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Dec 16, 2025

2025 current affairs bpsc mains answer writing test

 BPSC मुख्‍य परीक्षा उत्‍तर लेखन-8 दिसम्‍बर 2025 


प्रश्न–डीपफेक तकनीक डिजिटल युग मेंसूचना विश्वसनीयताको सबसे गहरी चोट पहुँचा रही है। भारत द्वारा प्रस्तावित लेबलिंग नियम क्या इस सूचना-संकट को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त हैं? चर्चा करें  6 अंक 


उत्‍तर- तकनीकी प्रगति के दौर में AI आधारित नकली वीडियो, परिवर्तित चेहरे और कृत्रिम आवाज़ें इतनी वास्तविक प्रतीत होती हैं कि आम आदमी तो दूर इससे विशेषज्ञ भी भ्रमित हो जाते हैं। यह स्थिति सूचना विश्‍वनीयता का संकट उत्‍पन्‍न करती है।

भारत ने इस खतरे को देखते हुए हाल ही में सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 में संशोधन प्रस्ताव रखा जिसके मुख्‍य प्रावधान निम्‍न हैं-

  • एआई-जनित कंटेंट की अनिवार्य लेबलिंग, उपयोगकर्ता-घोषणा, और प्लेटफॉर्म-स्तरीय सत्यापन को अनिवार्य बनाया गया।
  • वीडियो/इमेज पर 10% सतह क्षेत्र का लेबल और ऑडियो में पहले 10% अवधि तक डिस्क्लेमर जैसे प्रावधान जो पारदर्शिता सुनिश्चित करते हैं। 
  • सत्यापन में विफल होने पर प्लेटफॉर्म कासेफ हार्बरखत्म हो जाना भी जवाबदेही को भी मजबूत करता है।

 

हांलाकि उपरोक्‍त प्रावधान पर्याप्त नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि मूल समस्या अधिक गहरी है जिसे निम्‍न प्रकार समझ सकते हैं-

  • डीपफेक पहचान तकनीक अभी महंगी और विशेषज्ञ-निर्भर होने से व्यापक स्तर पर निगरानी कठिन।
  • व्‍यक्गित अधिकारों की अनुपस्थिति, जिससे चेहरा, आवाज़ और डिजिटल प्रतिरूप के दुरुपयोग पर  कानूनी कार्रवाई मुश्किल।
  • मनोवैज्ञानिक प्रभाव, क्योंकि लोग एक बार देखी गई झूठी सामग्री को सच मानने की प्रवृत्ति रखते हैं, चाहे बाद में उसका खंडन क्यों न हो।

निष्‍कर्षत: लेबलिंग नियम एक अच्‍छी शुरुआत तो हैं लेकिन पर्याप्त नहीं। भारत को डीपफेक-विशिष्ट कानून, उन्नत डिजिटल फॉरेंसिक, तेज़ शिकायत-निवारण प्रणाली और व्यापक साइबर-साक्षरता कार्यक्रम की दिशा में कार्य करना होगा तभी सूचना-संकट पर प्रभावी नियंत्रण संभव है।

शब्‍द संख्‍या-237

 

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प्रश्न–अनुकूलन (Adaptation) जलवायु न्याय का आवश्यक स्तंभ क्यों माना जाता है? भारतीय संदर्भ सहित स्पष्ट कीजिए।” 6 अंक 


उत्तर -अनुकूलन जलवायु न्याय का मूल घटक इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब अपरिहार्य हो चुके हैं और इन प्रभावों का सबसे अधिक नुकसान गरीब एवं कमजोर समुदायों को होता है। ऐसे समुदाय उत्सर्जन के लिए कम जिम्मेदार होते हुए भी आपदाओं से ज्‍यादा प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि अनुकूलन को जलवायु न्याय का आवश्‍यक स्‍तंभ माना जाता है। भारत में तटीय क्षेत्रों के मछुआरों, मैदानी किसानों और पहाड़ी बाग़वानों की चुनौतियाँ इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जैसे-

 

  • तटीय समुदाय समुद्र स्तर वृद्धि और मछली प्रवास में बदलाव से प्रभावित हो रहे हैं।
  • मैदानी किसान वर्षा पैटर्न में अस्थिरता के कारण कम अवधि की फसलें अपना रहे हैं।
  • पर्वतीय क्षेत्र बढ़ते तापमान-प्रेरित कीट आक्रमण झेल रहे हैं।

 

हालाँकि, संसाधनों की कमी के कारण लाखों लोग प्रभावी अनुकूलन रणनीति नहीं अपना पाते, जिससे जलवायु-प्रेरित पलायन तेजी से बढ़ रहा है। अनुमान है कि भारत के 14% लोग किसी न किसी प्रकार के पर्यावरणीय विस्थापन का सामना कर चुके हैं।


इस स्थिति में अनुकूली शासन की अवधारणा महत्‍वपूर्ण हो जाता है जिसके अंतर्गत स्थानीय भागीदारी, वित्तीय सहायता, वैज्ञानिक शोध और समुदाय-आधारित निर्णय लेने और समावेशी कार्यान्वयन प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दी जाती है। भारत जैसे देशों के लिए अनुकूली शासन को राष्ट्रीय जलवायु रणनीतियों में एकीकृत करना कमज़ोर आबादी की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। 

 

निष्‍कर्षत: अनुकूलन केवल तकनीकी उपाय नहीं, बल्कि न्यायसंगत विकास की पूर्व शर्त है और जलवायु न्याय तभी संभव है जब कमजोर समूहों को अनुकूलन हेतु पर्याप्त संसाधन और संरचनात्मक समर्थन मिले।

शब्‍द संख्‍या- 248

 

 

प्रश्‍न-अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) द्वारा जारी जलवायु परिवर्तन पर ऐतिहासिक सलाहकारी राय यह घोषित करती है कि देशों पर जलवायु प्रणाली की रक्षा करने और उत्सर्जन सीमित करने का कानूनी दायित्व है। यह सलाहकारी राय स्वैच्छिक जलवायु प्रतिबद्धताओं को किस प्रकार बाध्यकारी वैश्विक दायित्वों में परिवर्तित करती है? इस परिवर्तन का अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं पर संभावित प्रभाव विश्लेषित कीजिए।” 36 अंक 


उत्तर- जलवायु परिवर्तन से लड़ाई की दिशा में देखा जाए तो अब तक पेरिस समझौते की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि देश अपने जलवायु लक्ष्य (NDCs) स्वयं निर्धारित करते थे जो स्वैच्छिक, गैर-दंडात्मक और लगभग पूरी तरह राजनीति-प्रेरित होते थे। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने पहली बार इस स्वैच्छिकता के ढाँचे को कानूनी चुनौती देते हुए स्पष्ट किया कि जलवायु की रक्षा अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत देशों का बाध्यकारी दायित्व है, न कि केवल नीति विकल्प। 

 

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की 2025 की ऐतिहासिक सलाहकारी राय को देखा जाए तो यह निम्‍न प्रकार से स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं को कानूनी दायित्वों में परिवर्तित करती है: 

  • न्यायालय ने कहा कि देशों को ऐसी गतिविधियाँ रोकनी होंगी जो सीमापार जलवायु क्षति उत्पन्न करती हैं। यह सिद्धांत अब उत्सर्जन पर भी लागू होता है, जिससे बड़े उत्सर्जक देशों पर कानूनी जिम्मेदारी बढ़ती है।
  • पेरिस समझौते के 1.5°C लक्ष्य कोवैज्ञानिक रूप से आवश्यकही नहीं, बल्किकानूनी रूप से अपेक्षितमानक बताया गया है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक देश को यह दिखाना होगा कि उसकी नीतियाँ तापमान सीमा के अनुरूपपर्याप्त और प्रभावीहैं।
  • ICJ ने यह स्वीकार किया कि कार्रवाई में विफल देश कानूनी उत्तरदायित्व, भविष्य में नुकसान की भरपाई, और दोहराव रोकने के आश्वासन के लिए बाध्य हो सकते हैं यानी जलवायु क्षति अब केवल नैतिक मामला नहीं रहा।

इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की 2025 की ऐतिहासिक सलाहकारी राय की इन कानूनी व्याख्याओं के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं पर व्यापक प्रभाव होंगे जैसे- 

  • COP सम्मेलनों में Loss & Damage की व्यवस्था कहीं अधिक मजबूत और वित्त-पोषित रूप लेगी, क्योंकि अब क्षतिपूर्ति की कानूनी नींव स्थापित हो चुकी है।
  • विकासशील देशों विशेषकर द्वीपीय देशों की बातचीत की शक्ति बढ़ेगी। वे अब केवलजलवायु न्यायनहीं, बल्किअधिकार-आधारित जवाबदेहीकी मांग कर सकेंगे।
  • वैश्विक Climate Litigation का एक नया दौर शुरू होगा, जिसमें राष्ट्रीय जलवायु नीतियाँ अंतर्राष्ट्रीय कानूनी मानकों के संदर्भ में परखी जाएँगी।

 

इस प्रकार देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की सलाहकारी राय स्वैच्छिक वैश्विक जलवायु शासन को बाध्यकारी दायित्वों के युग में ले जाती है जहां अंतर्राष्ट्रीय वार्ताएँ अधिक उत्तरदायी, न्यायपूर्ण और समावेशी बन सकती हैं।

शब्‍द संख्‍या-345  

 

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