"भूखे
भजन ना होइहें गोपाला, लेलीं आपन कंठी-माला"
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भारतीय लोकजीवन में
प्रचलित कहावत "भूखे भजन ना होइहें गोपाला, लेलीं आपन
कंठी-माला" केवल धार्मिक व्यंग्य नहीं, बल्कि जीवन और
समाज का यथार्थ सहज शब्दों में प्रस्तुत करती है। यह कथन बताता है कि आध्यात्म,
आदर्श और नैतिकता तभी फलित होते हैं जब मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ
सम्पन्न हों। भूखे पेट भजन संभव नहीं क्योंकि पहला धर्म जीवित रहना है। जीवन की
प्राथमिकता भोजन, स्वास्थ्य और सुरक्षा है और इनके बिना
मनुष्य चाहे जितना अध्यात्म या नीति की बात करे, उनका पालन
टिकाऊ नहीं हो सकता।
यह कथन हमें बताता
है कि भोजन-पानी-आवास जैसी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद ही मनुष्य उच्चतर
स्तर ज्ञान,
सौन्दर्य, आध्यात्म, आत्मसाक्षात्कार
की ओर बढ़ सकता है। जब पेट में रोटी न हो, तो मन विचार की
ऊँचाई नहीं ढूँढ सकता। भूख चरित्र और संस्कृति दोनों को दबाने की क्षमता रखती है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि संकट और अकाल के समय सभ्य समाज भी हिंसा और संघर्ष
में बदल गया। इसलिए भोजन केवल पोषण नहीं, सभ्यता की नींव है।
भारतीय दर्शन में अर्थ
और काम को धर्म तथा मोक्ष से पहले रखा गया है अर्थात जीवन के भौतिक पक्षों का
समाधान अनिवार्य है। भारतीय दर्शन “अन्न ब्रह्म” कहता है, अर्थात
भोजन स्वयं परम तत्व है। उपनिषदों में स्पष्ट लिखा है “अन्नस्य मूलं वज्रं” यानी भोजन
ही जीवन की जड़ है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के सतत
विकास लक्ष्य में गरीबी की समाप्ति एवं शून्य भूखमरी जैसे लक्ष्यों को सबसे
पहले रखा गया है और उसके बाद ही शिक्षा, उद्योग, जलवायु लक्ष्यों को रखा गया है जो यह संकेत देता है भूख मिटेगी तो विकास
टिकेगा।
भारत में जहां एक
ओर आध्यात्म,
भक्ति, धर्म, ज्ञान और
संस्कृति की महान परंपरा है वहीं दूसरी ओर करोड़ों लोग आज भी दो जून की रोटी के
लिए संघर्ष करते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या केवल संस्कार और प्रवचन गरीबी का
समाधान कर सकते हैं? इसका उत्तर है नहीं। धर्म उपदेश से
पहले धारण चाहिए, दर्शन से पहले धान चाहिए। यही कारण है कि
भारतीय नीति-व्यवस्था में “अन्न सुरक्षा” को अधिकार के रूप में मान्यता मिली।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मनरेगा, मिड-डे मील, पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना आदि
नीतियाँ इसी सैद्धांतिक मूल से उपजीं कि भूखे नागरिक न भक्त बन सकते हैं, न उत्पादक, न राष्ट्र निर्माता।
आर्थिक
परिप्रेक्ष्य से देखें तो रोटी ही उत्पादन, श्रम और बाजार की जननी है।
जब तक नागरिक का पेट भरा न हो, वह कौशल नहीं सीखेगा, काम नहीं करेगा, बाजार में भाग नहीं लेगा। इसलिए
मानव विकास सूचकांक में शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ पोषण को प्राथमिक मूल्य दिया
गया है। विकास का अर्थ केवल सकल घरेलू उतपाद वृद्धि नहीं बल्कि मानव जीवन की
गुणवत्ता में सुधार है। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन का कथन है कि विकास का मतलब
लोगों की स्वतंत्रता बढ़ाना है और स्वतंत्रता भूख और अभाव की जंजीरों को तोड़े
बिना संभव नहीं।
एक नागरिक समाज एवं
देश के प्रति अपनी सक्रिय भागीदारी तभी निभा सकता है जब उसकी भोजन, स्वास्थ्य,
शिक्षा और रोजगार जैसी सुविधाएं उपलब्ध हों। कोई भी राष्ट्र केवल
नारे और आध्यात्मिक गौरव से नहीं चलता, बल्कि कल्याणकारी
राज्य की जिम्मेदारी, वितरणात्मक न्याय और अवसर-समानता से
चलता है। सत्ता का पहला धर्म नागरिक का पेट भरना होना चाहिए। इसलिए खाद्यान्न
सब्सिडी, पोषण मिशन, किसान सहायता,
सामाजिक सुरक्षा पेंशन और स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ लोकतंत्र का
मानवीय चेहरा हैं। नीति तभी सफल है जब वह भूखे को भोजन और बेरोजगार को काम दे क्योंकि
भूखे नागरिक नैतिकता, लोकतंत्र और कर्तव्यपालन जैसे उच्च
आदर्शों को नहीं समझ सकते।
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समाजशास्त्र के अनुसार, सामाजिक अपराध, बाल मजदूरी, व्यभिचार, नशाखोरी और कई सामाजिक समस्याओं की जड़ अक्सर बेरोजगारी और भूख में होती है। भूख इंसान को विवश करती है और विवशता उसे गलत रास्ते की ओर धकेल देती है। इसलिए अपराध-नियंत्रण का मार्ग केवल पुलिस और दंड नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा और पोषण सुरक्षा है। भूखे पेट संस्कार कमजोर पड़ जाते हैं; इसलिए संस्कृति की रक्षा का प्रथम कदम गरीबी का उन्मूलन है।
यदि समाज में कुछ
लोग अति सम्पन्न हों और दूसरे भूख से मरें तो नैतिक और धार्मिक संरचनाएँ पाखंड बन
जाती हैं। जब लोग बेरोजगारी, महंगाई और रोटी की चिंता में उलझे हों,
तब उन्हें उच्च आदर्श, नैतिकता या आध्यात्मिक
अनुशासन का उपदेश देना निरर्थक प्रतीत होता है। विवेकानंद ने कहा था “भूखा पेट
धर्म नहीं समझता।” उनका मानना था कि गरीब को भोजन देना ही सबसे बड़ा धर्म है। यही
भाव बौद्ध करुणा और गांधीजी के ‘ट्रस्टीशिप सिद्धांत’ में भी था। समाज में असमानता
बढ़ेगी तो आध्यात्म पीछे छूट जाएगा, असंतोष हिंसा में बदलेगा,
और विकास केवल कागज़ पर रह जाएगा।
आज जब दुनिया
आर्थिक संकट,
असमानता, भूख और कुपोषण जैसी समस्याओं से जूझ
रही है, यह कहावत और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। विश्व खाद्य
कार्यक्रम के अनुसार विश्व की लगभग 70 करोड़ जनसंख्या प्रतिदिन भूख का सामना करती
है। भूख व्यक्ति को मजबूर बनाती है, मूल्य-संवेदनाओं को
डगमगाती है, और उसे सामाजिक शोषण की ओर धकेल सकती है। अतः यह
लोकोक्ति हमें याद दिलाती है कि सदाचार, आध्यात्मिकता और
नैतिकता की नींव सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा है।
यह कहावत यह नहीं बताती
कि भक्ति या आध्यात्मिकता गौण है बल्कि यह बताती है कि भक्ति के लिए धरातल चाहिए, और
वह धरातल भोजन है। भक्ति तभी फलती-फूलती है जब समाज न्यायपूर्ण हो, संसाधन बराबरी से उपलब्ध हों और कोई भूखा न सोए। इसीलिए गुरुनानक देव ने
“किरत करो, नाम जपो, वंड
छको” कहा अर्थात काम करो, कमाओ, बाँटो
और फिर भजन करो। धर्म और भौतिकता विरोधी नहीं, बल्कि पूरक
हैं।
अंततः यह कहावत
हमें मानव जीवन के बहुत सरल पर गहरे सत्य से परिचित कराती है कि भूख मिटाना केवल
भोजन देना नहीं,
बल्कि मानव गरिमा का सम्मान है। भोजन और मूलभूत आवश्यकताओं की
पूर्ति आध्यात्म, नैतिकता, ज्ञान और
विकास की जड़ है। जब पेट भरा हो तभी मन ऊँचा उड़ सकता है और जब आवश्यकता पूरी हो तभी
आदर्श फल-फूल सकते हैं। अंततः वही समाज महान कहलाएगा जहाँ कोई भूखा न सोए और हर
व्यक्ति गरिमा के साथ भजन कर सके।


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