ट हैं, फिर भी इसके
समक्ष कई व्यावहारिक और संस्थागत चुनौतियाँ हैं। प्रारंभिक वर्षों में उत्पादकता
में गिरावट किसानों को हतोत्साहित करती है, जिससे वे
पारंपरिक रासायनिक कृषि की ओर लौटने लगते हैं। साथ ही, ‘ऑर्गेनिक’
प्रमाणन प्रक्रिया महंगी और जटिल होने के कारण छोटे किसान इससे वंचित रह जाते हैं।
विपणन चैनलों की असंगठित स्थिति भी एक गंभीर समस्या है, जिससे
किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इसके अलावा, जैविक
कृषि के लिए आवश्यक वैज्ञानिक जानकारी और प्रशिक्षण का अभाव तथा रासायनिक खेती की
सांस्कृतिक जड़ता इस रूपांतरण को और कठिन बना देती है। ऐसे में यदि बिना तैयारी के
जैविक बदलाव लागू किए जाएँ, जैसा कि श्रीलंका में हुआ,
तो खाद्य संकट जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अतः जैविक खेती को
केवल नीति नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रणनीति और चरणबद्ध योजना के
साथ लागू करना अनिवार्य है।
जैविक खेती और भूमि संरक्षण की चुनौतियों से निपटने के लिए नीति, समाज और
विज्ञान का समन्वय आवश्यक है। इसके लिए नीति-निर्माण में जैविक कृषि को प्राथमिकता
देते हुए संस्थानों एवं स्थानीय स्तर पर किसानों को प्रशिक्षण, जागरूकता के अलावा प्राकृतिक कीटनाशक, फसल विविधता,
स्थानीय संसाधनों, परंपरागत बीजों और कृषि
तकनीकों को प्रोत्साहित किया जाना बेहतर समाधान है।
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