“प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठकर, आत्मविकास ही जीवन की सर्वोच्च सफलता है”
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वर्तमान समय ऐसा है जहाँ सफलता का पैमाना बाहरी
प्रतिस्पर्धा को माना जाता है। आज के समय में कौन कितना आगे है, किसने
कितनी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं और किसने कितनों को पीछे छोड़ा है, यही सफलता का पैमाना बनता जा रहा है। किंतु वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य
का वास्तविक संघर्ष दूसरों से नहीं, स्वयं के भीतर बसे
संशयों, भय और सीमाओं से होता है जिस पर विजय ही वास्तविक सफलता
है। इसी कारण महात्मा बुद्ध का कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है “स्वयं को जीतना
हजार युद्ध जीतने से श्रेष्ठ है।” यह संदेश बताता है कि जीवन की सर्वोच्च सफलता
बाहरी प्रतिस्पर्धा में नहीं, बल्कि आत्मविकास की उस अवस्था
में है जहाँ मनुष्य स्वयं का श्रेष्ठतम रूप बन पाता है।
प्रतिस्पर्धा और आत्मविकास जीवन के दो भिन्न दर्शन हैं।
प्रतिस्पर्धा व्यक्ति को दूसरे के मानक पर चलने के लिए बाध्य करती है। इसका केंद्र
“वह क्या कर रहा है” होता है। जबकि आत्मविकास का केंद्र “मैं क्या कर सकता हूँ, क्या
बन सकता हूँ” है। प्रतिस्पर्धा बाहरी तुलनाओं की ओर ले जाती है, जबकि आत्मविकास व्यक्ति को अपनी मौलिकता, क्षमता और
अंतर्निहित संभावनाओं को पहचानने का अवसर देता है। इतिहास साक्षी हैं कि जिसने
स्वयं को जीता, उसने ही दुनिया को दिशा दी। यही कारण है कि
स्वामी विवेकानंद कहते हैं “आप अपनी इच्छा से ही सीमित हैं।”
समकालीन समाज में प्रतिस्पर्धा एक अनिवार्य सामाजिक मानक
बनती जा रही है। स्कूलों में रैंक, कार्यस्थलों पर रेटिंग,
और सोशल मीडिया पर लोकप्रियता आदि सब कुछ तुलना पर आधारित है। यह
तुलना धीरे-धीरे व्यक्ति की खुशी, आत्मविश्वास और मानसिक
स्थिरता को क्षीण करती है। जब व्यक्ति अपनी यात्रा किसी और के मापदंडों से तय करता
है, तब वह अपनी मौलिकता खो देता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
लिखा “जब हम दूसरों की राह देखकर चलते हैं,
तब अपनी राह खो देते हैं।” यह बताती है कि तुलना से रचित जीवन सीमित
होता है, जबकि आत्मखोज से रचित जीवन विस्तार पाता है।
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मनुष्य का विकास आत्मविकास में निहित है। सुकरात ने कहा
था—“अपरिक्षित जीवन जीने योग्य नहीं।” यह संदेश बताता है कि जब तक व्यक्ति स्वयं
को, अपनी इच्छाओं को, अपने स्वभाव को नहीं समझता,
तब तक वह अपने जीवन का पथ नहीं चुन सकता। आत्मविकास की राह व्यक्ति
को जागरूक बनाती है और वह समझता है कि उसकी सफलता उसकी बाहरी उपलब्धियों में नहीं,
बल्कि उसकी आंतरिक संतुष्टि, संयम और धैर्य
में छिपी है। यह दृष्टि व्यक्ति को स्थिर और परिपक्व बनाती है।
जब व्यक्ति प्रतिस्पर्धा के चक्र से बाहर आता है तब वह सहयोग, सहानुभूति और सामूहिकता की
ओर बढ़ता है। अत्यधिक प्रतिस्पर्धा समाज को विभाजित करती है, जबकि आत्मविकास समाज को जोड़ता है। गांधीजी का ग्राम-स्वराज इसी विचार पर
आधारित था कि व्यक्ति का विकास तभी सार्थक है जब वह समाज की भलाई से जुड़ा हो।
प्रतिस्पर्धा समुदायों के बीच अविश्वास को जन्म देती है, जबकि
आत्मविकास सामूहिक उत्थान का आधार बनता है। समाज के स्थायी विकास के लिए यही
दृष्टि अपेक्षित है।
एक प्रशासक की सफलता इस बात से नहीं आँकी जाती कि उसने
कितनों को पीछे छोड़ा,
बल्कि इस बात से आँकी जाती है कि उसने कितनों को साथ लेकर आगे
बढ़ाया। नेतृत्व की भावना प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि प्रेरणा,
नैतिकता और संवेदनशीलता पर आधारित होती है। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल
कलाम इसी विचार को प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं “उत्कृष्टता प्राप्त करो,
प्रतिस्पर्धा स्वयं समाप्त हो जाएगी।” यह दृष्टिकोण न केवल व्यक्ति
को बल्कि पूरे प्रशासनिक तंत्र को अधिक मानवीय बनाता है।
आत्मविकास वह शक्ति है जो व्यक्ति को मानसिक शांति
प्रदान करता है। जो व्यक्ति दूसरों से अपनी तुलना नहीं करता, वह
अपनी असफलताओं को सीख मानता है। तुलना मुक्त व्यक्ति अधिक रचनात्मक, अधिक धैर्यवान और अधिक संतुलित होता है। प्रतिस्पर्धा अल्पकालिक
उपलब्धियाँ दे सकती है, परंतु दीर्घकाल में गुणवत्तापूर्ण
कार्य और स्थायी विकास आत्मविकास से ही प्राप्त होता है। जिस समाज में लोग अपने
कौशल और रुचि के अनुसार विकसित होते हैं, वहाँ नवाचार अधिक
होता है और आर्थिक उत्पादकता भी बेहतर होती है। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि
मनुष्य की वास्तविक क्षमता तभी खिलती है जब उसका मन भय और प्रतियोगिता से मुक्त
होकर अपने लक्ष्य पर केंद्रित हो।
वर्तमान सोशल मीडिया के दौर में जहाँ तुलना एक दैनिक आदत
बन चुकी है,
आत्मविकास का महत्व और बढ़ जाता है। लोग सफलता की चमक दिखाते हैं,
संघर्ष की धूल नहीं। ऐसे में व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन के
मूल्यांकन का आधार बाहरी प्रशंसा न बनाकर आंतरिक संतुष्टि बनाए। वास्तविक विकास
वही है जो स्वयं को बेहतर बनाकर दुनिया के प्रति अधिक सार्थक योगदान दे।
अंततः जीवन की सबसे बड़ी जीत वह नहीं है जो दूसरों को
पीछे छोड़कर हासिल हो,
बल्कि वह है जो स्वयं की अपूर्णताओं को स्वीकार कर उन्हें पराजित कर
प्राप्त की जाए। रूसो का कथन इस सत्य को सुंदरता से व्यक्त करता है “मनुष्य का
वास्तविक शत्रु कोई और नहीं, बल्कि उसका अधूरा स्वरूप है।” जब
व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है, तभी वह जीवन की यात्रा को
शांत, संतुलित और सार्थक बना पाता है।
निष्कर्षतः प्रतिस्पर्धा जीवन की राह में मात्र एक बाहरी
परीक्षा है,
परंतु आत्मविकास जीवन का स्थायी पथ है। दूसरों से आगे निकलने की
आकांक्षा क्षणिक उपलब्धि देती है, जबकि स्वयं का श्रेष्ठ रूप
बनने की आकांक्षा मनुष्य को संपूर्ण बनाती है। सच्ची सफलता वही है जो व्यक्ति को
आत्मसम्मान दे, समाज में सहयोग बढ़ाए और मानवता को ऊँचा
उठाए। इसलिए जीवन की सर्वोच्च विजय तभी संभव है जब मनुष्य यह समझ ले कि असली
चुनौती बाहर नहीं अपने भीतर है और असली जीत दूसरों पर नहीं बल्कि स्वयं पर है।
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