“पर्यावरण असंतुलन सृष्टि का विनाशक है”
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प्रकृति ने जब यह
सृष्टि रची, तब उसमें एक
अद्भुत संतुलन निहित था। वनों की हरियाली, नदियों की शुद्धता,
आकाश की स्वच्छता और वायुमंडल की संरचना – सब कुछ जीवों के अनुकूल
और सामंजस्यपूर्ण था। किंतु जैसे-जैसे मानव ने अपनी भौतिक आकांक्षाओं को
प्राथमिकता दी, उसने प्रकृति के इस संतुलन को बिगाड़ दिया।
आज पर्यावरण असंतुलन मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए एक गंभीर चुनौती बन गया है।
यह असंतुलन केवल प्राकृतिक संसाधनों की क्षति नहीं है, बल्कि
यह एक व्यापक सामाजिक, नैतिक और अस्तित्वगत संकट है, जो सृष्टि के विनाश की ओर संकेत कर रहा है।
पिछले 200 वर्षों में
विकास की अंधी दौड़ में धरती का तापमान 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और तापमान
में इस वृद्धि से कही बाढ़ तो कही सूखा जैसी आपदाओं की तीव्रता बढ़ गयी है। एक ओर
ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तो दूसरी ओर द्वीपीय देश समुद्र में समाते जा रहे
हैं। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में बढ़ता प्रदूषण, खाद्य शृंखला में फैलता जहर, महामारी का बढ़ता प्रकोप, बढ़ता वायु एवं भूमि प्रदूषण, जैव-विविधता का ह्रास, 2013 की केदारनाथ त्रासदी,
चेन्नई एवं केरल की भीषण बाढ़, बंगाल
टाइगर, गंगा डॉल्फिन जैसे
जीवों के विलुप्त होने के कगार पर होना आदि पर्यावरण असंतुलन के परिणाम है जो धीरे
धीरे सृष्टि को विनाश की ओर प्रेषित कर रहे हैं।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम
की 2024 की रिपोर्ट के
अनुसार जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण और प्राकृतिक
आपदाएँ मानव सभ्यता के लिए सबसे बड़े जोखिम बन चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास
कार्यक्रम की रिपोर्ट बताती है कि प्रतिवर्ष लगभग 1.2 करोड़
हेक्टेयर भूमि मरुस्थलीकरण के कारण अनुपजाऊ हो जाती है। IPCC की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यदि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक भी सीमित नहीं किया गया तो 21वीं सदी के अंत तक
सागर स्तर में अभूतपूर्व वृद्धि और चरम मौसमीय घटनाएँ अनिवार्य हो जाएँगी। भारत की
2024 की ‘स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट’ रिपोर्ट के अनुसार देश की
लगभग 60% नदियाँ प्रदूषित हैं। वायु प्रदूषण के कारण हर साल
करीब 17 लाख लोगों की अकाल मृत्यु होती है। हिमालय के
ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और मानसून की अनियमितता कृषि, जल और आजीविका को अस्थिर बना रही है।
भारतीय परंपरा में
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘प्रकृति और पुरुष’ के समन्वय की अवधारणा रही है। उपनिषदों
में प्रकृति को "माता" और "धारण करने वाली" के रूप में देखा
गया है। महर्षि कणाद ने कहा था कि “प्रकृति विनाश नहीं चाहती, विनाश मनुष्य की लालसा से उपजता है।” यह
विचार आज और भी प्रासंगिक हो गया है, जब मनुष्य प्रकृति को
भोग की वस्तु समझ बैठा है। महात्मा गांधी ने कहा था – “पृथ्वी सबकी आवश्यकताओं की
पूर्ति कर सकती है, किंतु किसी एक की लालच की नहीं।” यह कथन
आज के भोगवादी समाज को आईना दिखाता है। जब हम प्रकृति के साथ असंतुलन बनाते हैं,
तो यह न केवल नैतिक पतन है, बल्कि मानवता की
आत्मा का भी क्षरण है।
यदि आप भी 71वीं BPSC के लिए तैयारी कर रहे हैं, तो आप हमारे One liner NOTES के माध्यम से Prelims की बेहतर तैयारी कर सकते हैं।
जब हम प्राकृतिक
संसाधनों को धन स्रोत के रूप में देखते हैं और स्वार्थवश वनों का विनाश, तीव्र अनियोजित शहरीकरण और औद्योगिकरण,
प्लास्टिक एवं रसायनों का अत्यधिक उपयोग, प्राकृतिक
क्रियाओं में हस्तक्षेप करते हैं तो पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती
है। यह स्थिति समाज में असमानता, विस्थापन और आजीविका संकट
को जन्म देता है। आज सूखा, बाढ़, चक्रवात, लू जैसी आपदाओं के साथ साथ महामारी भी बढ़ रही हैं जिससे सबसे अधिक
प्रभावित समाज का वही वर्ग होता है जो पहले से ही वंचित और कमजोर है जैसे-आदिवासी,
किसान, मछुआरे और शहरी झुग्गी बस्तियों में
रहने वाले लोग। आर्थिक दृष्टि से पर्यावरणीय क्षरण GDP को भी
प्रभावित करता है। विश्व बैंक के अनुसार यदि वर्तमान गति से पर्यावरणीय नुकसान
होता रहा तो भारत की GDP का लगभग 2.8%
प्रतिवर्ष क्षति हो सकती है। कृषि उत्पादन में गिरावट, उद्योगों
में कच्चे माल की कमी, स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि और आपदा
प्रबंधन में खर्च की वृद्धि आदि ये सभी आर्थिक अस्थिरता को जन्म दे रहे हैं।
पर्यावरणीय असंतुलन पर
नियंत्रण के लिए वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पहलें की गई हैं। 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते के
अंतर्गत वैश्विक तापवृद्धि को 2°C से नीचे रखने का लक्ष्य तय
किया गया। 2023 में हुए COP28 सम्मेलन
में "लॉस एंड डैमेज फंड" की स्थापना की गई ताकि विकासशील देशों को
जलवायु संकट से निपटने में सहायता मिल सके। भारत ने मिशन लाइफ (LiFE), राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP), हरित
हाइड्रोजन मिशन और सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA)
जैसे अनेक कार्यक्रमों की शुरुआत की है। हांलाकि पर्यावरण असंतुलन
की चुनौती से निपटने के लिए केवल सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए
जन-सहभागिता और व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी सबसे ज़रूरी है। शून्य अपशिष्ट जीवनशैली,
स्थानीय जैव विविधता की रक्षा, जल संरक्षण,
ऊर्जा दक्षता, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग,
वृक्षारोपण और कार्बन फुटप्रिंट को घटाना – ये सब व्यक्तिगत स्तर पर
किए जा सकने वाले प्रभावशाली कार्य हैं।
यह निबंध एक मार्गदर्शन के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है जिसमें आप अपनी मौलिकता, अपने विचार को जोड़कर इसे और बेहतर कर सकते हैं।
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हमें पर्यावरण संरक्षण
में सुंदरलाल बहुगुणा का ‘चिपको आंदोलन’ केन्या की वांगारी मथाई की ग्रीन बेल्ट
मूवमेंट, आइसलैंड की
प्रधानमंत्री की जलवायु तटस्थता, स्वीडन की युवती ग्रेटा
थनबर्ग की राह पर चलना होगा। कहने का तात्पर्य है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा
में शिक्षा एवं जागरुकता से हम तथा हमारी भावी पीढ़ियों को पर्यावरण के प्रति
जागरूक बना सकते हैं जिसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा में पारिस्थितिक साक्षरता
को बढ़ावा मिले। भारतीय संस्कृति में वृक्षों की पूजा, नदियों
को माता का स्थान, भूमि को धर्मभूमि मानने की अवधारणा
दर्शाता है कि पर्यावरण के प्रति आदिकाल से गहन संवेदना रही है। आज आवश्यकता है कि
इस सांस्कृतिक चेतना को आधुनिक संदर्भ में पुनर्जीवित किया जाए।
हमें यह समझना होगा कि
पर्यावरण असंतुलन कोई भविष्य की समस्या नहीं है, यह आज का विनाशक यथार्थ है। यह केवल वृक्षों के कटने,
नदियों के सूखने और वनों के घटने का संकट नहीं, बल्कि यह मानवता के अस्तित्व, शांति और विकास का
संकट है। सृष्टि का मूल आधार उसका संतुलन है – चाहे वह प्राकृतिक हो या नैतिक। और
यदि यह संतुलन टूटा, तो न विज्ञान हमें बचा पाएगा, न प्रौद्योगिकी। धरती है तो हम हैं की अवधारणा के साथ हमें उसी विकास को
अपनाना होगा जो पर्यावरण के साथ सहअस्तित्व में हो। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने
कहा – “जो राष्ट्र अपनी भूमि, जल और संस्कृति को नष्ट करता
है, वह दीर्घजीवी नहीं हो सकता।” यह चेतावनी आज हर नागरिक,
संस्था और सरकार के लिए प्रासंगिक है।
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