बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर
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बिहार
और पूर्वी भारत की लोक परंपरा में प्रचलित कहावतें सामाजिक मनोविज्ञान का अत्यंत
बारीक चित्रण करती हैं। इन्हीं में एक अत्यंत प्रचलित कहावत है: "बाप का नाम साग-पात, बेटा का नाम परोर।" यह कहावत न केवल समाज में फैले दिखावे, आडंबर और आत्मप्रचार की प्रवृत्ति पर
तीखा व्यंग्य करती है,
बल्कि यह भी
उजागर करती है कि कैसे कुछ लोग अपनी पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक वास्तविकताओं से ऊपर
उठकर झूठे गौरव का प्रदर्शन करते हैं।
कहावत
में प्रयुक्त प्रतीक ‘साग-पात’ और ‘परोर’ अत्यंत अर्थपूर्ण हैं। ‘साग-पात’ यानी
साधारण, सस्ते और दैनिक उपयोग की
सब्जियाँ – जैसे पालक,
बथुआ, सरसों है जिनको सामाजिक प्रतिष्ठा में
आम माना जाता है जबकि ‘परोर’
(परवल) अपेक्षाकृत महँगी, विशेष
मौकों पर बनने वाली और स्वाद के लिए प्रसिद्ध सब्ज़ी माना जाता है। जब कोई बेटा
अपने पिता की सामान्य स्थिति के विपरीत अत्यधिक दिखावा करता है या अभिमान से भर
जाता है, तब समाज व्यंग्यपूर्वक यह कह
उठता है – “बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर।”
यह 'अहम' और 'स्वाभिमान' के बीच के सूक्ष्म अंतर को दर्शाता है।
जब मनुष्य अपने मूल को भूलकर केवल बाहरी आभूषणों से अपनी पहचान बनाता है, तो वह एक प्रकार के अहंकार का शिकार
होता है। लेकिन जब वह अपनी सफलता को अपनी मेहनत और पृष्ठभूमि के संघर्ष से जोड़कर
देखता है, तब वह स्वाभिमान और आत्मगौरव
की श्रेणी में आता है। यह कहावत उन व्यक्तियों के लिए चेतावनी स्वरूप है जो दिखावे, बनावटी प्रतिष्ठा और झूठे आत्मबोध में
लिप्त हो जाते हैं। यह कहावत व्यक्ति को याद दिलाती है कि उसकी जड़ें कहाँ हैं, और उसे अपनी सफलता का गर्व करते समय
विनम्रता और यथार्थ-बोध बनाए रखना चाहिए।
इस कहावत
में पीढ़ियों के संबंध की भी एक सूक्ष्म अभिव्यक्ति छिपी है। जब पिता सादगी, परिश्रम और
आत्मसंयम से जीवन यापन करते हैं, और बेटा उसी विरासत को आगे
बढ़ाने के बजाय भौतिक सुख-सुविधाओं और दिखावे में लिप्त हो जाता है, तब यह एक पीढ़ीगत अंतर और वैचारिक खाई को दर्शाता है। यह पीढ़ियों के बीच
के मूल्यों की दूरी का भी प्रतीक बन जाती है। आज की युवा पीढ़ी में यह प्रवृत्ति
कई बार देखी जाती है कि वे अपने पूर्वजों की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा को या तो भूल
जाते हैं, या उसे तुच्छ मानते हैं। वे इसे पिछड़ेपन से
जोड़ते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उन्हीं सादगीपूर्ण जड़ों
में उनका अस्तित्व और शक्ति निहित है।
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यह
कहावत विद्यार्थियों और नवयुवकों को भी विनम्रता का पाठ पढ़ाती है। आज के युवा जब
थोड़ी सी सफलता पा लेते हैं, चाहे
वह प्रतियोगिता में चयन हो या कोई प्रतिष्ठित नौकरी तब वे अपने परिवेश, माता-पिता की भूमिका या पूर्व संघर्षों
को भुला देते हैं। वे केवल वर्तमान उपलब्धियों को ही पहचान मानने लगते हैं। यह
दृष्टिकोण शिक्षा के मूल उद्देश्य – व्यक्तित्व निर्माण और जीवनमूल्य – के
प्रतिकूल है। यह कहावत उन्हें यह सीख देती है कि 'जहाँ से चले थे, उसे मत भूलो', क्योंकि वही स्मृति तुम्हें जमीन से
जोड़कर रखेगी।
जब
लोग अपनी हैसियत से बढ़कर जीवनशैली अपनाते हैं – महंगी गाड़ियाँ, फैशनेबल कपड़े, ब्रांडेड वस्तुएँ – तो यह केवल एक
“परवर” वाली दिखावट होती है, जबकि
उनकी आय और पारिवारिक पृष्ठभूमि “साग-पात” जैसी वास्तविकता को दर्शाती है। आज का
उपभोक्तावादी समाज उसी दिखावे के लिए लालायित है और यथार्थ से दूर होता जा रहा है।
ऐसे समाज में यह कहावत एक आवश्यक चेतावनी है कि दिखावे की दुनिया में खो जाने से
पहले अपनी जड़ों और सच्चाई को न भूलें।
आज
जब सोशल मीडिया के मंचों पर लोग अपनी कृत्रिम जीवनशैली, फ़िल्टर किए गए अनुभवों और बनावटी
प्रसन्नता को प्रस्तुत करते हैं, तब
यह कहावत और अधिक मुखर होकर सामने आती है। यह उस मानसिकता पर व्यंग्य है, जिसमें व्यक्ति अपनी संघर्षशील यात्रा
को छुपाकर केवल चमक-दमक का प्रदर्शन करता है। यह कहावत हमें स्मरण कराती है कि
सम्मान दिखावे में नहीं, बल्कि
सच्चाई और जड़ों से जुड़ाव में निहित है। आज दुनिया में अनेक लोग अपनी भौतिक
संपन्नता, जीवनशैली और महंगे उत्पादों का
प्रदर्शन करते हैं,
लेकिन उनकी हकीकत
कहीं और होती है। वे कर्ज़, तनाव
और दबाव के भीतर जीते हैं, किंतु
बाहरी तौर पर दिखावा करे हैं। यह व्यवहार मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक असंतुलन
दोनों का कारण बनता है।
यह
कहावत उन नेताओं और जनप्रतिनिधियों पर भी व्यंग्य करती है जो अपनी संघर्षशील या
सामान्य पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर सत्ता में आते हैं और फिर उसी जनता को भूल जाते हैं, जिसने उन्हें चुना था। वे सत्ता, दौलत और पद की चकाचौंध में अपने अतीत
को या तो नकारते हैं या उससे दूरी बना लेते हैं। ऐसे में जनसामान्य यह कहावत बोलकर
उन्हें याद दिलाता है कि “परवर” बने हो, लेकिन जड़ तो “साग-पात” है – इसलिए विनम्र रहो, और जनता के प्रति जवाबदेह रहो।
भारत
के अनेक महान व्यक्तित्व जैसे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, लाल बहादुर शास्त्री, बाबासाहेब अंबेडकर – अत्यंत साधारण पृष्ठभूमि
से आए थे। किंतु उन्होंने अपनी महानता को कभी अपने अतीत से काटकर नहीं देखा। डॉ.
कलाम हमेशा कहते थे “मैं वही हूँ, जो रामेश्वरम् के उस सामान्य मछुआरे
परिवार से निकला है।” यही विनम्रता उन्हें ‘मिसाइल मैन’ से ‘जनता का राष्ट्रपति’
बनाती है। यह कहावत ऐसे ही लोगों के संदर्भ में अप्रभावी हो जाती है, क्योंकि वे सच्चे अर्थों में “ परोर”
बने, पर अपनी जड़ों को “साग-पात”
समझ कर कभी त्यागा नहीं।
निष्कर्षतः “बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर” एक
अत्यंत व्यंग्यात्मक किंतु मूल्यवान लोककथन है, जो जीवन में विनम्रता, यथार्थबोध और आत्म-समर्पण के महत्त्व
को रेखांकित करता है। यह कहावत केवल सामाजिक ढांचे की आलोचना नहीं करती, बल्कि यह व्यक्ति को आंतरिक मूल्य, आत्मसाक्षात्कार और सामाजिक
उत्तरदायित्व की ओर प्रेरित करती है। यह
कहावत हमें सिखाती है कि सादगी, परिश्रम
और आत्मज्ञान से जो प्राप्त होता है, वह सच्चा होता है; जबकि दिखावे की दुनिया क्षणिक और अस्थिर होती है। हमें अपने
अतीत से घृणा नहीं,
गर्व करना चाहिए।
क्योंकि जो अपनी जड़ों को पहचानता है, वही वृक्ष बनकर समाज को छाया देता है।
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