पर्यावरणीय शासन एवं सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका
भारत में पर्यावरणीय
न्यायशास्त्र को दिशा देने में सर्वोच्च न्यायालय एक निर्णायक स्तंभ रहा है। अदालत
ने जहां अनुच्छेद 21 की व्याख्या को व्यापक बनाकर स्वस्थ पर्यावरण को जीवन के
अधिकार का अभिन्न हिस्सा माना वहीं अनुच्छेद 48A और 51A(G) का सहारा लेकर पर्यावरण संरक्षण को राज्य की जिम्मेदारी और नागरिकों का
कर्तव्य दोनों रूपों में मजबूत किया।
इसी सक्रिय भूमिका से प्रदूषक भुगतान, जन न्यास और पूर्व-सावधानी जैसे आधुनिक पर्यावरणीय सिद्धांत विकसित हुए, जिनसे न्यायपालिका देश के पारिस्थितिक संतुलन की अग्रणी संरक्षक के रूप में स्थापित हुई। पर्यावरण संरक्षण एवं शासन को मजबूत करने की दिशा में पिछले कुछ समय में न्यायालय द्वारा दिए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को निम्न प्रकार देखा जा सकता है।
न्यायालय द्वारा दिए कुछ महत्वपूर्ण
हालिया निर्णय
दिल्ली
प्रदूषण नियंत्रण समिति बनाम लोधी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड
- प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति का अधिकार-अगस्त 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपने वैधानिक क्षेत्र में प्रदूषक इकाइयों पर पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति लगा सकते हैं। कोर्ट ने माना कि PCB केवल निगरानी नहीं, बल्कि दंडात्मक कार्रवाई की शक्ति रखने वाली संस्था है।
वनशक्ति
बनाम भारत संघ
- पूर्वव्यापी पर्यावरणीय स्वीकृतियाँ अवैध- अगस्त 2025 में कोर्ट ने निर्माण शुरू होने के बाद दी जाने वाली Ex-Post Facto EC को असंवैधानिक बताया और “बाद में मंजूरी” का मार्ग बंद किया। साथ ही, जनवरी 2025 की वह अधिसूचना निरस्त की, जिसमें औद्योगिक शेड, स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल को EIA से छूट दी गई थी।
केंद्र
शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर बनाम राजा मुज़फ़्फ़र भट
- वैज्ञानिक अध्ययन बिना रेत खनन नहीं- अगस्त 2025 में कोर्ट ने कहा कि नदी की वार्षिक रेत-पुनर्भरण क्षमता के वैज्ञानिक आकलन के बिना रेत खनन को पर्यावरण स्वीकृति नहीं दी जा सकती। बिना इस अध्ययन के खनन को पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बताया गया।
कमला
नेहरू मेमोरियल ट्रस्ट बनाम यूपी राज्य औद्योगिक विकास निगम
- राज्य प्राकृतिक संसाधनों का न्यासी -मई 2025 में न्यायालय ने जन न्यास सिद्धांत दोहराते हुए अपारदर्शी भू-आवंटन रद्द कर दिया और कहा कि राज्य जनता के संसाधनों का न्यासी है, किसी हित समूह का नहीं।
टी.एन.
गोदावर्मन थिरुमुलपद बनाम भारत संघ
- केंद्रीय सशक्त समिति को स्थायी दर्जा -जनवरी 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने CEC को स्थायी निकाय बनाते हुए उसका अधिकार-क्षेत्र स्पष्ट किया। इस निर्णय से वन व पर्यावरण कानूनों की निगरानी और प्रवर्तन और मजबूत हुए।
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सर्वोच्च न्यायालय के अन्य ऐतिहासिक योगदान |
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सिद्धांत/महत्वपूर्ण
तथ्य |
मामला |
महत्त्व |
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पर्यावरणीय
क्षतिपूर्ति |
एम सी मेहता बनाम
भारत संघ (ओलियम गैस रिसाव 1987) |
खतरनाक उद्योगों पर
पूर्ण दायित्व का सिद्धांत दिया गया। |
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स्वच्छ पर्यावरण का
अधिकार |
सुभाष कुमार बनाम बिहार
राज्य (1991) |
अनुच्छेद 21 (जीवन का
अधिकार) में पर्यावरण का अधिकार जोड़ा। |
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प्रदूषक भुगतान
सिद्धांत |
इंडियन काउंसिल फॉर
एन्वाइरो-लीगल एक्शन (1996) |
प्रदूषकों पर सुधारात्मक
लागत हेतु पूर्ण दायित्व लागू। |
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पूर्व-सावधानी
सिद्धांत |
वेल्लोर सिटिजन्स वेलफेयर
फोरम बनाम भारत संघ (1996) |
उद्योगों पर यह
सिद्ध करने का दायित्व कि उनकी गतिविधियां हानिरहित हैं। |
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जन न्यास सिद्धांत |
एम.सी. मेहता बनाम
कमलनाथ (1997) |
प्राकृतिक संसाधन
जनता के लिए हैं और राज्य इन संसाधनों का न्यासी है। |
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संस्थागत ढाँचा |
आंध्र प्रदेश
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम बनाम प्रो. एम.वी. नायडू (1999) |
निर्णय के बाद आगे
चलकर NGT (2010) की स्थापना हुई। |
इस प्रकार भारत में
पर्यावरणीय शासन को मज़बूती देने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका कई सकारात्मक
दिशाओं में उभरकर सामने आती है।
अदालत ने वहाँ हस्तक्षेप किया जहाँ विधायिका और कार्यपालिका शून्य छोड़ देती थीं। इसी क्रम में जहां अनुच्छेद 21 के दायरे को विस्तारित कर पर्यावरणीय अधिकारों को सीधे जीवन के अधिकार से जोड़ दिया वहीं NGT जैसे संस्थागत नवाचारों को जन्म दिया और पीढ़ीगत समानता तथा सतत विकास को कानूनी सिद्धांतों का दर्जा दिलाया।
हालांकि इसकी कुछ चिंताएं भी है जैसे- कभी-कभी
निर्णय नीति निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश जैसा लगते हैं, तो कई
बार कार्यपालिका आदेशों का पूरा पालन नहीं करती, जिससे
प्रभाव कम हो जाता है। लंबी मुकदमेबाज़ी भी निवारक असर को कमजोर करती है।
अत: यह जरूरी है कि
प्रदूषक भुगतान, पूर्व-सावधानी और जन न्यास जैसे सिद्धांतों को
स्पष्ट रूप से क़ानून में संहिताबद्ध करते हुए पर्यावरणीय संस्थाओं को सशक्त किया
जाए।

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